Tuesday, 12 February 2013

A poem... ताख पर रखा क़ानून ,


A poem...
ताख पर रखा क़ानून ,

ताख पर रखा था, उस ने ज़िंदगी भर 
क़ानून को ,
चिंदी चिंदी उड़ाते रहे, वह पन्ने, किताबों के ,
बिखेरती रही हवा, उन्हे, तार तार ,
गूंजते रहे नेपथ्य में, पैशाचिक अट्टहास .

आए जब वह सलीबों तले आज ,
उन्ही किताबों के पन्ने ,
वही जुमले, वही बातें ,
जिन्हे अनसुना कर दिया था कभी, उस ने ,
अट्टहास के शोर मे जिसे गुम समझ लिया था उस ने ,
आहिस्ता आहिस्ता सहेजते दिखा वह .

दोहरायी जा रही हैं ,
वहीं पंक्तियाँ ,
जो कभी ज़ुबान थी गाली की .
हवाले दिए जा रहें हैं उन्ही किताबों के ,
जो कभी रौंदे गये थे उनके पैरों तले .

नियति है या विडंबना ,
परवाह नहीं की , जिन्होने उन किताबों की , कॅभी
रू ब रू हुए जब मौत से ,
आज जब , तो ,
कायदा क़ानून समझाने लगे

घोंट दिए थे गले जिस ने ,
मासूमों के ,
इंसानियत के,
बहते रक्त पर किया था नर्तन जिस ने ,
आयी बात जब गले पर अपने ,
तो सदा सुनायी दी इंसानियत की
देने लगे दुहाई , इंसाफ़ की .

शामिल हैं,
भीड़ में कुछ अलग से चेहरे भी ,
जिन्हे ,
इन की पीड़ा तो दिखती है ,
उन की नहीं ,
जिन्होने अपना 'आज' गँवा दिया ,
इन के 'कल' के लिए .
-vss

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