Sunday 25 November 2012

A poem - मैं अखबार हूँ





दोस्तों, आज एक नया विषय , मैंने अपनी कविता के लिए चुना है, अखबार पर मेरी कविता पढ़ें , शायद आप को पसंद आये।

मैं अखबार हूँ

मैं अखबार हूँ
रोज़ सुबह आता हूँ , दरवाजे पर तुम्हारे ,
लपेट कर फ़ेंक देता है मुझे ,हाकर,

आँखें मलते  मलते उठाते हो मुझे ,
झाड़ते हो धूल  मेरी
लपेट लाया हूँ जिसे , ज़माने की गर्द ओ गुबार से
पलटते हो मुझे पन्ने दर पन्ने .

समेटे हूँ  खुद में एक मुकम्मल दुनिया ,
ह्त्या , आगज़नी , लूट , डकैती  और बलात्कार की ,
मंहगाई , दुर्घटनाएं , सियासी सरकस की ,
सरकारों के गिरने और बचने की ,
सस्ते लोन, कारों के नए माडल
खोयी हुयी जवानी के  वापस लाने के नुस्खे ,
बाजीगरी आकड़ों की ,
किस्से कुछ क्रिकेट और फिल्मों की .
सिमट गयी है दुनिया कुछ पन्नों में .

परोस देता हूँ तुम्हे , सब कुछ ,
पढ़ते हो सारी ख़बरें ?
या , देखते हो सिर्फ ज्वार भाता दलाल स्ट्रीट का ,
या, खो जाते हो सेलेब्रिटी स्कैंडल में ,
या ढूंढते हो, आभासी दुनिया में, तितलियों को  , ,
फिर लपेट कर रख देते हो मझे किसी कोने में,
नाश्ते की खाली प्लेट की तरह

सच कहना ??
आंदोलित हुए हो कभी ,
दमन की ख़बरों से ,
कसमसाए हो कभी ,
खाप पंचायत के फैसलों से ,
रात में चौंक कर उठे हो कभी ,
निर्दोष की ह्त्या की ख़बरों पर ,
आसूं बहें हैं कभी ,
शहीद होते जवानों की शहादत पर ,
जो तुम्हारे 'कल' के लिए अपना 'आज ' गंवाता है ,

रात के सन्नाटे में , कॉकटेल पार्टियों से
खुमार - पीड़ित  लौटते हुए ,
कभी सोचा है ,
देखे थे जो सपने आज़ाद भारत के,
हमारे पुरखों ने ,
वो कहाँ और कैसे गुम  हो गए .

तुम उन ख़बरों को देखते  ही कहाँ हो ,
खो देते हो खुद को ,
गुदगुदाने वाली ख़बरों में
कथित सभ्य समाज की उठा पटक में ,
और कभी उबलते भी हो तो ,
फुस्स हो जाते हो , सड़क के किनारे लगे सूखे नल की तरह ,
जिस से पानी नहीं सिर्फ आवाज़ निकलती है .

नहीं दिखता तुम्हे ?
भीड़ में उतरा  रहे , भूखे चेहरे
पटरियों पर बने पोलिथीन के घरोंदे ,
जिन को हर अधिकार प्राप्त है
तुम्हारी ही तरह, उस मोटी किताब में ,
जिसे तुम तब खोलते हो , जब तुम्हारी साँसें घुटती हैं
और घिर जाते हो .

कहाँ गयी संवेदना तुम्हारी ?
क्यूँ हो गए हो संज्ञा शून्य ?
क्यूँ बनते जा रहे हो द्वीप, समृद्धि के ,
क्यूँ कटते जा रहे हो, असली दुनिया से ,
डुबा  देगा तुम्हे ये सैलाब , एक दिन ,
जो फैल रहा है , इर्द गिर्द तुम्हारे ,
न चेते अब तो ,
एक अलग किस्म की ग्लोबल वार्मिंग है यह

आगाह करता हूँ तुम्हे , रोज़ सुबह
बाहें फैला कर सब दिखाता हूँ तुम्हे ,
इतिहास और दुनिया बदली है , मैंने
नज़रें मत चुराओ ,
देखो ,
धीरे धीरे ही सही ,
एक नयी दुनिया बन रही है ,
मुझे गौर से पढो ,
मैं अखबार हूँ .
-vss

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