हांथों में जिन के ,
बसंत की रौनक , और
गुलाब की खुशबू ,
बिखरी पडी रहती थी ,
अधरों पर जिन के , हमेशा
मुस्कान टंगी रहती थी,
वे भी , मित्र
आज जब मौसम बदला तो ,
दे के सौगात पतझड़ की , मुझे
दम भरते भरते दोस्ती का, कहीं चले गए !!
मैं ठगा, कभी उन्हें ,
और कभी आसमान देखता रहा !
नियति है यह , या दस्तूर -ए -दुनिया ,
सोच रहा हूँ क्या नाम दूं इसे ......
Bahut Ache poem hai sir
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