Thursday 25 May 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (1) लखनऊ का पहला सफ़र


जोश मलीहाबादी, उर्दू के इंक़लाबी शायर माने जाते हैं। जोश की आत्मकथा, यादों की बारात, आत्मकथा साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। लखनऊ के पास, लखनऊ जिले की एक तहसील है मलीहाबाद। दशहरी आमों के बाग़ात के लिए, मशहूर, इस कस्बे में जोश साहब का जन्म हुआ था। जोश साहब के पुरखे, वहां के ताल्लुकेदार थे। यह ताल्लुकेदारी, जोश साहब की पैदाइश तक तो महफूज रही, फिर जैसे वक्त के साथ, सारी रियासतें और ज़मीदारियाँ खत्म हुईं, जोश साहब की यह ताल्लुकेदारी भी उजड़ गयी। जमींदारी खत्म होने के बाद, ज़मीदारों की पहली पीढ़ी, अक्सर, जमींदारी के क्षीण होते वैभव को पचा नहीं पाती है। इस आत्मकथा में, जोश साहब ने, ताल्लुकेदारी की क्षीण होते वैभव से व्याप्त अपनी मनोदशा का वर्णन भी किया है, जो आगे के अंशों मे आयेगा। 

आज इस आत्मकथा, यादों की बारात, का पहला अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस अंश में जोश साहब, जब किशोर थे, तब वे, पहली बार लखनऊ गए थे। मलीहाबाद, अवध के नवाब के अंतर्गत का तालुका था। तालुका एक बड़ी ज़मीदारी को कहते हैं। अवध की ताल्लुकेदारी का इतिहास में स्थान रहा है। 1857 के विप्लव में, अवध के तालुकेदारों ने, खुल कर, अवध के नवाब, वाजिद अली शाह को, अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किए जाने बाद, उनकी बेगम, बेगम हजरत महल के नेतृत्व में, ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना का जबरदस्त प्रतिरोध किया था। लेकिन विप्लव विफल रहा और अंग्रेज़ो ने अवध पर अपना नियंत्रण पुख्ता किया लेकिन ताल्लुकेदारी परंपरा उन्होंने जारी रखी। मलीहाबाद की ताल्लुकेदार के चश्मो चिराग जब पहली बार लखनऊ तशरीफ़ ले जातें हैं तो लखनऊ उनके खयालों और शब्दों में कैसा लगता हूँ, इसे आप इस अंश में पढ़ सकते हैं। 
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लखनऊ का पहला सफ़र 
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हमारी गाड़ी अकबरी दरवाज़े के सामने जाकर खड़ी हो गई और हमारा सामान ‘बाँसवाली सराय’ में जाने लगा। लखनऊवाले हमारे अफग़ानी नैन-नक़्श, डील-डौल, हमारे सिपाहियों की सज-धज, उनके बड़े-बड़े पग्गड़, उनके मोटे-मोटे लट्ठ देखने के लिए ठट लगाकर हमारे गिर्द जमा हो गए। 

मैंने अकबरी दरवाज़े के अन्दर क़दम रखा तो देखा कि इस चौड़े-चकले दरवाज़े के दायें-बायें, लकड़ी के तख़्तों पर मिट्टी के इस क़दर सजल, सुंदर, और नाज़ुक खिलौने ऊपर-तले रखे हुए हैं कि उन्हें देख यह ख़याल होने लगा कि करीब जाऊँ तो हर खिलौना पलकें झुकाने और बातें करने लगेगा और गुजरिया भाव बताने लगेगी और सक्क़ों (भिश्ती) को अगर ज़रा-सा भी छू लिया तो उनकी भरी मशकों से धल-धल पानी बहने लगेगा। 

खिलौने ख़रीदकर जब मैंने चौक में क़दम रखा, तो ख़ुशबूदार लकड़ियों और लोबान की लपटों ने मेरा स्वागत किया। आगे बढ़ा तो चाँदी के वर्क़ कटने की नपी-तुली आवाज़ ने मेरे पाँव में ज़ंजीर डाल दी। वह व्यवस्थित और संगठित खटा-खट ऐसी मालूम हुई जैसे तबले पर बोल कट रहे हैं। फिर हारवाले की सुरीली आवाज़ आई, ‘हार बेले के, फूल चम्पा के,’ वहाँ से आगे बढ़ा तो क्या बताऊँ क्या-क्या देखा? हाय तंबोलियों की वे झलझलाती तितरी कुलाहें (लंबी टोपी), वे दुपल्ली टोपियाँ, वे शरबती अंगरखे, वे घने-घने पट्‌ठे, वे चूड़ीदार पायजामे, कंधों पर वे बड़े-बड़े रेशमी रूमाल, आड़ी-तिरछी माँगें, कल्लों (दाढ़ों) में दबी हुई सुगंधित गिलोरियाँ, साक़ियों और साक़िनों के हाथों में वे ख़ुशबूदार तम्बाकू के हुक़्क़ों पर वे लिपटे हार, हारों से पानी के क़तरों का वह टपकना, वे बजते कटोरे, वे सारंगियों की थरथराहट के हवाओं में हल्कोरे, वे गमकते हुए तबले, बालाख़ानों (कोठा) के छज्जों से वह मुखड़ों की बरसती हुई चाँदनी और ज़ुल्फ़ों के गिरते हुए सियाह आबशार (प्रपात), कोठेवालियों में कोई गोरी, कोई चम्पई, कोई साँवली-सलोनी, नैन-नक़्श इस क़दर बारीक गोया हीरे की क़लम से तराशे हुए, कोई कड़ियल जवान, कोई नौजवान और कोई इन दोनों के दरमियान, गोया हुमकती हुई उठान, कोई गठे जिस्म की और कोई धान-पान—किसी की नाक में नथ, किसी की नाक में नीम का तिनका, तमाशाइयों का हुजूम, कन्धे से कन्धे छिलते रैले और कोठों पर नज़र जमाए हुए विपरीत दिशाओं से आने-जाने वालों के सीनों का टकराव और टकराव पर वह विनीत क्षमा-याचना। मैं अभी इस तिलिस्म के दरिया में गोते खा रहा था कि मशीर ख़ाँ ने मेरा हाथ पकड़कर अपनी तरफ़ खींचा। मैं किनारे पर आ गया। सारा तिलिस्म टूट गया। और मैं सबके साथ, मियाँ के पीछे-पीछे सर झुकाकर सराय आ गया। सराय में क़दम रखते ही दम-सा घुटने लगा। मैंने बड़ी लजाजत के साथ कहा—“मियाँ, (यह संबोधन, जोश साहब अपने पिता के लिए करते थे) हम सिपाहियों को साथ लेकर नीचे घूम आएँ?” मशीर ख़ाँ मुस्कुराए और मियाँ ने बड़ी भयंकर संजीदगी से कहा—“चौक बच्चों के टहलने की जगह नहीं है।” मैं कलेजा मसोसकर रह गया। 

इतने में सालह मुहम्मद ख़ाँ ढोरे (लखनऊ का सबसे मशहूर कुल्फी वाला) को साथ लिए आ गए। उसने जस्ते की बड़ी-बड़ी कुल्फ़ियों को दोनों हाथों की हथेलियों में बड़े माहिराना अन्दाज़ से घुमा-घुमाकर और बालाई के काग़ज़ी आबख़ोरों को मिट्टी की सौंधी-सौंधी रकाबियों में खोल-खोल कर पेश किया। और मिट्‌टी के कोरे-कोरे चमचे भी सामने रख दिए। क्या बताऊँ इन कुल्फ़ियों और आबख़ोरों की लज़्ज़त और मुलायमियत, ज़बान ने इससे पहले कभी कोई ऐसी चीज़ चखी ही नहीं थी। उनके मज़े को बयान करूँ तो क्योंकर ? उपमा दूँ तो किस चीज़ से ?—और मुलायमियत का तो यह आलम कि उन्हें सिर्फ़ होंठों से और तालू से खाया और नज़र की हरारत से पिघलाया जा सकता था। रात होते ही हमारे बावर्ची के पकाए हुए खानों के साथ-साथ—अब्दुल्ला की दुकान की पूरियाँ, अहमद की बाक़रख़्वानियाँ, सआदत की शीरमालें, शबराती के अठारह-अठारह परतों के पराँठे, झुम्मन रकाबदार के भुने हुए मुर्ग़, शाहिद का बटेरों का पुलाव, हैदर हुसैन ख़ाँ के फाटक की गली का अनन्नास का मीठा चावल, ग़ुलामहुसैन ख़ाँ के पुल के कबाब, कप्तान के कुएँ के पिस्ते-बादाम की मिठाई और हुसैनबाद की बालाई। और न जाने क्या-क्या नेमतें हमारे दस्तरख़्वान पर चुन दी गईं—और मैं खा-पीकर सो रहा। 

भोर-दर्शन की चाट तो पड़ ही चुकी थी। मैं सबसे पहले बेदार होकर बालाख़ाने की छत पर चढ़ गया। सुबह का स्वागत करने को जब आसमान की तरफ़ नज़र उठाई, शहर की ऊँची-ऊँची इमारतों के कारण उषा की रंगीनी दूर-दूर भी नज़र न आई। आँखें मुरझा गईं। मैंने देखा पौ तो ज़रूर फट रही है और मुर्ग़ भी बाँग दे रहे हैं; लेकिन न पौ फटने में सुहानापन है और न मुर्ग़ों की बाँग में ज़ोर—ज़मीन से आसमान तक एक फीकापन छाया हुआ है। साँस लेता हूँ तो धांस-भरी, मोटी-मोटी हवा सीने को खुरच और दिल पर बोझ डाल रही है। प्रात-समीर चल रही है; पर उसके झोंकों में प्यार नहीं है। प्रकृति की दुल्हन के पाँव में न चाँदी के घुँघरू हैं न सर पर छपका। मेरे वलवले ऐसी मलगज़ी-मलगज़ी, खोई-खोई, फीकी-फीकी, उबली-उबली, हेठी-सेठी, रूठी-रूठी, औंधी-औंधी, गूँगी-गूँगी, भिंची-भिंची और बुझी-बुझी सुबह को देखकर, गुल हो गए और धुआँ देने लगे। मैं भारी दिल के साथ नीचे आया और मुँह-हाथ धोने लगा—मुँह पर बार-बार छपक्के मारे, दिल की कली नहीं खिली। 

इतने में नाश्ता आ गया। रोग़नी रोटी, अंडों के सितारे, बालाई, शीरमाल और नमश का नाश्ता करके फ़ारिग़ हुआ तो मेरे बाप ने दो सिपाहियों और मशीर ख़ाँ को साथ करके मुझे लखनऊ की सैर के लिए रवाना कर दिया। 

मैंने लखनऊ में हफ़्ता-भर रहकर नीचे लिखे स्थान देखे— 
हुसैनाबाद की शाही कोठी, उसका क्लॉक-टॉवर, हुसैनाबाद का इमामबाड़ा उसकी भूलभुलैया, आसिफ़ुद्दौला का इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा, हज़रत अब्बास की दरगाह, नजफ़ अशरफ़, ताल कटोरे और भूल कटोरे की करबलाएँ, बेलीगारद, अजायबघर, शाह पीर मुहम्मद, टीले की मस्जिद, शाह मीनार की मज़ार और मोती महल, हज़रतगंज, चुनिया बाज़ार, अमीनाबाद, गोमती, ठंडी सड़क, लोहे का पुल, लाल बाग़, सिकंदर बाग़, बंदरिया बाग़, विक्टोरिया बाग़ और बनारसी बाग़ और छतर मंज़िल का फ़क़त वह हिस्सा जो सड़कों से नज़र आता है। हरचंद मेरी लड़कपन की नज़र में ये सारे स्थल बड़े अजीब थे; लेकिन इनसे भी अजीबतर नज़र आए लखनऊ के वे रईस, आलिम, अदीब और शायर जो मेरे बाप के पास आते थे। वह उनके वहाँ तशरीफ़ ले जाया करते थे। अल्लाह-अल्लाह उनके वे लचकीले सलाम, उनके उठने-बैठने के वे पाकीज़ा अंदाज़, उनके वे तहज़ीब में डूबे हाव-भाव, उनके लिबास की वह अनोखी तराश-ख़राश, सामाजिक और साहित्यिक समस्याओं पर उनका वह वाद-विवाद, उनके शब्दों का ठहराव, उनके लहज़ों के वे कटाव, ग़ज़ल सुनाते समय शे’र के भाव के अनुसार उनकी आँखों का रंग और चेहरों का उतार-चढ़ाव वह क़हक़हों से बचाव, उनका हल्का-हल्का तबस्सुम, विनम्रता के साँचे में ढला हुआ उनका वह स्वाभिमान, और बावजूदे-कमाल उनका वह हाथ जोड़-जोड़कर अपनी कम-इल्मी का एतराफ़ ये सारी बातें देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। वे तमाम लोग इस क़दर सभ्य, शालीन और सुसंस्कृत थे कि ऐसा मालूम होता था, वे इस दुनिया के नहीं किसी प्रकाशमंडल के वासी हैं। 

इन्हीं बुज़ुर्गों की जूतियाँ सीधी करके मैंने शाईस्तगी (शालीनता) सीखी और यह ज़रा-सी सुध-बुध जो आज मुझे अदब और ज़बान पर हासिल है, यह उन्हीं की सोहबत का असर है। अब वह लखनऊ है न लखनऊवाले। एक-एक करके सब चले गए ख़ाक के नीचे। खा गई मिट्टी उनके जौहरों को। बहुत दिन हुए, मैंने एक रुबाई कही थी : 

जलती हुई शमओं को बुझाने वाले, 
जीता नहीं छोड़ेंगे ज़माने वाले, 
लाशे-देहली पे, लखनऊ ने यह कहा, 
अब हम भी हैं कुछ रोज़ में आने वाले ⁠। 
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


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