Tuesday 22 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - तीन (3)

“फ़ौज-ए-बाग़िया भांग, लड्डू-पेड़े, पूरी-कचौड़ी खा कर मदमस्त रहती…पूरी दिल्ली पर क़ब्ज़ा कर, जो मर्जी आता वह करती। हाल-ए-दिल्ली थी अंधेर नगरी, चौपट राजा।”

- ज़हीर देहलवी (दास्तान-ए-ग़दर) 

दिल्ली 1857 के युद्ध और अराजकता दोनों की केंद्र थी। युद्ध इसलिए कि अंग्रेज़ दिल्ली टीला पर जम चुके थे, और लाल किले की परिधि में भारतीय बाग़ियों ने डेरा जमा लिया था। वहीं, अराजकता तो प्रशासन के अभाव में होनी ही थी। 

बंगाल रेजिमेंट के 1,39,000 सिपाहियों में 1,31,704 सिपाही विद्रोह कर चुके थे, और उनमें से लगभग साठ हज़ार सिपाही धीरे-धीरे दिल्ली की ओर रुख कर रहे थे या पहुँच चुके थे। 

वहीं दूसरी ओर मुसलमान मुजाहिद्दीनों की एक फ़ौज जामा मस्जिद से ज़ीनत-उल-मस्जिद के इर्द-गिर्द जमा हो गयी थी। इनमें गुड़गाँव से हिसार तक से आए मेवाती और अन्य मुसलमान, टोंक (वर्तमान राजस्थान) से आए वहाबी मुसलमान और अन्य जिहादी मंसूबों के मुसलमान शामिल हो गए थे। बरेली की ओर से बख़्त ख़ान के नेतृत्व में एक बड़ी फ़ौज आ रही थी। 

इनके अतिरिक्त आस-पास के गाँवों से जाट और गुर्जर दलों का आना-जाना लगा रहता। इनमें बड़ौत के शाह मल तोमर के नेतृत्व में जाट सेना उल्लेखनीय है, जिसमें तीन-चार हज़ार किसान शामिल थे।

अराजकता का नाज़ुक वक्त वह था, जब अंग्रेज़ दिल्ली से खदेड़े जा चुके थे, उनकी तरफ़ से युद्ध शुरू नहीं हुआ था मगर दिल्ली में लूट-पाट चल रही थी। 12 मई का ज़िक्र ज़हीर दहलवी ने कुछ यूँ किया है,

“वे किसी भी रईस का घर चुनते और कहते कि इसने मेमसाहेब या साहिब को छुपा रखा है। यह सुन कर दंगाइयों की फ़ौज घर में घुस जाती और उनको पूरी तरह लूट कर, बर्बाद कर बाहर निकलती”

कुछ आपसी झगड़े भी निपटाए गए। जैसे शिया समुदाय के प्रतिनिधि हामिद अली ख़ान पर गद्दारी का इल्जाम लगा कर घसीट कर लाया गया। वह बहादुर शाह ज़फ़र के हस्तक्षेप से बच पाए। दिल्ली की मशहूर मिठाई दुकानों और साहूकार महाजन नारायण दास की संपत्ति लूट ली गयी। एक ज़वेरी मोहनलाल का अपहरण कर दो सौ रुपए की फिरौती माँगी गयी, जो उन दिनों बड़ी रकम थी। इसी तरह दिल्ली की तवायफ़ों से ज़बरदस्ती करने के भी विवरण हैं। ये विवरण ब्रिटिशों के नहीं, बल्कि चुन्नी लाल, अब्दुल लतीफ़ और ज़हीर दहलवी जैसे भारतीयों के संस्मरण हैं।

जो बचे-खुचे अंग्रेज़ मिलते, उन्हें तो खैर मार ही दिया जाता। चुन्नी लाल का एक संस्मरण है-

“मुहम्मद अली के बेटे मुहम्मद इब्राहीम ने चार फिरंगियों को छुपा रखा था। पता चलते ही उन चारों को मार कर इब्राहीम का घर लूट लिया गया। एक फिरंगन हिंदू भेष में भाग रही थी, एलवबरो टैंक के पास मारी गयी।”

हिंदू सिपाहियों और मुसलमान जिहादियों के मध्य दरार भी आने लगी। जामा मस्जिद पर लग रहे ‘दर-उल-इस्लाम’ के नारे और मौलवियों के जिहादी फ़तवे उन्हें चुभने लगे थे। सिपाही जब उन मुसलमानों की तलाशियाँ लेने लगे, तो कुछ झड़प होने लगी। हिंदू सिपाहियों के मध्य बढ़ती शंकाओं को देख 14 जून को मौलवी मुहम्मद बकर ने दिल्ली उर्दू अख़बार में लिखा,

“मेरे हिंदू भाइयों! आपने अपने पवित्र ग्रंथों में पढ़ा कि हिंदुस्तान में कई हुकूमतें आयी और गयी। सभी एक न एक दिन खत्म हुई। आप तो यह भी जानते हैं कि रावण की राक्षसों की सेना को राजा रामचंद्र ने पराजित किया…आदिपुरुष के अतिरिक्त कुछ भी स्थायी नहीं।

आप यह समझें कि इस विदेशी कौम की सौ साल की हुकूमत ख़त्म करने की मियाद आपके भगवान ने दी है। क्योंकि इन्होंने आपके भाइयों और बहनों को हिकारत की नज़र से देखा है। यह वक्त आपके लड़ाई छोड़ कर जाने का नहीं, साथ लड़ने का है।”

अंग्रेज़ इस लुट रही दिल्ली, ठप्प पड़े व्यवसायों से हताश जनता, और मज़हबी तकरारों मे उन चेहरों को तलाशने लगी जो बन सकते थे उनके जासूस। उनके कुछ जासूसी चिट्ठे अब डिजिटाइज़ होकर भारत सरकार के अभिलेख-पटल वेबसाइट पर सार्वजनिक हैं। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - तीन (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-2_21.html 

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