Saturday 19 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (19)

हिंसा से स्वतंत्रता प्राप्ति एक रूमानी क्रांतिकारी नैरेटिव रही है। कुछ छोटे देशों में संगठित गुरिल्ला युद्धों से यह संभव हुआ है, लेकिन बड़े देशों में हुए जन-विद्रोहों में 1857 एक असफल उदाहरण है। सत्ता द्वारा दमन के उदाहरण तो कई मिलेंगे, लेकिन इसके पहले या इसके बाद भारत में किसी केंद्रीय सत्ता के खिलाफ़ इतनी हिंसा नहीं हुई। 1857 में कई सती चौरा और कई जालियाँवाला बाग समाए हुए हैं। सभी अंकित करना किसी एक किताब या एक व्यक्ति द्वारा असंभव है। 

रस्किन बॉन्ड की एक पुस्तक है ‘अ फ्लाइट ऑफ पिजन’, जिस पर श्याम बेनेगल ने एक फ़िल्म बनायी थी ‘जुनून’। राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला और शशि कपूर के सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए ख्यात रही। वह शाहजहाँपुर के विद्रोह पर आधारित है। मूल इतिहास के विवरण कुछ यूँ है। 

31 मई, 1857 की सुबह 7.30 बजे सेंट मैरी गिरजाघर में अंग्रेज़ जुटने लगे। गिरजाघर ऐसी जगह थी, जहाँ वे हथियार लेकर नहीं जाते, इसलिए आक्रमण के लिए मुफ़ीद थी। वहाँ जवाहर राय, मंगल ख़ान, अज्जू ख़ान आदि के नेतृत्व में सिपाहियों ने हमला कर दिया। गिरजाघर और आस-पास अंग्रेजों को मारा जाने लगा। 

असिस्टेंट मजिस्ट्रेट स्मिथ हल्ला सुन कर छत पर आए, और मारे गए। कमांडिंग अफ़सर जेम्स परेड ग्राउंड से घोड़े पर निकले, उन पर गोली चली और वह मर गए। डॉ. बोलिंग सिपाहियों को समझाने लगे, जिन्हें सुना भी जा रहा था। उन्होंने एक बार अंग्रेज़ी में seditious शब्द का प्रयोग किया, जिसके अर्थ को लेकर सिपाहियों में कुछ शंका हुई. और उन्हें मार दिया गया।

वहाँ का ख़ज़ाना लूट लिया गया, छावनी जला दी गयी, और क़ैदियों को आज़ाद कर दिया गया। शाहजहाँपुर भी कुछ दिनों के लिए आज़ाद हो गया। बरेली के गिरजाघर में भी इसी तरह के नरसंहार हुए, जिनकी कब्र आज भी वहीं बैप्टिस्ट गिरजाघर की झाड़ियों में दबी है। यह निहत्थों पर हमले की घटनाएँ 1857 को एक धर्मयुद्ध या जिहाद का स्वरूप दे रही थी। 

एक घोषणापत्र सावरकर के अनुसार गाँव-गाँव, गली-गली में चिपकाए जा रहे थे और अन्य संदर्भों में भी किसी न किसी रूप में हैं- 

“हे हिंदू और मुसलमानों! अपने-अपने धार्मिक कर्तव्यों के लिए हम जनता का आह्वान करते हैं। इस समय अगर कोई डरपोकपना करे या फिरंगी झूठे आश्वासनों पर भरोसा करे, तो उसके मुँह पर कालिख पोती जाएगी। इंग्लैंड के स्वामित्व को स्वीकार करने पर लखनऊ के नवाब की जो हालत हुई, वही तुम्हारी होगी…इस घोषणापत्र को गाँव-गाँव में चिपकाएँ। ऐसा करते समय पकड़े न जाएँ और अपनी तलवार निकाल कर फिरंगियों पर प्रहार करें”

ऐसे पत्रों से स्पष्ट है कि धर्म-रक्षा को सर्वोपरि कर हर अंग्रेज़ नागरिक को विधर्मी और उनकी हत्या को नैतिक माना जाने लगा। कुछ इतिहासकार इसे दो फाँक में बाँटते हैं कि मुसलमानों के लिए यह जिहाद था, और हिंदुओं के लिए यह सिपाही-विद्रोह को सहयोग था। लेकिन, यह विभाजन स्पष्ट नहीं है क्योंकि न ही सिपाही विद्रोह में एक धर्म के लोग थे, न ही युद्ध से इतर अंग्रेजों की हत्याओं में।

जुलाई की शुरुआत बहुत ही वीभत्स होने को थी। दिल्ली के टीले पर ब्रिटिश अपनी क़िलाबंदी कर चुके थे। लखनऊ में भारतीयों ने रेसीडेंसी को घेर लिया था। कानपुर और फ़तेहगढ़ में एक तरफ़ भारतीय संगठित हो रहे थे, दूसरी तरफ़ ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक उन्हें दबाने निकल चुके थे।

फ़ारस युद्ध से जनरल आउटरैम और अन्य लौट कर रिपोर्ट कर चुके थे, और लखनऊ कूच करने की तैयारी कर रहे थे। अंग्रेज़ों की योजना में यह भी महत्वपूर्ण था कि धन के स्रोत रोके जाएँ। 29 जून को मिसेज इलीस ने अपनी डायरी में लिखा,

“हमें विद्रोहियों के हाथ में कैसरबाग़ की संपत्ति नहीं देनी थी। इसलिए हमने महल के कमरों और जनाना से नवाब ख़ज़ाने के रत्न-जवाहरात निकाल लिए।”

नाना साहेब पेशवा से भी पैसे को लेकर सिपाहियों की ज़िरह शुरू हो गयी थी। एक भारतीय नानक चंद ने 4 जुलाई को अपनी डायरी में दर्ज़ किया,

“सिपाहियों में असंतोष था कि नाना साहेब सारा ख़ज़ाना लेकर बिठूर चले गए, और हमें यहाँ मरने के लिए छोड़ गये। उन्हें भी भुगतना होगा”

अगले तीन दिनों में उन्होंने लिखा, “टीका सिंह नाना साहेब को लाने बिठूर निकल गए…अगर वे साथ आने को नहीं तैयार हुए तो गद्दी नन्ने नवाब को सौंपनी होगी”

वे नहीं जानते थे कि गद्दी न नाना साहेब के पास रहेगी, न नन्ने नवाब के पास। 
(द्वितीय शृंखला समाप्त)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - दो (18) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-18.html 

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