Friday 18 November 2022

प्रवीण झा / 1857 की कहानी - दो (18)

“भारत में ब्रिटिश सत्ता कैसे आयी? मुग़लों की सत्ता उनके अपने सूबेदारों ने खत्म की। उन सूबेदारों की सत्ता मराठों ने। मराठों की लड़ाई अफ़ग़ानों से हुई और सभी आपस में संघर्ष करने लगे। इस मध्य ब्रिटेन ने घुस कर अपनी सत्ता बना ली। एक देश जो हिंदू और मुसलमानों में, जातियों में, कई खेमों में बँटा हो, आपसी समझौतों से स्थापित संतुलन पर टिका हो, उन पर किसकी गिद्ध दृष्टि नहीं होगी?…प्रश्न यह है कि क्या ब्रिटेन को यह अधिकार है कि वह स्वयं को तुर्कों, फ़ारसियों, या रूसियों से बेहतर आक्रमणकारी बताए?”

- कार्ल मार्क्स, जुलाई, 1853

एक बार रुक कर यह सोचना चाहिए कि सती चौरा नरसंहार का कारण क्या हो सकता है? जब नाना साहेब पेशवा ने संधि कर ली थी, उन्हें भेजने की व्यवस्था कर ली थी, धन सहयोग भी दिया, फिर उन्हें बेरहमी से क्यों मार दिया गया? 

ब्रिटिशों ने तो नाना साहेब को एक कुटिल धोखेबाज़ कहा, लेकिन इसकी संभावना कम लगती है कि यह सब मात्र एक कूटनीतिक षडयंत्र था। नाना साहेब की संधि की वजह वही होगी, जो संधियों की होती है। इसमें एक हाथ ब्रिटिश की तरफ़ बढ़ाना, और दूसरे हाथ से ब्रिटिशों से कुछ शर्तें मंगवाने की संभावना दिखती है। हत्याओं को नाना साहेब ने रुकवाया, और बच गए अंग्रेजों को बीबीघर में रखवाया जो उसी दिशा में कुछ आखिरी कदम थे। 

इन नृशंस हत्याओं के लिए जो लोग ज़िम्मेदार थे, उन्हें पूरी खबर नहीं होगी कि ब्रिटिशों और नाना साहेब ने किन काग़जों पर हस्ताक्षर किए हैं। उनका लक्ष्य फ़िरंगियों की हत्या थी, चाहे इसका जो भी फल हो। यह कूटनीतियों से परे एक गुस्से से भरी भीड़ थी। यह भीड़ हत्यारी क्यों बन रही थी, इसके पीछे कुछ निजी कारण भी हो सकते हैं। इसे समझने लिए गंगा नदी के किनारे-किनारे ही चलता हूँ एक स्थान जो भारत की नब्ज़ से जुड़ी है- काशी या बनारस।

इतिहासकार मानते हैं कि अगर प्रयाग और बनारस में कुछ घटनाएँ नहीं हुई होती, तो न अंग्रेज़ कानपुर छावनी खोते, और न भारतीय कोई नरसंहार करते।

बनारस उस वक्त भी अपने रंग में था, जहाँ के घाटों पर दिल्ली से लखनऊ तक की खबरों पर चकल्लस होते। रानीगंज और दानापुर से जो तमाम ब्रिटिश सिपाही डाक (घोड़ा गाड़ी) से आ रहे थे, वे बनारस घाट से ही आगे निकल रहे थे। अंग्रेज़ों की इस हलचल पर बनारस के लोगों की नज़र थी। उन्हें यह भी मालूम था कि ये सिपाही विद्रोह दबाने जा रहे हैं। बनारस में यूँ भी लोगों की आवा-जाही अधिक थी, तो खबरें आगे जल्दी पहुँच जाती।

उस समय बनारस छावनियों की ज़िम्मेदारी कमांडर जेम्स नील के हाथ में थी, जो स्वयं नाना साहेब और विद्रोही सिपाहियों से लड़ने के लिए कानपुर निकल रहे थे। उन्होंने वहाँ निकलने से पहले एहतियातन बनारस के भारतीय सिपाहियों को हथियार डालने कहा। सिपाही भड़क गए।

“हमें हथियार डलवा कर ये लोग हमको ही गोली से उड़ा देंगे”, नंबर 2 कंपनी के एक हवलदार ने कहा और गोली चला दी।

इसके साथ ही विद्रोह शुरू हो गया। उन्हें दबाने आए यूरोपीय टुकड़ी ने ग़लती से सिखों पर गोली चला दी। सिख, जो अब तक अनुशासित थे, वे भड़क गए। एक सिख ने कर्नल गॉर्डन पर गोली चला दी। इस घटना ने ऐसे भ्रम पैदा किए कि जौनपुर में भी सिखों ने यूरोपीय अफ़सरों को मारना शुरू कर दिया।

6 जून को लॉर्ड कैनिंग ने एक घोषणापत्र (ऐक्ट 14) निकाला कि किसी भी विद्रोही को अब बिना जाँच के फाँसी दी जा सकती है। यूँ तो यह पहले से किया जा रहा था, मगर औपचारिक शुरुआत बनारस से की गयी। बाग़ियों को पकड़ कर सीधे फाँसी पर लटकाया जाने लगा।

यह खबर जब इलाहाबाद पहुँची, तो वहाँ भी 6 जून को ही सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया, और अंग्रेज़ों को मारने लगे। वहाँ नगर में मौलवी लियाक़त अली ने मुसलमानों को जिहाद के लिए प्रेरित किया और रात भर अंग्रेज़ नागरिकों की हत्यायें होती रही। ये छावनी से बाहर के पेंशनधारी अंग्रेज़ों, शिक्षकों और मुंशियों आदि के परिवार को मार रहे थे। लियाक़त अली ने कोतवालियों पर क़ब्ज़ा कर कुछ दिन अपना छोटा-मोटा प्रशासन भी स्थापित कर लिया।

16 जून को बनारस से जेम्स नील अपने सिपाही लेकर पहुँचे, और मुसलमानों के इलाकें से मनमर्जी लोगों को उठाने लगे। मौलवी लियाक़त अली स्वयं कानपुर निकल गए। अधिकांश रिपोर्टों के अनुसार सैकड़ों को बिना किसी जाँच के फाँसी दे दी गयी। जेम्स नील के एक सहायक तो पूरी बस्ती ही जलाने लग गए। एक अफ़सर ने लिखा है,

“कुछ दिन बाद हम कानपुर के लिए निकल रहे थे। हमारे मार्च के पहले दो दिनों तक इलाहाबाद के आस-पास न जाने कितने पेड़ देखे जिन पर हिंदुस्तानी लटक रहे थे। कुछ के पैर जमीन के करीब थे, जिनको सूअर कुतर रहे थे। यह दुर्गंध असहनीय था।”

सती चौरा का नरसंहार बनारस और इलाहाबाद के इन वीभत्स दृश्यों के बाद हुआ। एक नरसंहार के कारण दूसरा नरसंहार नैतिक तो नहीं था, किंतु 1857 का ढाँचा ही कुछ ऐसा बनता जा रहा था। अंग्रेज़ और भारतीय दोनों ही संवाद के बजाय एक दूसरे का रक्त बहाए चले जा रहे थे।

बनारस और इलाहाबाद में आतंक मचाने वाले जेम्स नील अब कानपुर निकल रहे थे, मगर अब उनसे भी खौफ़नाक कमांडर को ज़िम्मेदारी दी गयी। जेम्स नील इस बदलाव से नाराज़ थे, मगर आदेश मानना पड़ा। उन कमांडर पर सावरकर ने पूरा अध्याय लिखा है, वहीं ब्रिटिश इतिहासकार उन्हें 1857 का सर्वश्रेष्ठ महानायक कहते रहे। उनका नाम था ब्रिगेडियर जनरल हेनरी हैवलॉक।

हैवलॉक के बाद 1857 आर या पार की लड़ाई बन गयी। अब किसी मोर्चे पर संधि की संभावना न के बराबर थी। अब जीत का अर्थ चाहे जो हो, हार का अर्थ मृत्यु ही थी। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

1857 की कहानी - दो (17) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/11/1857-17.html 

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