Sunday 10 July 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता : आंखन देखी (7)

बांस के भीतर में पके चावल का स्वाद जिह्वा पर आज भी अंकित है। भोजन के बाद कुछ देर बात करते रहे। नागालैंड के कोहिमा शहर में जो इस राज्य की राजधानी भी है, प्रति वर्ष आयोजित हॉर्नबिल फेस्टिवल पर भी चर्चा हुई। हॉर्नबिल पक्षी नागा पहचान का प्रतिनिधित्व करता है। इस आठ द्विवासीय कार्यक्रम में सभी नागा समूह अपनी सहभागिता निर्धारित करते हैं। आजकल नागा के अतिरिक्त दूसरे आदिवासी समूह भी आने लगे हैं। जनवरी महीने के प्रथम सप्ताह में आयोजित होने के कारण इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। राज्य सरकार के द्वारा आयोजित होने से इसका वैधानिक महत्व भी बढ़ जाता है। प्रत्येक नागा समूह, युवा घर या यूथ डॉरमिटरी बनाते थे। इसमें अविवाहित युवा आकर रहते थे। आखेट, युद्ध कौशल, नृत्य, कला, गृह निर्माण, जड़ी बूटियों का ज्ञान सभी कुछ यहां  सीखते थे। यह अपने आप में एक गुरुकुल के समान होता था। लड़कियों के लिए अलग घर होते थे। युवा नागा लड़के और लड़कियां आपस में बातचीत करते थे। सहमति होने पर विवाह भी कर सकते थे। यद्यपि इसके लिए सामाजिक मान्यता अनिवार्य थे। सामान्यतया वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष के लोगों को सुअर, छांग, वस्त्र आदि उपहार में देते थे। मिथुन आदि भी देने का प्रावधान था। लड़कियां भी गृहकार्य से लेकर, नृत्य, कला आदि में यहां आकर प्रवीण होती थी। दुर्भाग्य से यह परंपरा आज के समय लगभग समाप्त प्राय है। हॉर्नबिल फेस्टिवल में प्रत्येक नागा समुदाय अपने अपने यूथ डॉरमेटरी का निर्माण बूढ़े और अनुभवी लोगों की सहायता से करते हैं। उनके गृह निर्माण में कलात्मक अभिव्यक्ति का अनुपम उदाहरण देखने को मिलता है। वर्नाकुलर आर्किटेक्चर, स्थानीय घास, बांस, लकड़ी, मिट्ठी आदि का समानुपातिक समन्वय, जगह का प्रबन्धन, पक्षियों के पंख, जानवरो के सिंह, सिर, हड्डी आदि से गृह को सजाना, कौड़ी के प्रयोग से और अधिक आकर्षित करना कुछ ऐसी कलाएं हैं जिसको देखकर आप विस्मय में पड़ जायेंगे। हरेक समुदाय का घर आपको बहुत देर तक वहां से हटने नही देगा। इन घरों में युद्ध के अस्त्र, तीर, धनुष, तलवार, छाती को सुरक्षित करने वाले कवच और भी अनेक सामग्री होते हैं। खेल के समान, कृषि यंत्र, अनुष्ठान में प्रयुक्त सामग्री, बेंत के समान, टोकरी, मिट्टी के घड़े भी होते हैं। इसपर विस्तार से फिर कभी चर्चा करेंगे। 

इसके बाद एक दूसरे घर में जहां एक चूल्हा जल रहा था, मुझे सोने के लिए ले जाया गया। चूल्हा में लकड़ी का एक विशाल भाग जल रहा था। एक लकड़ी 15- 20 दिन चल जाता है।  इस घर में बांस के कुछ मचान की आकृति के आयताकार जगह बने हुए थे। उसपर विस्तर लगे थे। बांस से ही घर को बंद किया जाना था। द्वार पर एक विशाल लकड़ी का टुकड़ा रखा था जिससे हिंस जानवर न भीतर आ सके। खैर! मैं वहां जाकर सो गया। निर्देश यह मिला था कि मुझे सुबह 4 बजे उठ जाना है। यह भी बता दिया गया था कि अमुक व्यक्ति मुझे उठा देगा। उठने के बाद मुझे आधे घंटे के भीतर तैयार होकर इसी जीप से वापस उस शहर जाना था जहां से मैं यहां आया था। सब कुछ यंत्रवत एक यांत्रिक व्यवस्था के तहत चल रहा था।

खैर मैं सो गया। सोया क्या, सोने का अभिनय करने लगा। जंगल के जानवर, कीड़े मकोड़े, टिड्डियो का दल अलग ही कलरव मचाने लगे थे। हवा बह रही थी। हवाओ के झोकों के अपने मधुर लय और ताल थे। अंधेरी रात का आलम क्या लिखूं! अनुभव शब्द में नहीं व्यक्त किए जा सकते। फिर भी अपने अनुभव को तो बताना ही पड़ेगा इसीलिए कुछ शब्द और वाक्यों से घटनाक्रम को बताने का उपक्रम कर रहा हूं।

पत्तो के आपस में टकराने की आवाज को सुन सकता था। घर के बाहर कड़ाके की ठंडक थी। यह अहसास तो था इसीलिए बाहर झांकने का यत्न ही नही किया। विचारों के द्वंद, नागा जनजाति की संस्कृति, संवेदनाएं, उनका अपनी संस्कृति, धरती और अस्तित्व की रक्षा करने की चिंता, अनेक प्रश्न थे जो न तो मुझे सोने दे रहे थे, न ही मैं जगकर उसपर बहुत गंभीरता से विचार करना चाहता था। संस्कृति भी तो राजनीति का अस्त्र ही है, आज अच्छी तरह से समझ सकता था। भावनाएं अनेक दिशाओं में भटक रहे थे। उन्हें संकलित कर एक धागे में नही पिरो पा रहा था। बैचेनी अकारण बढ़ती जा रही थी। मन के तरंग को बीच बीच में बाहरी आवाज मानो बिखंडित कर देते थे! 

पूरी रात न सो पाया न जग पाया। कब सुबह हो गई पता ही नही चला। निर्धारित समय पर एक महिला नागा अपने हाथ में बांस के बने बड़े से कप में एक कप चाय लेकर आई। चाय में दूध नही था। चीनी और कुछ जंगली पते अवश्य डाले गए थे जो चाय को स्वादिष्ट बना रहे थे। वह नागा महिला मुझे बिना कहे ही बगल में रखे घड़े से एक ग्लास पानी निकालकर मेरे सामने रख दी। मैं भी एक आज्ञाकारी शिशु की तरह पानी पीकर चाय पीने लगा। चाय पीकर जल्दी-जल्दी तैयार हो गए। जब बाहर निकल कर जीप में बैठने वाला ही था तो नागा मुखिया आ गया। कहने लगा: 
"आपसे मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। कोई ऐसा व्यक्ति तो मिला जिससे अपनी बात कह पाया। और आपने मेरी बात गंभीरता से सुन भी लिया। अगर कोई दिक्कत हुआ तो सॉरी।"

मैने कहा : 
"कोई दिक्कत नही हुई। मैं भी बहुत कुछ सीखा आपसे। यह समझ पाया की जमीनी हकीकत क्या है और लोग किस तरह से इसको बाहरी दुनिया में पड़ोसते हैं। मेरा यहां एक-एक मिनट सार्थक रहा। आपके सच का सहचर बना। आप मेरी व्यर्थ चिंता न करें।"

तब तक एक महिला एक बेंत की टोकरी में एक लाल रंग की ऊनी चादर लेकर आई। नागा वह चादर लेकर मेरे शरीर पर रख दिया। बोला: 
"हमारे यहां बुनने का काम महिलाएं करती हैं। चादर के डिजाइन से पता चल जाता है कि यह किस नागा के द्वारा बनाया गया है। इससे यह भी पता चलता है की जिसके लिए बनाया गया है उसका समाज में क्या अस्तित्व अथवा स्थान है। वह व्यक्ति परिवार का है, अतिथि है, समूह का नेता है, या क्या है। उदाहरण के लिए यह चादर हमारे 212 गांव के नागा सरदार के लिए बना है। हमने आपके बारे में बहुत सुना था। आज जब मिले तो लगा आप उससे भी अच्छे हो। अतः हमलोग आपका वैसा ही सम्मान करना चाहते हैं जैसा यहां के सबसे शक्तिशाली नेता का। आप इसे स्वीकार करें।"

मेरा मन पुलकित हो गया। लग रहा था यह क्या हो रहा है! मैने बिना कुछ कहे ही गर्दन झुकाकर अपनी विनम्रता प्रदर्शित किया। कभी-कभी मन के भाव को प्रदर्शित करने के लिए शब्द छोटे पड़ जाते हैं। भाव शब्द की सीमा से काफी बड़े हो जाते हैं। फिर जो आपके शरीर और अंगो के हाव भाव होते हैं, वे जरूर अपन अर्थ स्वतः प्रमाणित करते हैं। इसके बाद नागा मुखिया मुझसे गले मिला फिर हाथ मिलाकर बाहर निकल गया। 

नागा मुखिया के जाते ही दो महिला और एक पुरुष पुनः भीतर आए। वे इशारे से मुझे बताकर मेरे दोनो आंखो में पुनः पट्टी बांधने लगे। इस प्रक्रिया में मैं अच्छी तरह से उनकी विवशता समझ पा रहा था। उनको डर मुझसे नहीं अपितु व्यवस्था और प्रशासन से था ।

ठंड अधिक था। मैने नागा चादर ओढ़ लिया था। गाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ रही थी। पहाड़ी इलाकों में चाहकर भी बहुत गति की कल्पना नहीं कर सकते। अनुभव  मात्र कर सकता था कि सड़क सही नही था। गाड़ी का चालक बहुत चतुर था। लगभग आधी यात्रा करने के बाद एक जगह रोककर मेरे आंखो का पट्टी खोल दिया गया। अब मैं सभी कुछ देख सकता था। जो लोग गाड़ी पर पहले से थे अब वे नही थे। शायद सुरक्षा की दृष्टि से ऐसा किया गया होगा। इससे मुझे कोई भी फ़र्क पड़ने वाला नही था।

कुछ देर चलने के बाद एक ढाबा पर हमलोग रुके । चाय पिया। चाय के साथ बिस्कुट भी ले लिया था। वे लोग मुझे कुछ खाने के लिए आग्रह कर रहे थे। लेकिन मेरा मन खाने के लिए तैयार नहीं था। एकाएक एक ठेला में बहुत बड़े-बड़े बेर लेकर एक आदमी आ गया। इतना बड़ा और आकर्षक बेर मैने भारत में कहीं नही देखा था। बिलकुल सेब की तरह। बेर और हरे सेब में अंतर करना मुश्किल हो जाय इस तरह का। मैं बेर की ओर आकर्षित हुआ। हाथ से छूने लगा। फिर जिज्ञासा से पूछा : "यह कौन फल है?"
ठेले वाला बोला: "यह बर्मा का बेर है।"
मैने पूछा: "अच्छा। इतना बड़ा बेर?"
ठेले वाला: "जी सर। था बेर बहुत बड़ा होता है। बर्मा से यहां आता है। आप मोइरांग जाकर दिनभर का वीजा लेकर बर्मा जा सकते हैं। वहा से खुद बेर खरीद सकते हैं। वहां के लोग भारत दिन भर के लिए आते हैं और भारत के लोग दिन भर के लिए बर्मा। बर्मा में लकड़ी के बने समान, हाथी दांत के बने समान एवं अन्य सामान भारत की तुलना में काफी सस्ते हैं।"

मैने एक किलो चुनकर बेर खरीद लिया। मेरे साथ जो नागा मित्र थे वे पैसे ठेले वाले को देने लगे। लेकिन मैंने नही देने दिया। अब हमलोग पुनः अपने गंतव्य के लिए चल पड़े। गाड़ी तेज पकड़ ली।  चले जा रहे थे। झूम के खेत ऐसे लग रहे थे जैसे प्रकृति किशोरी ने अपनी बेणी को अलग-अलग गुच्छों में अलंकृत किया हुआ हो। धरती की हरितिमा देखने लायक थी। पहाड़ी पर ऐसा लग रहा था जैसे हरे मखमल बिछे हो। मुझे ऐसा लग रहा था कि भारत में केबल कश्मीर ही स्वर्ग नही है। सही अर्थ में भारत में स्वर्ग की श्रृंखला हैं। आपको उन श्रृंखलाओं को ढूंढना होगा। एक मुझे अनायास यहां मिल गया। एक नॉर्थ कछार हिल्स में मिला था। आगे न जाने कितने और मिलेंगे। भगवान से प्रार्थना करता हूं की में सतत अपनी ज्ञान यात्रा में संलग्न रहूं और उत्तरपूर्व भारत का चप्पा-चप्पा ढूंढ लूं। 

बेर खाने का लालच मैं नही रोक पा रहा था। गाड़ी में कुल  चार लोग थे और बेर 6. मैने  एक-एक बेर सभी के हाथ में दे दिया। सभी लोगों ने नैसर्गिक मुस्कान बिखेरते हुए बेर लेकर खाना शुरू कर दिया। बेर का स्वाद सच कहूं तो मुझे जचा नहीं। बिलकुल फीका था। फिर याद आया राजस्थान का वह नजारा जिसमे एक राजस्थानी मित्र कह रहे थे कि अगर बेर में मिठास और स्वाद चाहते हैं तो छोटे बेर खरीदें। राजस्थान में छोटे बेर इसीलिए महगे होते हैं। खैर! बर्मा का बेर इतना भी खराब नही था। लेकिन दूसरा खाने का मन नही किया। मेरे साथ के लोगों के प्राकृतिक मुस्कान पर क्या लिखूं। निश्चल और चिंता मुक्त मुस्कान। ऐसा कि देखकर आपका दिन सुदिन हो जाए। वैसे लोग जो पहली बार उत्तर पूर्व की यात्रा कर रहे है, उनसे एक बार मैं आग्रह करूंगा कि वहां के लोगों के मुस्कान का अवलोकन करे। आप अंदर से प्रसन्न हो जायेंगे। गाड़ी चलती रही। अंततः मेरे गंतव्य से लगभग डेढ़ किलोमीटर पहले एक सुनसान जगह पर उनलोगों ने मुझे उतार दिया। हाथ मिलाकर पुनः वही नैसर्गिक मुस्कान बिखेरते हुए चले गए। मैं उनके चार्म में इतना खोया हुआ था कि पैदल ही वहां से अपने होटल में आ गया। दूरी कब पूरा कर लिया पता ही नही चला। अब नित्यकर्म के बाद अपने को कुछ और काम के लिए तैयार करना था। 
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता :  आंखन देखी (7) 
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