Saturday 30 July 2022

डॉ कैलाश कुमार मिश्र / नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (18)

पूर्वोत्तरी - स्पिरिट ऑफ नार्थईस्ट “अ” ~ 
 

अनुभव अनंत है। सुकरात महोदय कहते थे लिखकर आप किसी के बारे में संशय ही उत्पन्न करते हो। लिखने का मतलब पूरे अनुभव को बौना करना है। आप जो देखते हो उसका मुश्किल से दस से बारह फ़ीसदी लिख पाते हो। फिर क्यों लिखना? एक मित्र पूछ रहे थे, "कैलाश भईया, आप पूर्वोत्तर भारत के बारे में लिख रहे हो। अच्छा लग रहा है। एक प्रश्न है। क्या उनमें कहीं कोई नकारात्मक चीज नही हैं? या फिर आप लिखना नहीं चाहते?"

मैं इनको क्या बताऊं। उनके सकारात्मक पक्ष का एक प्रतिशत हिस्सा भी अभी नहीं लिख पाया हूं तो नकारात्मक पक्ष पर क्या लिखूं। चंचल मन धैर्य रखो। मतलब लिखना भी सार्थक क्रिया है। क्यों? इसलिए कि लोगों के पास एक प्रतिशत जानकारी नहीं हैं। जब आपके घर की अन्न की कोठी खाली है तब आपको यह नहीं सोचना है कि किस अनाज का भण्डारण करूं। जो मिले, रखते जाइए। यही अवस्था है यहां। 

लगातार चार साल से कार्य करते जा रहे थे। पुराने ज्वाइंट सेक्रेटरी जा चुके थे। एक विक्षिप्त मानसिकता वाली ज्वाइंट सेक्रेटरी आ चुकी थी। वे हर चीज में नुक्स निकालती। डॉ टीना उनसे दोस्ती बना ली थी। मेरे बारे में जितना अधिक हो सकता था उनको बरगला कर चली आई थी। सौभाग्य से मेंबर सेक्रेट्री नहीं बदले थे। ज्वाइंट सेक्रेटरी को जब मन करे मुझे बुलाकर अपमानित करने लगती। एक बात पूछती और फिर स्वयं उसपर अपना उत्तर गढ़ती। बोलती: "तुम लोग लकड़ी, बांस, बेंत, कद्दू के सामान लाकर यहां कबाड़ जमा कर रहे हो। "

मुझे पहली बार लगा कि पूरे मेहनत पर पानी डाल रही है।  उत्तरपूर्व भारत में महल एवं अन्य वस्तु तो मिलेंगे नही। बेंत, लकड़ी, बांस, हड्डी उनका जीवन है। उनके शॉल को देखकर आप अंदाज लगा सकते हैं कि वे कितने कलात्मक हैं। उनको, अपने परिवेश और संस्कृति से कितना प्यार है,यह सामान्य जन जो उनको जानता नही कैसे  जानेंगे!  ऊपर से जितने ऑब्जेक्ट खरीदे गए सभी उन कलाकारों से सीधे लिए गए थे। उनपर कैप्शन तैयार किए जा रहे थे। उनको राज्य क्षेत्र आदिवासी समुदाय स्त्री, पुरुष आदि के आधार पर सजाए जा रहे थे। वे ऑब्जेक्ट्स हमारे लिखित दस्तावेज के जीवंत प्रमाण थे। उनको लाने के लिए अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा था। लेकिन ये लोग क्या जाने! हमारी समस्या यह है कि हम निरक्षर को मूर्ख मान लेते हैं। सच तो यह है कि साक्षर लोग अधिक मुर्ख होते हैं। वे अपनी वर्णमाला और अपनी संस्कृति और संस्कार से समस्त संसार को देखते हैं। किसी से समझना नहीं चाहते। जो उनके जैसा नहीं है वह मूर्ख है, अविकसित है, असभ्य है। हमारी नयी जॉइंट सेक्रेटरी वैसी ही थीं और उनके हाँ में हाँ मिलनेवाली थी, विद्वानों की लेडी विभीषण, डॉ टीना। डॉ टीना अब विभागाध्यक्ष भी बन चुकी थी। तेवर दिखाना कोई उनसे सीखे । 

एकदिन डॉ चक्रवर्ती मुझसे कहने लगे: जॉइंट सेक्रेटरी और डॉ टीना तुम लोगों को काम नहीं करने देना चाहती हैं। रोज मेरे पास तुम्हारे शिकायत का पुलिंदा लेकर पहुँच जाती हैं। मैंने तो जॉइंट सेक्रेटरी से इतना तक कह दिया है कि उसको परेशान मत करो। बहुत अच्छा काम कर रहा हैं। पुरे उत्तरपूर्व भारत के लोगों, संस्था, कलाकार, विद्वान आदि के साथ वह सदैव लगा रहता है। सभी उसका सम्मान करते हैं। दुर्गम से दुर्गम स्थानों पर भी जाने से नहीं घबराता। लेकिन मेरे दलील का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। डॉ टीना उसका ब्रेनवाश करती रहती है।”

मैंने उत्तर दिया: “ठीक है सर, मैं उत्तरपूर्व की जिम्मेवारी से अपने आपको मुक्त कर लेता हूँ”। हमेशा की तरह डॉ त्रिवेणी इस बार भी मेरा साथ देते हुए बोली: “ठीक है सर, मैं भी उत्तरपूर्व भारत के क्रियाकलाप से डॉ कैलाश के साथ ही अपने को अलग करती हूँ।” डॉ त्रिवेणी का ऐसा कहना मुझे एक अपूर्व आत्मबल प्रदान कर रहा था। 

डॉ चक्रवर्ती बहुत गंभीर प्रशासक और विद्वान थे। उन्होंने सहजता से उत्तर दिया: “आप दोनों चिंता मत करो। जीवन में ऐसे नकारात्मक लोग मिलते रहते हैं। इसका मतलब यह नहीं कि आप वह काम करना ही छोड़ दें। डॉ टीना यही तो चाहती है कि आप लोग तंग आकर यह काम छोड़ दो। आप एक काम करो। अभी तक जितना काम किये हो उसका शोकेस करो। सभी ऑब्जेक्ट्स का प्रदर्शनी करो। 10 दिन का एक मेगा इवेंट दिल्ली में आयोजित करो जिसमे हरेक पूर्वोत्तर भारत के राज्य का प्रातिनिधित्व निर्धारित करो। एक विस्तृत योजना तैयार करो। इसमें डॉ टीना और जॉइंट सेक्रेटरी को संलग्न करो। उनकी भूमिका निश्चित करो। एकाउंट्स से लेकर सभी विभाग के लोगों को किसी न किसी कार्य में लगा दो। जाओ पहले एक कार्यक्रम की रुपरेखा तैयार करो। उसका बजट तैयार करो।”

मुझे लगा, डॉ चक्रवर्ती एक बार पुनः मुझे फंसा रहे हैं। लेकिन दूसरा कोई उपाय भी नहीं था मेरे पास। मैं डॉ त्रिवेणी के साथ वापस आ गया। तीन दिन लगातार लोगों से बात करने के बाद यह निर्णय लिया गया कि हमलोग 10 दिन का कार्यक्रम बनायेंगे। नाम होगा: “पूर्वोत्तरी – The Spirit of Northeast”। इसमें प्रथम और अंतिम दिन समवेत कार्यक्रम होंगे और आठ दिन तक हरेक दिन एक राज्य को समर्पित होगा – असम, मणिपुर, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा, और सिक्किम। निर्णय यह लिया गया कि दिन में सेमिनार, कलाकृतियों और अन्य सभी इकत्रित ऑब्जेक्ट्स का प्रदर्शनी, फिल्म शोज, नाटक आदि का आयोजन और रात्रि में सांस्कृतिक कार्यक्रम अर्थात नित्य और संगीत। यह भी निर्णय लिया गया कि हमलोगों ने अभी तक जितने फोटोग्राफ अपने कैमरे में कैद किये हैं उनको भी प्रदर्शनी में दिखाया जायेगा। कलाकेन्द्र के २३ एकड़ के कैंपस को मिनिएचर पूर्वोत्तर भारत के रूप में बदल दिया जायेगा। संस्थान का एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो इस कार्यक्रम में किसी न किसी रूप में संलग्न न हो। 

मुझे लगा कि गौतम शर्मा, एवं प्रत्येक राज्य से कुछ प्रतिनिधियों को बुलाकर कार्यकर्म का ब्लू प्रिंट बना लें। सभी राज्य के लोग, राज्य के विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर, कलाकारों के प्रतिनिधि, जनजातीय प्रतिनिधि, आदि को बुलाकर एक तीन दिन का कार्यशाला का आयोजन किया गया। अब पूरा संस्थान इसमें संलग्न था। हमें यह चिंता नहीं थी कि अतिथियों को आने जाने और रहने की व्यवस्था कौन करेगा? अनेक समिति और उपसमिति बना दिए गए थे। अंत में जॉइंट सेक्रेटरी ने ही मुझे उसका कोऑर्डिनेटर बना दिया। इतनी समितियां होने के बाद भी लोग मेरे पास आते थे। मैं दो रिसर्च स्कॉलर के साथ एक कमरे से सारा कार्य करता रहा। इस बीच भी डॉ टीना पूरे मन से मुझे प्रताड़ित करती रही। प्लान बनाती रही कि किसी तरह से पूरा कार्यकर्म फ्लॉप हो जाए और उसकी जिम्मेवारी मेरे सिर पर मढ़ दिया जाए। 

खैर होना कुछ और ही था। बैनर, पोस्टर, एक एक कार्यक्रम की रुपरेखा हमलोग कभी कभी तो दिन क्या देर रात तक बनाते रहे। लोगों को किस तरह का भोजन देना है, कितने डारमेट्री, कितने होटल के रूम बुक करने हैं। रेल और हवाई जहाज में कैसे टिकट्स कन्फर्म करवाने हैं। किस तरह से पूर्वोत्तर भारत के सभी जाति, जनजाति, समुदाय का प्रतिनिधित्व हो सके, इसका प्लानिंग, डॉक्टर दल की व्यवस्था, पुलिस की परमिशन, एम्बुलेंस की व्यवस्था, मीडिया रिपोर्टिंग और टीम मैनेजमेंट, सभी कुछ पर एक साथ काम चल रहा था। जीवन में पहली बार २३ एकड़ के कैंपस में पत्ते पत्ते को गतिमान देखा था। दिन रात तो, हम मानो भूल ही गए थे। 
सेमिनार के लिए थीम का निर्धारण, उसके लिए चेयरपर्सन, वक्ता का चयन, उनसे शोध पेपर लिखने का आग्रह, समय से उनका पेपर, बायोडाटा, छवि आ जाये, इसका निर्धारण, कलाकारों का चयन एवं उन्हें पूर्व से ही जानकारी भेजना, काम का अंत ही नही था। उपर से अगर किसी भी समिति का कोई व्यक्ति कहीं फंसता तो सीधे मेरे पास आता या फोन करता। लेकिन इस तमाम प्रक्रिया में डॉ चक्रवर्ती की भूमिका का जितना वर्णन करूँ काम होगा। चक्रवर्ती महोदय सतत हमलोगों के लिए उपलब्ध रहते। भाषा प्रवीण भी थे वे। हमारे लिखे हरेक ड्राफ्ट को गम्भीरता से पढ़ते। हमें समझाते। लगता था जैसे कोई हाई स्कूल का अंग्रेजी का शिक्षक हमें व्याकरण सिखा रहा है। उनका साहचर्य अनंत उर्जा प्रदान करने का तंत्र ही तो था। 

कभी-कभी मन करे, “क्यों ले लिया इस झंझट को मोल!  टाल देना था डॉ चक्रवर्ती के विचार को!” फिर सोचता: “यही तो है जीवन की चुनौती। अगर सफल हो गए तो एक इतिहास हो जायेगा। कभी-कभी पिताजी से बात कर लेता था। कार्य तेजी से चल रहा था। 

इसी बीच एकाएक पिताजी का फोन आया। फोन पर रोने लगे। मैंने पूछा क्या हुआ: “बोले, अब नहीं बचूंगा।” इतना कहकर पिताजी फोन माँ को पकड़ा दिए। माँ कहने लगी: "समझ में नहीं आ रहा है, क्या हो गया है। तुम्हारे भैया भाभी भी यहाँ नही है। पिताजी को देखना है तो जल्द आ जाओ।”

दुसरे दिन सुबह मैं पटना हवाई जहाज से चला गया। मुझसे बड़ी बहन धनबाद से पटना आ चुकी थी, पिताजी दरभंगा के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती थे। वहाँ जाने पर पता चला कि उनको हार्ट अटैक हुआ था। स्थिति क्रिटिकल है। खैर। हम यह आश लगाये पिताजी का इलाज कराते रहे कि ठीक हो जायेंगे। लेकिन होना कुछ और था। चार दिन के बाद वहाँ के डॉक्टर ने जवाब दे दिया। हमलोग दरभंगा  से पिताजी को लेकर पटना चल पड़े। हाजीपुर के पास पिताजी चल बसे। वापस घर आ गये। होनी को कौन टाल सकता था। 

जब डॉ चक्रवर्ती को यह पता चला तो उन्होंने पूर्वोत्तरी के कार्यक्रम को 2 महीने आगे बढ़ा दिया। पिताजी के श्राद्ध कर्म के बाद मैं दिल्ली वापस आया। डॉ चक्रवर्ती बोले: “यह जीवन की सच्चाई है। स्वीकार करो। पूर्वोत्तरी तुम्हे ही करना है। मैंने दो महीने आगे कर दिया है। पांच दिन और आराम कर लो उसके बाद लग जाओ काम में।”

मुझे एक दिन अँधेरे में ऐसा लगा जैसे पिताजी मेरे साथ चल रहे हों। रात में अनेक बार पिताजी सपने में आये। कहने लगे: “माता-पिता मरते नही हैं। केवल स्थूल से सूक्ष्म में बदल जाते हैं। मैं तुम्हारे साथ हूँ। अपना काम शुरू करो। जीवन का यही विधान है।”
मैंने मान लिया कि पिताजी सदैव साथ हैं। उनकी आज्ञा की अवहेलना उचित नही है मेरे लिए। यही सोचकर मैं पांच दिन क्या तीसरे दिन ही डॉ चक्रवर्ती से मिला और उन्हें बता दिया कि अगले दिन से काम पर लग जाऊंगा। अब पुनः अपने मिशन पर एक योद्धा की तरह काम करने लगा था मैं। 

कार्यक्रम निर्धारित तिथि को आरंभ हुआ। सभी कुछ उत्तम। किसी भी व्यवस्था में कोई कमी नही। अलग-अलग मिडिया को भी आमंत्रित किया गया था। दिन का कार्यक्रम तो उत्तम रहा। रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम होने थे । उनका भी प्रारम्भ हो चुका था। 
एक खास प्रदेश का कार्यक्रम चल रहा था। एकाएक एक कलाकार मेरे पास आया। बोला आप स्टेज के पीछे आओ। जरुरी काम है।”

मै स्टेज के पीछे भागा। पता चला एक कलाकार का हार्ट अटैक हो चूका है। वह वेहोश है। संयोग से उसकी पत्नी और बेटा भी साथ थे। मैं उनको लेकर कैंप में ही बैठे आपातकालीन डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर ने उस कलाकार को मृत घोषित कर दिया। अब क्या हो!
मुझे लगा: “अगर मीडिया के लोगों को इसकी जानकारी हो गयी तो सारे मेहनत को बरबाद कर देंगे: “सुबह के सभी अखबारों का ब्रेकिंग न्यूज़ होगा: “कलाकेन्द्र में कलाकार का मौत”! मृतक के परिवार वाले बता रहे थे कि कलाकार को पहले भी हार्ट अटैक आ चुके हैं। वे लोग दुखी तो बहुत थे लेकिन मृत्यु के लिए हमें अथवा किसी भी व्यक्ति को दोषी नहीं मान रहे थे। इधर स्टेज पर कार्यक्रम चलता रहा। मृतक के लाश को हमने एक जगह रख दिया। जब कार्यक्रम समाप्त हो गया तब इसकी जानकारी डॉ चक्रवर्ती को दिया। उसका डेथ सर्टिफिकेट लिया गया और लाश को उसके परिवार के लोगों के साथ उनके गृह राज्य भेज दिया गया। इस घटना की सुचना किसी को भी नही दिया गया। केवल तीन चार लोगों को इसकी जानकारी थी। मेरा प्राण बच चुका था। 
भगवान से प्रार्थना करता रहा : हे इश्वर, जो हुआ सो हो गया। आगे इज्जत रखना प्रभु! 
(क्रमशः) 

© डॉ कैलाश कुमार मिश्र

नागा, नागालैंड और नागा अस्मिता: आंखन देखी (18) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/07/17_30.html 
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