Tuesday 29 October 2019

एक कविता, ताल्लुक़ / विजय शंकर सिंह

ताल्लुक टूट गया है
यह ज़िक्र न करना किसी से ,
लोग देखेंगे,
ताने भरी नज़रों से ,
कुछ न कुछ पूछेंगे वे ,
होंठों में छिपी हुयी शातिर मुस्कान लिए,
ओढ़ी हुयी भलमनसाहत और,
सहानुभूति की चाशनी में ,
पगे हुए , कुछ लफ़्ज़ों की बाज़ीगरी से ।

सुनो ,
कह देना अब वह मसरूफ है ,
और, मसरूफ मैं भी हूँ !

वक़्त के गर्द ने ,
छुपा ली है,
वे सारी फूलों भरी राहें,
जिन पर बिखरे थे किस्से ,
इश्क़, मुलाक़ात और कहकहों के !
अब कोई हरियाली वहाँ नहीं है,
और न बचें हैं वे वृक्ष ,
नशेमन थे जिनमें उन परिंदों के,
जिनके कोलाहल से,
जीवंत रहती थी ज़िंदगी !

अब एक सपाट सी सड़क है वहां,
और  , कहीं कहीं वह भी नहीं !

कहना उस से,
पर हाँ , सोच कर मुस्कुराते हुए,
ज़िंदगी तो गुजरती ही है
ऐसे मुकामों और बियाबाँ से,
उसकी तासीर ही ऐसी है !

वैसे भी ग़म ए रोज़गार और गम ए हयात ,
ग़म ए इश्क़ पर भारी पड़ते है !!

© विजय शंकर सिंह

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