Wednesday 9 October 2019

49 बुद्धिजीवियों के खिलाफ मुजफ्फरपुर में दर्ज राजद्रोह का मामला निराधार पाया गया / विजय शंकर सिंह

जुलाई 2019 में देश के 49 जानी मानी हस्तियां जो समाज के विभिन्न क्षेत्रों से थीं ने देश मे बढ़ रही भीड़ हिंसा पर रोक लगाने के अनुरोध के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक खुला पत्र लिखा था। यह पत्र विभिन्न समाचार पत्रों और अन्य मीडिया वेबसाइट पर भी छपा था। देश मे भीड़ हिंसा की घटनाएं पिछले चार पांच साल से बढ़ी भी हैं और सुप्रीम कोर्ट ने भी इनपर नकेल कसने, नए और कड़े कानून बनाने के लिये सरकार को निर्देश भी दिया था। 

उसी पत्र को देश की क्षवि खराब करने के षड़यंत्र के आरोप के साथ मुजफ्फरपुर के एक एडवोकेट सुधीर कुमार ओझा ने सीजेएम मुजफ्फरपुर की अदालत में एक प्रार्थना पत्र देकर धारा 156(3) के अंतर्गत मुकदमा दर्ज करके कानूनी कार्यवाही करने का अनुरोध अदालत से किया। सीजेएम मुजफ्फरपुर ने उस प्रार्थना पत्र पर मुकदमा दर्ज करने का आदेश मुजफ्फरपुर पुलिस को दिया जहां 124A, सेडिशन सहित कुछ अन्य धाराओं में इन 49 महानुभावों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया। मुक़दमे की विवेचना शुरू हुयी और  पुलिस ने, तफतीश के बाद इस मुक़दमे को झूठा पाते हुये खारिज़ कर दिया है। 

एसएसपी मुजफ्फरपुर मनोज कुमार ने स्वयं इस मामले की तफतीश में दिलचस्पी ली और इस मामले को तथ्यहीन, आधारहीन, साक्ष्यविहीन और दुर्भावनापूर्ण बताया है। बिहार पुलिस के एडीजी मुख्यालय जितेंद्र कुमार ने कहा कि इस मामले के शिकायतकर्ता सुधीर कुमार ओझा के खिलाफ आईपीसी के धारा 182/211 के तहत कार्रवाई का भी आदेश दिया गया है। इस धारा के अंतर्गत फ़र्ज़ी शिकायतों के पाये जाने पर शिकायतकर्ता के विरुद्ध मुकदमा दर्ज किया जाता है। 

मुजफरपुर पुलिस को अगले महीने तक अपनी जांच के बारे में कोर्ट को विवेचना की स्थिति से अवगत कराने का आदेश दिया गया था। इस महत्वपूर्ण और चर्चित मामले में, बिहार के पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडेय ने कुछ दिन पूर्व कहा था कि इस मामले में किसी को घबराने या परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है।  इसके बाद उन्होंने जल्द से जल्द मामले का पर्यवेक्षण करके वस्तुस्थिति से अवगत कराने का निर्देश जिला मुजफ्फरपुर पुलिस को दिया। एडवोकेट सुधीर कुमार ओझा द्वारा दायर प्रार्थना पत्रों के आधार पर दर्ज अधिकतर मामलों का यही परिणाम होता है। 

सीजेएम मुजफ्फरपुर ने सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसले जो 124A आइपीसी के संदर्भ में दिए गए हैं का अगर अवलोकन किया होता तो यह तमाशा न खड़ा होता। सेडिशन राजद्रोह, के मामले में सुप्रीम कोर्ट का अभिमत बहुत महत्वपूर्ण हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि 124A क्या है। 

जब तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देश की सुरक्षा और सरकार को उखाड़ फेंकने का कोई षडयंत्र न मिले तब तक यह अभियोग नहीं दायर हो सकता है। यह व्यवस्था रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य के मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गयी है। 

इस मामले में केवल प्रधानमंत्री से यह अनुरोध किया गया था कि वे दलितों और अल्पसंख्यक पर होने वाली भीड़ हिंसा मॉब लिंचिंग के बढ़ रहे अपराध को रोकने के लिये वैधानिक कदम उठाये और यही निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को दिए है ।

धारा 182 / 211 आइपीसी का जो मुकदमा,  सुधीर कुमार ओझा जो पर लगाया गया है, के बारे में प्राविधान के बारे में पढ़ लें। 

धारा 211 आईपीसी,  क्षति करने के आशय से अपराध का झूठा आरोप। 

जो भी कोई किसी व्यक्ति को यह जानते हुए कि उस व्यक्ति के विरुद्ध ऐसी कार्यवाही या आरोप के लिए कोई न्यायसंगत या विधिपूर्ण आधार नहीं है क्षति कारित करने के आशय से उस व्यक्ति के विरुद्ध कोई अपराधिक कार्यवाही संस्थित करेगा या करवाएगा या उस व्यक्ति पर झूठा आरोप लगाएगा कि उसने अपराध किया है,

तो उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास की सजा जिसे दो वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है या आर्थिक दण्ड या दोनों से दण्डित किया जाएगा;

तथा यदि ऐसी अपराधिक कार्यवाही मॄत्यु दण्ड, आजीवन कारावास या सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दण्डनीय अपराध के झूठे आरोप पर संस्थित की जाए, तो उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास की सजा जिसे सात वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डनीय होगा और साथ ही आर्थिक दण्ड के लिए भी उत्तरदायी होगा।

लागू अपराध
1. क्षति करने के आशय से अपराध का झूठा आरोप।
सजा - दो वर्ष कारावास या आर्थिक दण्ड या दोनों।
यह एक जमानती, गैर-संज्ञेय अपराध है और प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।
 
2. यदि आरोपित अपराध सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दण्डनीय है।
सजा - सात वर्ष कारावास और आर्थिक दण्ड।
यह एक जमानती, गैर-संज्ञेय अपराध है और प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है।
 
3. यदि आरोपित अपराध मॄत्युदण्ड या आजीवन कारावास से दण्डनीय है।
सजा - सात वर्ष कारावास और आर्थिक दण्ड।
यह एक गैर-जमानती, संज्ञेय अपराध है और सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है।
यह अपराध समझौता करने योग्य नहीं है।

© विजय शंकर सिंह 

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