Saturday 26 October 2019

जम्मूकश्मीर सरकार ने 7 आयोगों को भंग कर दिया / विजय शंकर सिंह

जम्मू कश्मीर सरकार ने मानवाधिकार, सूचना, और विकलांग अधिकार आयोग सहित सात आयोगों को भंग कर दिया है। जब 5 अगस्त 2019 को देश का अभिन्न अंग वाला राज्य जम्मूकश्मीर जब तोड़ कर अलग अलग जम्मूकश्मीर और लदाख में बांट कर केंद्र शासित प्रदेश में बदल दिया गया तो यह दावा सरकार ने किया था कि, अब इस महत्वपूर्ण राज्य की समस्याओं का समाधान हो जाएगा। पचहत्तर दिन से एक पूरा राज्य जेलखाना बना हुआ है, नागरिको की नागरिक आज़ादी पर बंदिशें हैं और ज़ुबानों पर पहरे। 

जम्मूकश्मीर में केंद्र सरकार ने 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को हटा दिया था, जिसके बाद से वहां पर कई तरह की पाबंदियां लागू थीं. घाटी में स्कूल, कॉलेज, मोबाइल फोन, इंटरनेट, पर्यटकों की आवाजाही लंबे समय से प्रभावित है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कहा था कि इंटेलिजेंस एजेंसी सच नहीं बताती हैं, ना यहां और ना दिल्ली को। इस समय जम्मूकश्मीर क्षेत्र दुनिया का सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्र है। इतनी अधिक फौज 1965, 71 और करगिल  पिछले युद्धों में भी नहीं थी। 

तब सरकार ने कहा था कि तीन माह में राज्य की कानून व्यवस्था की स्थिति सुधरने लगेगी। 1971 के भारत पाक युद्ध के बाद जब उभय देशों में शिमला समझौता हुआ था  तो, जम्मूकश्मीर के बारे में दुनियाभर के देशों की एक ही राय थी कि यह भारत पाक का  द्विपक्षीय मसला है और इसे उभय पक्ष को मिल कर हल करना है। भारत दुनिया के सभी मुल्क़ों को इसी स्टैंड पर कायम रखने के लिये कूटनीतिक रूप से सफल भी रहा। पर आज, दुनियाभर में जम्मूकश्मीर में हो रहे मानवाधिकार हनन के मसलों पर यूएनओ से लेकर दुनियाभर की मीडिया में भारत की क्षवि एक मानवाधिकार का हनन करने वाले देश के रूप में बन रही है।

हमने कभी मानवाधिकार का हनन नहीं किया है। हम एक सभ्य सुसंस्कृत और सभ्य समाज के हैं। यह हमारी प्रिय प्रतिक्रिया रहती है। कमोबेश हम ऐसे हैं भी। पर  22 अक्टूबर को जब सरकार ने जम्मूकश्मीर में, मानवाधिकार आयोग, सूचना आयोग विकलांग अधिकार आयोग को भंग कर दिया तो इस मूर्खतापूर्ण और जनहित विरोधी गतिविधियों की प्रतिक्रिया दुनियाभर में विपरीत ही होगी। सरकार ने किन कारणों से यह अभूतपूर्व उठाया है यह अभी उसने सार्वजनिक भी नहीं किया है। 

राज्य प्रशासन ने जिन 7 आयोगों ख़त्म करने का आदेश जारी किया है वे हैं, जम्मू-कश्मीर मानवाधिकार आयोग, राज्य सूचना आयोग,राज्य उपभोक्ता निवारण आयोग,राज्य विद्युत नियामक आयोग,महिला एवं बाल विकास आयोग,दिव्यांग जनों के लिए बना आयोग,और राज्य पारदर्शिता आयोग। 1997 में तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेंस सरकार द्वारा गठित जम्मू-कश्मीर राज्य मानवाधिकार संरक्षण आयोग भी अब समाप्त हो जाएगा. यह आयोग जम्मू-कश्मीर में विभिन्न मानवाधिकारवादी संगठनों द्वारा राज्य पुलिस व सुरक्षाबलों पर आतंकवाद को कुचलने की आड़ में आम लोगों को प्रताडि़त किए जाने की शिकायतों का संज्ञान लेते हुए ही बनाया गया था। 

एसएसी को 2002 में मुफ्ती मोहम्मद सईद के पीडीपी-कांग्रेस गठबंधन द्वारा बनाया गया था ताकि राजनेताओं की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय की जा सके और उनके कार्यों पर नज़र रखी जा सके. इस आयोग के दायरे में मुख्यमंत्री, मंत्री और विधान सभा के सदस्यों और विधान परिषद के सदस्यों की जवाबदेही तय थी। यह एक प्रकार से एक ऐसा मंच था, जहां जनता अपने द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के सवाल कर सकती थी। 

जम्मूकश्मीर लंबे समय से आतंकवाद और अलगाववाद से पीड़ित रहा है। अलगाववाद से प्रेरित आतंकवाद एक प्रकार का छद्म युद्ध होता है। इस युद्ध मे दुश्मन जनता के बीच मे ही कहीं न कहीं छुपा बैठा होता है। यह बिल्कुल ज़रूरी नहीं जिस जनता के बीच आतंकी बैठा है वह जनता या वह लोग उसके साथ हों ही। अधिकांश जनता आतंकी के साथ कभी भी नहीं रहती पर वह खुल कर विरोध भी उनका नहीं कर सकती है। इसका मुख्य कारण भय और अधिकतर का पुलिस पर विश्वास का न होना ही है। जब दुश्मन जनता में घुला मिला बैठा हो, तो उसे ढूंढ कर निकालना कठिन होता है। ऐसी दशा में सबसे बड़ी चुनौती सुरक्षा बलों के लिये यह होती है कि वह जनता में घुसे हुये आतंकी तत्वों को पहचान कर उसे, अलग करें और फिर उन्हें निष्क्रिय कर दें। यह बिल्कुल सर्जरी के समान है। इस शल्य क्रिया की सफलता पर ही सुरक्षा बल की दक्षता का पता चलता है। 

ऐसी परिस्थिति में यह सबसे अधिक ज़रूरी है कि जनता का सरकार और पुलिस पर प्रबल विश्वास हो, और जनता पुलिस द्वारा आतंकियों के विरुद्ध की जा रही कार्यवाहियों के प्रति उदासीन न हो। यह उदासीनता आतंकियो को बल ही प्रदान करेगी। जनता में यह भरोसा पनपे और तँत्र पर भरोसा जमे, यह काम राजनीतिक दलों का है जिन्हें जनता को बराबर यह एहसास दिलाते रहना होगा कि अलगाववाद और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद अंततः उन्हे और उनके मुल्क को बरबाद कर देगा। पर 5 अगस्त के बाद जब से नागरिक गतिविधियों पर सरकार ने पाबंदी लगा रखी है, और आज जब लगभग ढाई महीने इस पाबंदी के हो गए है , सरकार ने उक्त पाबंदी के हटाये जाने और स्थिति को सामान्य बनाये जाने का कोई उपक्रम नहीं किया। इसके विपरीत, आज जनता से सीधे जुड़े जनहितकारी आयोगों को समाप्त कर दिया गया। 

जनता खामोश हो जाना एक प्रकार का अशनि संकेत होता है। आज कश्मीर में यही हो रहा है। घाटी में कुछ स्थानों पर लोगों ने अहिंसक असहयोगात्मक रुख अपनाना शुरू कर दिया है। राजनीतिक गतिविधियां लगभग ठप है। मुख्य धारा के बडे नेता पब्लिक सेफ्टी एक्ट के अंतर्गत बंदी हैं या घरों में कैद है। भाजपा का कोई जनाधार कश्मीर के में नहीँ है। यहां तक कि लद्दाख में भी नही जिसने जम्मूकश्मीर पुनर्गठन बिल 2019 का समर्थन किया था। ऐसा वहाँ हुये ब्लॉक के बीडीसी के चुनाव से स्पष्ट हो गया। जबकि इस चुनाव में भाजपा को छोड़ कर सभी राजनैतिक दलों ने चुनाव का बहिष्कार किया था। राजनीतिक दलों द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सामुहिक बहिष्कार इस बात का प्रमाण है कि जन आक्रोश और भाजपा तथा  केंद्र सरकार के प्रति अविश्वास कहीं गहरे तक पैठ चुका है। 

भारतीय मीडिया जम्मूकश्मीर की खबरों पर थोड़ा चुप है। पर सोशल मीडिया और विदेशी मीडिया के माध्यम से आने वाली खबरें, निश्चित ही चिंता करने वाली हैं। अमेरिका जो आजकल हमारा हमराह बना हुआ है वहां के दोनों महत्वपूर्ण अखबार, वाशिंगटन टाइम्स और न्यूयॉर्क टाइम्स सहित अन्य बड़े अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान जम्मूकश्मीर के इस पाबंदी और ज़ुबांबन्दी जैसे अलोकतांत्रिक और नागरिक अधिकारों के विरोधी कदमो को उजागर कर रहे हैं। मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करने वाले इन संस्थानों की अचानक पंगु करने  वाले इस आदेश से हम दुनियाभर में हमारी क्षवि एक तानाशाही मानसिकता वाले देश की बनेगी। 

© विजय शंकर सिंह 

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