Saturday 8 September 2018

एक ओशो कथा - ईश्वर है ? / विजय शंकर सिंह

बुद्ध के पास मौलुंकपुत्त नाम का एक दार्शनिक आया । उसने कहा : ईश्वर है? बुद्ध ने कहा : सच में ही तू जानना चाहता है या यूं ही एक बौद्धिक खुजलाहट?

मौलुंकपुत्त को चोट लगी । उसने कहा : सच में ही जानना चाहता हूं । यह भी आपने क्या बात कही! हजारों मील से यात्रा करके कोई बौद्धिक खुजलाहट के लिए आता है?

बुद्ध ने कहा : तो फिर दांव पर लगाने की तैयारी है कुछ । मौलुंकपुत्त को और चोट लगी, क्षत्रिय था । उसने कहा : सब लगाऊंगा दांव पर । हालांकि यह सोचकर नहीं आया था । पूछा उसने बहुतों से था कि ईश्वर है और बड़े वाद—विवाद किये थे । मगर यह आदमी कुछ अजीब है, यह ईश्वर की तो बात ही नहीं कर रहा है, ये दूसरी ही बातें छेड़ दीं कि दांव पर लगाने की कुछ हिम्मत है । मौलुंकपुत्त ने कहा : सब लगाऊंगा दांव पर, जैसे आप क्षत्रिय पुत्र हैं, मैं भी क्षत्रिय पुत्र हूं, मुझे चुनौती न दें ।

बुद्ध ने कहा : चुनौती देना ही मेरा काम है। तो फिर तू इतना कर—दो साल चुप मेरे पास बैठ । दो साल बोलना ही मत—कोई प्रश्न इत्यादि नहीं, कोई जिज्ञासा वगैरह नहीं। दो साल जब पूरे हो जाएं तेरी चुप्पी के तो मैं खुद ही तुझसे पूछूंगा कि मौलुंकपुत्त, पूछ ले जो पूछना है। फिर पूछना, फिर मैं तुझे जवाब दूंगा । यह शर्त पूरी करने को तैयार है?

मौलुंकपुत्त थोड़ा तो डरा क्योंकि क्षत्रिय जान दे दे यह तो आसान मगर दो साल चुप बैठा रहे…..! कई बार जान देना बड़ा आसान होता है, मौन बैठना और दो साल.. मगर फंस गया था। कह चुका था कि सब लगा दूंगा तो अब मुकर नहीं सकता था । स्वीकार कर लिया, दो साल बुद्ध के पास चुप बैठा रहा ।

जैसे ही राजी हुआ वैसे ही दूसरे वृक्ष के नीचे बैठा हुआ एक भिक्षु जोर से हंसने लगा । मौलुंकपुत्त ने पूछा : आप क्यों हंसते हैं?
उसने कहा : मैं इसलिए हंसता हूं कि तू भी फंसा, ऐसे ही मैं फंसा था । मैं भी ऐसा ही प्रश्न पूछने आया था कि ईश्वर है और इन सज्जन ने कहा कि दो साल चुप । दो साल चुप रहा, फिर पूछने को कुछ न बचा। देख, तुझे चेतावनी देता हूं, पूछना हो अभी पूछ ले, दो साल बाद नहीं पूछ सकेगा ।

दो साल बीते और बुद्ध नहीं भूले। दो साल बीतने पर बुद्ध ने पूछा कि मौलुंकपुत्त अब खड़ा हो जा, पूछ ले ।

मौलुंकपुत्त हंसने लगा । उसने कहा : उस भिक्षु ने ठीक ही कहा था । दो साल चुप रहते—रहते चुप्पी में ऐसी गहराई आई; चुप रहते—रहते ऐसा बोध जमा, चुप रहते—रहते ऐसा ध्यान उमड़ा; चुप रहते—रहते विचार धीरे—धीरे खो गए, खो गए, दूर—दूर की आवाज मालूम होने लगे; फिर सुनाई ही नहीं पड़ते थे, फिर वर्तमान में डुबकी लग गई और जो जाना…..बस आपके चरण धन्यवाद में छूना चाहता हूं। उत्तर मिल गया है, प्रश्न ही निरर्थक हो गया ।

परम ज्ञानियों ने ऐसे उत्तर दिए हैं—वो परमात्मा है की नही.. का उत्तर नहीं देते वो बोध कराते है की.......     
जब तुम स्वयं उस विराट का अंश हो तो प्रश्न कैसा ??
#ओशो
बुद्धम शरणम गच्छामि
( साभार सुनील कुमार मिश्र )

© विजय शंकर सिंह

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