Sunday 23 September 2018

राफेल सौदा, कुछ तथ्य, कुछ सवाल और कुछ सन्देह - एक चर्चा - विजय शंकर सिंह

एक खबर यह भी प्रचारित हो रही है कि 2012 में ही रिलायंस ने दसॉल्ट के साथ समझौता किया था। इस खबर के आधार पर यह बताने का प्रयास किया गया कि अंबानी को यह सौदा यूपीए सरकार के ही कार्यकाल में दिया जाना तय हो गया था। यह खबर भी अर्थसत्य है। झूठी खबरों का पर्दाफाश करने वाली वेबसाइट आल्टनयूज़ ने इसकी पड़ताल की है और इसके तथ्य इस प्रकार पाए गए।

* 21 सितंबर 2018 को फ्रांस के  पूर्व राष्ट्रपति फ्रांक्वा ओलांद ने यह कह कर सनसनी फैला दी कि दसॉल्ट के ऑफसेट साझेदारी के लिये अनिल अंबानी का नाम भारत सरकार ने सुझाया था। इस सौदे में ऑफसेट साझेदार चुनने के बारे में फ्रांस की सरकार की कोई भूमिका नहीं थी।

*  भारत सरकार इस मामले में आरोपों से घिरी है और उससे यह सवाल पूछे जा रहे हैं कि क्यों, कैसे, कब और किसने एचएएल का नाम हटा कर अनिल अंबानी का नाम सुझाया।

* 22 सितंबर 2018 को भारतीय जनता पार्टी के अधिकृत ट्विटर हैंडल से यह ट्वीट किया गया कि,
" इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं कि दसॉल्ट और रिलायंस इंडस्ट्री के बीच एक मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग, एमओयू MOU का करार फरवरी 2012 के पहले हो चुका था, तब यूपीए सरकार थी। "
इस ट्वीट का उद्देश्य यह बताना था कि रिलायंस और अंबानी का तो नाम यूपीए सरकार के ही समय से चल रहा था, न कि एनडीए की तरफ से चलाया गया। अतः जो नाम चल रहा था, उसी पर यह सौदा दसॉल्ट ने किया है।

* इसी ट्वीट के आधार पर एक और ट्वीट केंद्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद द्वारा किया गया और उसमें 13 फरवरी 2012 के टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर की लिंक भी लगायी गयी थी। उस खबर में यह छपा था कि रिलायंस इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड ( RIL ) का दसॉल्ट एवियेशन से समझौता हुआ है।

* भाजपा और रविशंकर प्रसाद जी के ट्वीट के बाद दिल्ली भाजपा के प्रवक्ता तेजिंदर बग्गा ने खबरों का एक कोलाज बना कर ट्वीट किया कि, जिसमे रिलायंस और दसॉल्ट के समझौते का उल्लेख था और उससे जुड़ी खबरों के स्क्रीनशॉट थे।

अब यह बात प्रमाणित की जा रही है कि, रिलायंस तो यूपीए के समय मे ही दसॉल्ट से समझौते में थी। उस को अगर किसी ने इस समझौते में लाया है तो यूपीए सरकार ने लाया है न कि एनडीए ने। एनडीए ने तो वही किया जो यूपीए के समय समझौता हुआ था। भाजपा के इस दावे के बारे में तथ्य क्या हैं अब इसे देखें।

* धीरूभाई अंबानी की मृत्यु के बाद रिलायंस दो भागों में उनके दोनों पुत्रों मुकेश और अनिल के बीच बंट गयी। रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड RIL मुकेश अंबानी की कंपनी बनी और अनिल अंबानी को जो हिस्सा मिला उसका नाम पड़ा, अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप ADAG.

* यूपीए द्वारा किये गए पुराने समझौते को रद्द कर के अप्रैल 2015 में एनडीए ने एक नया समझौता किया,  जिसमे विमानों की संख्या घटा कर 126 से 36 कर दी गयी। इस समझौते में अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस के साथ समझौता हुआ।   

* कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार रिलायंस डिफेंस ( अनिल अंबानी की ) 28/03/2015 को मुंबई में कंपनी एक्ट के अंतर्गत पंजीकृत हुयी थी। यह समझौते के कुछ हफ्ते पहले बनी है। रिलायंस डिफेंस लिमिटेड, अनिल धीरूभाई अंबानी ग्रुप की कंपनी है न कि, मुकेश अंबानी के रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड की। 

* दसॉल्ट एवियेशन और रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के बीच जो समझौता हुआ था, वह रक्षा मामलों में मीडियम मल्टी रोलर कॉम्बैट एयरक्राफ्ट ( MMRCA ) के विकास और निर्माण के लिये हुआ था। यह समझौता 2012 में हुआ था, जिसका बार बार उल्लेख भाजपा के नेता और मंत्रीगण कर रहे हैं। उनका यह आशय है कि अंबानी तो यूपीए के ही समय से ही दसॉल्ट के साथ थे। वर्तमान प्रधानमंत्री पर यह आक्षेप कि अंबानी को मोदी जी इस समझौते में लाये यह असत्य है। 
पर वे यह नहीं बता रहे हैं कि यूपीए के समय समझौते में जो रिलायंस थी वह मुकेश की कंपनी थी। और अब समझौते में जो रिलायंस है वह अनिल अंबानी की वही कंपनी है जो समझौते के कुछ ही दिन पहले मुंबई में रजिस्टर कराई गयी है।

* अब जरा और पीछे चलें। इकोनॉमिक टाइम्स की एक खबर के अनुसार, दसॉल्ट एविएशन ने मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज के साथ बात चलायी क्यों कि तब मुकेश अंबानी वायु रक्षा क्षेत्र में निवेश करने को इच्छुक थे। इसी लिए, रिलायंस एयरोस्पेस टेक्नोलॉजी लिमिटेड ( RATL ) की स्थापना सितंबर, 4, 2008 में की।

* मई 2011 में जब भारतीय वायुसेना ने राफेल, और यूरोफाइटर विमानों को चुनने के लिये छांटा तो, RATL और एचएएल ने साथ साथ काम करने की बात सोची।
इकोनॉमिक टाइम्स के ही उसी लेख के अनुसार, 2014 के बाद रिलायंस इंडस्ट्रीज का विचार बदल गया और एविएशन के इस व्यापार से अलग हो गयी।

* भाजपा का दावा कि रिलायंस पहले से ही दसॉल्ट की साझेदार थी मिथ्या है।
पहले जो समझौता हुआ था ( यूपीए काल मे ) वह मुकेश अंबानी की रिलायंस से था, और अब जो हुआ है और जिसका विवाद चल रहा है वह अनिल अंबानी की रिलायंस से है। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर इस मामले में स्पष्ट है।

अब कुछ और महत्वपूर्ण तिथियों और तथ्यों को देखें। इन तिथियों में कुछ और घटनाएं घटी हैं। 

* 2007 में RFP राफेल फाइटर प्लेन के लिए ग्लोबल टेंडर हुआ और 2012 में राफेल L1 चुना गया । इस कॉन्ट्रेक्ट पर दोनों सरकारों के हस्ताक्षर हो चुके थे केवल लाइफ साईकल कॉस्ट पर बात रुकी हुई थी.। यह बात चल रही थी। 

* 13 मार्च 2014 को HAL और दसॉल्ट के बीच वर्क शेयर अग्रीमेंट पर समझौता हुआ,  उस दौरान टेंडर के दस्तवेज पर सब भी उल्लेख है कि भारत की जरूरत कैसी और किन उपकरणों की है। 

* 25 मार्च 2015 को  दसॉल्ट के प्रमुख ने एक बयान दिया कि हमने (  दसॉल्ट एविएशन और एचएएल ) ने  कांट्रेक्ट फाइनल कर लिया है केवल औपचारिक हस्ताक्षर होने शेष हैं। 

* 8 अप्रैल 2015 को विदेश सचिव ने एक बयान जारी किया था जिसमें उन्होंने कहा था कि फ्रांस दौरे पर प्रधानमंत्री राफेल सौदे पर बात नहीं करेंगे.। विदेश सचिव ने यह भी कहा कि रक्षा सौदों की बातें अलग ट्रैक पर चलती हैं। लेकिन उन्होंने यह संकेत भी दिया कि एचएएल के साथ समझौता होने की बात है। यही बात उस समय के रक्षा मंत्री ने भी कहा था कि दोनों देशों के बीच समझौता हो चुका है. 

* 10 अप्रैल 2015 को प्रधानमंत्री फ्रांस जाते हैं और समझौते में अनिल अंबानी की कंपनी जो 28 मार्च को पंजीकृत हुयी है, वह सामने आती है। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के दौरे के बाद जो महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए है वे इस प्रकार हैं।
1. विमानों की संख्या 126 से घटा कर 36 कर दी गयी।
2. एचएएल को हटा कर अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को यह ठेका दे दिया गया। 
सरकार को इन्ही मुख्य शर्तो को बदलने के बारे में जनता को स्पष्ट करना है। 

फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति ओलांद के बयान कि उनके पास विकल्प नहीं था, और भारत सरकार ने जिस ग्रुप का नाम सुझाया, दसाल्ट ने उसे मान लिया, के बाद जो महत्वपूर्ण सवाल उठते हैं, वे इस प्रकार हैं, ~

* जब पहले होने वाले सौदे जो यूपीए के समय मे हो रहा था, तब एचएएल का नाम दसाल्ट के भारतीय साझेदार के रूप में तय हुआ था, फिर अचानक अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस का नाम कैसे आ गया ? 

* जब 126 विमानों की खरीद का सौदा तय हो चुका था तो उसे केवल 36 विमानों पर ही किसके संस्तुति और क्यों कर दिया गया ? 

* सौदे के कुछ ही दिन पहले पूर्व विदेश सचिव ने कहा था कि राफेल सौदे में एचएएल के साझेदार बनाने की बात चल रही है, फिर अचानक एचएएल का नाम क्यों हटा दिया गया और यह नाम हटाया जाय इसे किसने तय किया था ?

* अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस के अलावे क्या किसी और निजी कंपनी ने इस सौदे में दिलचस्पी दिखाई थी ? अगर नहीं दिखाई थी तो निजी क्षेत्र में ही क्यों नहीं किसी और बेहतर कंपनी की तलाश की गयी ? क्योंकि रिलायंस की तो कंपनी ही कुछ महीने पहले बनी थी। 

* एचएएल एक सरकारी कंपनी है और 60 साल का अनुभव है। उसके प्रोफ़ाइल को देखें और रिलायंस के प्रोफ़ाइल को देखें तो दोनों की तुलना करने पर एचएएल रिलायंस से बेहतर ही बैठती है, फिर सरकार ने अपनी कंपनी का नाम जो पहले से ही चर्चा में थी को क्यों नहीं सुझाया ? 

* कहा जा रहा है कि एचएएल सक्षम नहीं है। क्या एचएएल की सक्षमता पर कभी कोई ऐसी जांच, अध्ययन या ऑडिट हुयी है जिसमे इस कंपनी को नालायक बताया जा रहा है ? 

* अगर ऐसा है तो एचएएल प्रबंधन की जिम्मेदारी तय कर उनके विरुद्ध क्या कोई कार्यवाही की गईं है ?

* यह बात सच है कि सरकारी कंपनी अक्सर सुस्त और कागज़ी कार्यवाही के आरोपों से घिरे होते हैं, पर इन आरोपो से उन्हें मुक्त करने की कभी कोई कार्यवाही किसी भी सरकार ने की है ? 

* सरकारी उपक्रम अगर नालायक हैं तो कितने सरकारी उपक्रम के प्रबंधन और बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के लोगों के खिलाफ सरकार ने कार्यवाही की है ? 

* कहीं यह केवल निजी क्षेत्रों के अपने चहेते पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने के लिये एक बहाने की तरह इस्तेमाल किया जाने वाला तथ्य और तर्क मात्र तो नहीं है ? 

सरकार का यह दायित्व है कि वह इस संदेह का निवारण करे। अब वह इस मामले में शंका समाधान कैसे करती है यह सरकार पर निर्भर करता है। 

© विजय शंकर सिंह

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