Wednesday 12 September 2018

हमारे मेहुलभाई तो मासूम हैं - एक लघु व्यंग्य / विजय शंकर सिंह

कल मेहुलभाई दिखे थे। बहुत दिनों से कहीं डूबे थे। कल उतराए तो नज़र पड़ी। थोड़ा उदास उदास से थे। काफी दिनों पहले जब वे 'बांका जमींदार' के महल में थे तो दिखे थे। तब उनके चेहरे पर वह 'नैराश्य' नहीं था जो कल हमने उन्हें 'नसीहतों का दफ्तर बने टीवी पर देखा था। वे तो अब इस मुल्क में हैं नहीं, 'सैलानी बंदर की तरह उछलते कूदते यहां से रुपोश हो गए हैं। हुक़ूमत भी पहले 'मंदिर और मस्जिद' के मसले में पड़ी थी, अब वह उलझ गयी है 'ठाकुर के कुँवा' के पचड़े में। साथ ही 'प्रतिशोध' भी तो उसे किसी से लेना है।  फुरसत मिले तो वह, मेहुलभाई की खोज खबर ले। मेहुलभाई दिखे ज़रूर पर उदास से थे। मुस्कुरा भी नहीं रहे थे। एक बार जब वे पहले दिखे तो कहा था कि मुल्क के हालात गड़बड़ हैं, और वे वापस नहीं आएंगे। उन्हें डर है कि आएंगे तो सब नोच खसोट लेंगे। फिर थोड़ा गुस्सा हो गए थे, कि मुल्क ने उन्हें  दिया क्या ? उनकी बची खुची  'इज्ज़त का खून' और कर दिया। पर जब कल टीवी में दिखे तो थोड़ा संज़ीदा थे। अपनी 'समस्या' भी बताई। मैंने भी सुना। परदेस में बैठा दुश्मन भी अपना सा लगने लगता है और, फिर वे तो ठहरे अपने मेहुलभाई। परदेस भी वे कोई 'सभ्यता का रहस्य' जानने तो गये नहीं थे, और न हीं वहां उनका कोई 'प्रेमाश्रम' था। दुखी थे। 'अपनी करनी' बता रहे थे। सात समंदर पार से उनकी व्यथा कथा सुना। अफसोस भी उनके 'निर्वासन' पर हुआ। भला कोई मर्ज़ी से , खुशी खुशी अपना मुल्क़ छोड़ता है। अरे चार पैसा कमाने की लालच ही तो उसे खींच ले जाती है वतन से दूर। ज़बरदस्ती जलावतनी ओढता है कोई, जब तक 'नैराश्य लीला' न दिखाए कोई 'सोज़े वतन'। पर मेहुलभाई ने किया यह सब। घर छोड़ा। वतन छोड़ा। समन्दरों की गहराइयां नापी। आखिर किस लिये । न्याय के लिये।  अदालत के सम्मान के लिये। उन्हें देख कर लगा कि बेचारे एक नया पैसा भी लेकर यहां से नहीं गए। पीएनबी वाले झूठे ही अपने रजिस्टर में कभी कुछ लिख लिए और वह 'सवा सेर गेहूं' की तरह बढ़ता रहा। अब अफसर भी तो 'नमक के दारोगा' की तरह नहीं रहे। पर न रहे तो क्या, अदालतें तो 'पंच परमेश्वर' की तरह बची हैं अभी। 'कफ़न' थोड़े ही खसोट लेंगे सब। सात समंदर पार एंटीगुआ के इस वीरान से जज़ीरे में उन्हें 'दो बैलों की कथा' सुननी पड़ी। इनका जुगाड़ किया है किसी तरह हमारे मेहुलभाई ने। कल तो उन्होंने सच कह ही दिया। इतना सच और इतनी मासूमियत से बयान उनका था कि लगा 'गोदान' की बेला आ गयी क्या। पर हुक़ूमत पर तो 'नशा' तारी था। किसी ने झुक कर खिड़की की हवा क्या खा ली, हुक्मरानों को गुस्सा आ गया। उनकी मासूमियत पर रहम और तरस 'बड़े भाई साहब' को भी नहीं आ रही है। यही जीवन है। यही 'रंगभूमि' है। यह सारे रंग बैरंग हो जाते हैं जब 'कर्मभूमि' अपने रंग दिखाने लगती है। रोज़ रोज़ अखबारों में छपता था कभी कि हमारे मेहुलभाई ने 'गबन' किया।  'बैंक का दीवाला' निकाल कर अपना 'कायाकल्प' कर लिया। पर यह सब झूठ है। विश्वास न हो तो 'मोटेराम जी शास्त्री' से पूछ लो। अब तो मेहुलभाई इस मूड में आ गए हैं कि वे 'प्रायश्चित' ही कर लें। मेहुलभाई भी तो 'राष्ट्र के सेवक' हैं। वे कोई 'स्वांग' थोड़े ही कर रहे हैं। कल देर तक उन्हें देखता रहा, सुनता रहा, गुनता रहा। लेकिन सरकार तो 'राजहठ' पर ही अड़ गयी है। यह सरकारें भी कभी कभी 'त्रिया चरित्र' जैसी होती हैं तो कभी उनका आचरण 'बड़े घर की बेटी' की तरह हो जाता है। बैंक भी अब 'गुल्ली डंडा' का खेल बंद करें। 'पूस की रात' अब दो तीन महीने में आने वाली है, उसके पहले ही मेहुलभाई को 'ईश्वरीय न्याय' दे दें प्रभु।
यह सब सुनकर मन से बेसाख्ता निकल पड़ा,
बाबू हज़ार दू हज़ार चाही त हमहूँ से ले ला बाकी रोआ मत । 😊
( प्रेमचंद जी से क्षमा याचना सहित। )

© विजय शंकर सिंह

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