‘द लेडी विद द डॉग’ में कहानी का नायक गुरोव औरतों के लिए एकाधिक बार ‘लोअर रेस’ (निम्नस्तरीय प्रजाति) शब्द का प्रयोग करता है. इस वाक्यांश से हमें यह गलतफहमी हो सकती है कि गुरोव के मन में औरतों के लिए हीन भावना है, लेकिन यह संदर्भ से कटी हुई व्याख्या होगी. इस अभिव्यक्ति के पीछे की मन:स्थिति कौन-सी है, इसे जानने के लिए चेखव के गुरोव संबंधी उस पूरे कथन को उद्धृत करना चाहता हूँ :
“He was under forty, but he had a daughter already twelve years old, and two sons at school. He had been married young, when he was student in his second year, and by now his wife seemed half as old again as he. She was a tall, erect woman with dark eyebrows, staid (सौम्य) and dignified (आत्मगौरवपूर्ण), and, as she said of herself, intellectual. She read a great deal, used phonetic spelling called her husband, not Dmitri, but Dimitri; and he secretly considered her unintelligent, narrow, inelegant (अनाकर्षक), was afraid of her, and did not like to be at home. He had begun being unfaithful to her long ago- had been unfaithful to her often, and, probably on that account almost always spoke ill of women, and when they were talked about in his presence, used to call them ‘the lower race’.”
स्पष्ट है कि गुरोव की पत्नी अपने पति से हर हाल में बेहतर थी,(सिवाय गुरोव से थोड़ा ज्यादा उम्रदराज दिखाई देने के). वह एक गंभीर व्यक्तित्व की स्वामिनी थी, पढ़ी-लिखी थी, किताबें पढ़ती थी, जबकि गुरोव उससे सामंजस्य स्थापित न कर पाने की वजह से ज्यादा समय घर से भागा रहता. उसकी ‘बेवफाई’ बहुत पहले से चल रही थी; अकेले एक-एक महीने बाहर रहना और ‘प्रेम’ के नाम पर दूसरी महिलाओं का शिकार करने में मुब्तला रहना; जबकि उसकी पत्नी घर में बच्चों के पालन-पोषण और शिक्षा में लगी रहती, इसके बावजूद गुरोव मन ही मन उसे अनाकर्षक और मूर्ख मानता था. लेकिन चूँकि मन ही मन वह पत्नी से डरता था, पत्नी या समाज के सामने उसकी बेवफाई का राज न खुले; उत्सव के मौकों पर वह परिवार के साथ मौजूद रहता; और जब भी स्त्रियों की बात चलती, तो उन्हें ‘निम्न प्रजाति’ की संज्ञा देकर यह जताने की कोशिश करता कि अन्य स्त्रियों में उसकी कोई रुचि नहीं; जबकि उसकी हालत यह थी कि उस ‘निम्न प्रजाति’ के बिना दो दिनों से ज्यादा नहीं रह सकता था. जाहिर है, वह जिस वस्तु की तलाश कर रहा था, वह प्रेम नहीं स्त्री-देह की वासना थी; अन्ना को भी उसने एक शिकार मानकर उसके (छोटा होने के चलते खिलौने के रूप में) पॉमेरेनियन कुत्ते के माध्यम से उसे अपनी ओर आकर्षित किया था. लेकिन जैसा कि चेखव लिखते हैं, मिलने के बाद वह महसूस करने लगा था कि अन्ना के साथ वाला उसका प्रेम ‘असली’ है. पर क्या अन्ना के मामले में उसकी वासना का अंत हो गया था? क्या उसका प्रेम अन्ना की कोमल और कच्ची देह से निकलती खुशबू के कारण पैदा नहीं हुआ था! क्या वह खुशबू उसके गुरोव से लगभग आधी आयु की होने कारण नहीं थी, जिसके नशे में वह बिना किसी अधिक परिचय के, एकांत देख अचानक से अन्ना का चुंबन ले डाला था, और जिसके बाद से ही उसके ‘प्रेम’ की शुरुआत हुई थी! क्या वह कोई फ्रायडीय कॉम्प्लेक्स था, जिसके प्रभाव में अन्ना के बारे में सोचते हुए उसे अपनी बेटी की याद आई थी- ‘…as he got into bed he thought how lately she (Anna) had been a girl at school doing lessons like his own daughter! क्या चेखव ने यह कहानी लियो तोल्स्तोय की अन्ना करेनिना की प्रतिक्रिया में विवाहेतर प्रेम को वैध सिद्ध करने के लिए लिखा था, जैसा कि कुछ आलोचक बताते हैं! इन प्रश्नों के उत्तर ढ़ूंढने से पहले थोड़ा और आगे चलते हैं.
अन्ना के शहर में गुरोव की उससे मुलाकात एक थिएटर में होती है, जहाँ एक नाटक खेला जा रहा है- द गीशा (The Geisha). चेखव जैसा लेखक, जिसके नाटकों ने तत्कालीन समय में उसके इस कथन के साथ एक नई प्रवृत्ति (Trend) ‘चेखव के गन’ को जन्म दिया -Remove everything that has no relevance to the story, If you say in the first chapter that there is rifle hanging on the wall, in the second or third chapter it absolutely may go off. If it is not going to be fired, it shouldn’t be hanging there.- कहानी में बिना किसी उद्देश्य के नाटक का नाम नहीं ले सकता. तो थोड़ी-सी बात उस नाटक ‘द गीशा’(एक चायखाने की कथा) की. मूल रूप से जॉर्ज एडवर्ड्स द्वारा प्रदर्शित इस जापानी नाटक की संगीतमय कथा में एक स्थानीय अधिपति (Overlord) मार्क्विस ईमारी सुंदरी मिमोसा से शादी करना चाहता है, जबकि मिमोसा को कताना से प्रेम है, और फ्रांसीसी युवती जूलियट को मार्क्विस ईमारी से. लेकिन कुछ लोग, जो उन स्त्रियों का भला चाहते हैं, विवाह के दिन दुल्हन को बदल देते हैं और ईमारी से जूलियट की शादी हो जाती है. जब मार्क्विस ईमारी को असलियत पता चलती है तो वह इसे भाग्य मानकर संतोष कर लेता है कि कोई भी पत्नी हो, किसी न किसी दिन पुरुष उससे निराश हो/ऊब जाता है (Every man is disappointed in his wife at a sometime or other.). अन्ना के शहर में इस नाटक के दौरान गुरोव अपने प्रेम/वासना में इतना अंधा है, कि उसे नाटक का मधुर संगीत, ऑरकेस्ट्रा और स्थानीय वायोलिन सब कुछ कर्कश लगता है. यहाँ मुझे शेक्सपियर की कौमुदी ‘टुवेल्थ नाइट’(Twelfth Night) के पहले ही दृश्य में काउंटेस ओलिविया के विरह में व्याकुल इल्लिरिया के ड्यूक ऑर्सिनो का संवाद (मजाक में ही सही) याद आता है- If the music be the food of love, play on; /Give me excess of it, that, surfeiting(अतिरेक),/The appetite may sicken, and so die…’
प्रेम पर लियो तोल्स्तोय का एक उद्धरण कभी पढ़ा था- ‘To say that you can love one person all your life is just like saying that one candle will continue burning as long as you live. (‘कोई आदमी किसी को जीवन भर प्यार करता रहे, यह वैसा ही है जैसे एक मोमबत्ती से जीवन भर जलते रहने की अपेक्षा करना’).
लेकिन हमने तो यह भी सुना है कि रामकृष्ण के मरने के बाद भी शारदा ने न तो चूड़ियाँ तोड़ीं और न सिंदूर पोछा, क्योंकि वे पति से प्रेम करती थीं न कि उनकी देह से; पति के अविश्वास और अग्निपरीक्षा के अत्याचार से गुजरने के बाद भी सीता का प्रेम, सत्ता-सुख भोगने वाले राम के प्रति ज्यों का त्यों बना रहा; दो हजार साल पहले पैदा हुए कृष्ण के अशरीरी प्रेम में पागल होकर राजपथ पर नृत्य करने वाली मीरा का नाम भी हमने सुना है; यह भी कि दुष्यंत अपनी प्रेयसी को विस्मृत करने के पश्चाताप में शकुंतला के पैरों में गिर जाते हैं, राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी को राजपाट देकर जंगल की राह ले लेते हैं; और अपनी पत्नी की स्मृति में दशरथ मांझी, मीर के इश्क का भारी पत्थर कौन कहे, पूरा का पूरा पहाड़ उठाकर प्रेम की राह बना लेता है.
चेखव अन्ना और गुरोव को होटल के कमरे में बंद प्रेमालाप करते हुए छोड़ गए हैं. तब से एक सौ बीस साल गुजर गए. क्या अभी भी वे उसी में बंद होंगे! अथवा अपने-अपने परिवार छोड़कर अपनी नई राह बनाकर किसी दूसरी जगह चले गए होंगे या वे वापस अपने घरों को लौट गए होंगे? क्या चेखव ने यह प्रश्न पाठकों पर छोड़ दिया है! आप उनकी एक अन्य कहानी ‘कश्तांका’ पढ़िए, शायद कोई सुराग मिल जाय. कश्तांका (Kashtanka) एक बढ़ई की एक देसी कुतिया है, जिसे उसका मालिक गाहे-बगाहे ठोकर मारता रहता है, उसका बेटा उसे परेशान करता है. वह दुखी है. एक दिन वह किसी परिस्थितिवश शहर की गलियों में खो जाती है. उस भूखी-प्यासी को एक भलामानुष उठाकर अपने घर ले जाता है. उसे अच्छा भोजन, और स्नेह देता है; उसे अपने सर्कस में करतब दिखाने की ट्रेनिंग देता है. और सर्कस में उसे करतब दिखाता देख, सर्कस देखने आया बढ़ई का बेटा पहचानकर उसका नाम पुकारता है, और क्या आश्चर्य कि पुकार सुनते ही कश्तांका छलांग लगाकर अपने पुराने मालिक की गोद में बैठ जाती है, और पुराने घर में उसकी वापसी होती है. एक अन्य कहानी ‘प्रेम’ (Love) में चेखव का युवा नायक कहानी के अंत में बोलता है- …but what is the explanation of the love itself, I realy don’t know.
कृष्णमूर्ति से किसी ने पूछा- प्रेम किसे कहते हैं? उन्होंने जवाब दिया- सत्य की भांति प्रेम कोई शब्द नहीं, परिभाषा नहीं. प्रेम करिए और स्वयं से उसके मंगल आशीर्वादों को महसूस करिए.
बांग्ला कवि शंख घोष कहते हैं- …पूर्ण जीवन का कोई सत्य आज भी कहीं छुपा हुआ है.
और अंत में, रवि ठाकुर की कृति ‘नष्टनीड़’ पढ़ें हों अथवा नहीं, उस पर आधारित सत्यजित राय की फिल्म ‘चारुलता’ जरूर देख लेने की गुजारिश. विशेषकर फिल्म का नि:शब्द आखिरी दृश्य. चारुलता अपने पति भूपति के चचेरे भाई अमल के ‘प्रेम’ में गिरफ्तार. और अमल भी. अपनी भूल का पता चलने के बाद, अमल का दूर जाकर पत्र भेजना कि वह विदेश जा रहा है; पत्र पढ़कर चारुलता का फूट-फूट कर रोना, भूपति का ऐसा देखकर आहत होकर निरुद्देश्य कलकत्ता की सड़कों पर घूमना; और उसके लौटने पर चारुलता द्वारा उसका स्वागत करते हुए अपना हाथ आगे बढ़ाना, भूपति का भी हल्की-सी झिझक के बाद हाथ बढ़ाना, और दोनों हाथ मिलें, उससे पहले ही दृश्य का फ्रीज़ हो जाना.
दुनिया इसी प्रकार चलती रही है.
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नारायण सिंह
( Narayan Singh )
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