अब जब नौ दौर की बातचीत के बाद भी वार्ताकार मंत्रीगण, किसानों को यह नहीं समझा पा रहे हैं कि यह कानून कैसे किसानों के हित में बना है, तो इससे यह बात भी स्पष्ट होती है कि, या तो मंत्रीगण खुद ही यह नहीं जानते कि, इन कानूनों से किसानों का क्या हित है, या वे अपनी बात समझाना नहीं जानते। यह सम्प्रेषण के क्षमता की भी कमी हो सकती है और कानून की अंदरूनी जानकारी का अभाव भी।
जब इस विधेयक या अध्यादेश का ड्राफ्ट कैबिनेट में आया हुआ होगा तो निश्चय ही इस पर बहस हुयी होगी। कृषि से जुड़ा कानून है तो कृषि मंत्रालय ने इस पर विचार भी किया होगा। इस कानून का ड्राफ्ट विधि मंत्रालय में भी गया होगा और अध्यादेश या विधेयक को जारी या संसद में प्रस्तुत करने के पहले जब इसे अंतिम रूप दिया गया होगा तो, इसका हर तरह से परीक्षण कर लिया गया होगा।
क्या कैबिनेट में किसी मंत्री ने इस विधेयक में कोई भी कमी नहीं पायी ? कृषि मंत्री जो खुद कैबिनेट में रहे होंगे, और जिन्हें आज इस कानून में कुछ कमियां दिख रही हैं, जिनके संशोधन के लिए वे आज कह रहे हैं, को कैबिनेट में ही अपनी आपत्ति दर्ज करा देनी चाहिये थी। हो सकता है उन्होंने कहा भी हो और उन्हें अनसुना कर दिया गया हो। जो भी होगा कैबिनेट की मिनिट्स से ही वास्तविकता की जानकारी हो सकेगी।
जब कोई भी सत्ताशीर्ष, या प्रधानमंत्री खुद को इतना महत्वपूर्ण समझ लेता है या उसकी कैबिनेट उसे अपरिहार्य समझ उसके आभामंडल की गिरफ्त में आ जाती है तो, ऐसी होने वाली, अधिकतर कैबिनेट मीटिंग एक औपचारिकता बन कर रह जाती है। तब कानून बनाने की प्रक्रिया केवल पीएमओ में ही सिमट जाती है और विभागीय मंत्री या सचिव बस पीएमओ के ही एक विस्तार की तरह काम करने लगते हैं, तो ऐसे बने कानूनो में मानवीय त्रुटियों का होना कोई आश्चर्यजनक नहीं होता है। लोकतंत्र का यह अर्थ नहीं है कि किसी मसले पर, केवल संसद में ही बहस और विचार विमर्श हो, बल्कि लोकतंत्र का असल अर्थ यह है कि नीतिगत निर्णय लेने के हर अवसर पर जनता के चुने गए प्रतिनिधि उस पर अपनी बात कहें और उस पर विचार विमर्श करें।
संविधान में प्रधानमंत्री की कानूनी हैसियत 'सभी समान हैं पर वे प्रथम' या 'फर्स्ट एमंग इक्वल्स' होती है। सरकार का फैसला, कैबिनेट का फैसला होता है। प्रधानमंत्री उक्त कैबिनेट का प्रथम यानी मंत्रियों में प्रधान होता है, इसलिए उसे प्रधानमंत्री कहते हैं। लेकिन संविधान में दिया गया यह सिद्धांत व्यावहारिक धरातल पर कम ही उतरता है। यह बात आज नरेन्द्र मोदी के समय से नहीं बल्कि इन्दिरा गांधी या यूं कहिये यह जवाहरलाल नेहरू के समय से ही चल रही है। संसदीय लोकतंत्र जिसे अध्यक्षात्मक लोकतंत्र की तुलना में अधिक लोकतांत्रिक माना जाता है, में प्रधानमंत्री कैबिनेट के विचार विमर्श के बाद कोई निर्णय लेता है, ऐसा माना जाता है पर अमूमन ऐसा होता नहीं है। जब प्रधानमंत्री लोकचेतना और लोकतांत्रिक सोच के प्रति सजग और सचेत होता है तो, वह कैबिनेट के राय मशविरे को महत्व देता है, अन्यथा वह पूरी कैबिनेट को ही अपनी मर्जी से हांकने लगता है। प्रधानमंत्री यदि एकाधिकारवाद के वायरस से संक्रमित है तो उसकी इस तानाशाही के शिकार सबसे पहले उसकी कैबिनेट के मंत्री होते हैं। इस संदर्भ में 25 जून 1975 को कैबिनेट द्वारा घोषित आपातकाल के प्रस्ताव का उदाहरण दिया जा सकता है।
2014 के बाद, केंद्रीय कैबिनेट में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हैसियत कुछ ऐसी ही हो गयी है कि शायद ही कोई कैबिनेट मंत्री अपनी बात कहने या प्रधानमंत्री को उनकी गलती बताने का साहस कर सकता है। नोटबन्दी के निर्णय के बारे में तो यह तक कहा जाता है कि इसकी जानकारी वित्तमंत्री स्वर्गीय अरुण जेटली को भी बहुत बाद में हुई और रिजर्व बैंक के गवर्नर को सरकार के इस निर्णय से बस सूचित किया गया। इसीलिए आरबीआई नोटबन्दी के बाद स्वाभाविक रूप से होने वाली समस्याओं के लिये तैयार नही था। नोटबन्दी के कुप्रबंधन का ही कारण था कि उसके उद्देश्य अंत तक स्पष्ट नहीं हो सके और आज भी सरकार यह बताते हुए असहज हो जाती है कि उससे देश की आर्थिकी और बैंकिंग सेक्टर को क्या लाभ मिला।
नरेन्द्र मोदी की सरकार को प्रख्यात पत्रकार औऱ पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ढाई आदमी की सरकार कह कर तंज कसते थे। इन ढाई आदमी में वे दो व्यक्ति नरेन्द्र मोदी औऱ अमित शाह को बताते थे और आधा अरुण जेटली को कहते थे। तब अमित शाह मंत्री नहीं बने थे, लेकिन भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। 2019 के बाद अरुण जेटली मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए, और अमित शाह केंद्र में गृहमंत्री बने। राजनाथ सिंह का स्तर अब भी नम्बर दो पर कहा जाता है पर व्यावहारिक रूप से अमित शाह, प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण मंत्री माने जाते हैं। कैबिनेट के अन्य मंत्री, ज़रूर कैबिनेट हैं, पर क्या वे अपने विभाग से जुड़े कानूनो के ड्राफ्ट करने में प्रधानमंत्री को दृढ़ता से कुछ समझाने की स्थिति में है ?
इन तीन कृषि कानूनो की एक और व्यथा है। सरकार तो इन्हें किसान हितैषी कानून बता ही रहे हैं, साथ ही, सरकार समर्थक हर मित्र भी यही कह रहा है कि, यह तीनों कृषि कानून, किसान के हित मे हैं।
पर आज तक सरकार समर्थक वे मित्र, यह नहीं बता पाए कि,
● एमएसपी की बाध्यता के बिना, अपनी मनमर्जी से तय किये गए दाम पर निजी कॉरपोरेट को, किसानों से फसल खरीदने की कानूनन छूट देने से ,
● निजी क्षेत्र, कॉरपोरेट और अन्य किसी भी पैन कार्ड होल्डर को, फसल खरीद कर, असीमित रूप से अनन्तकाल तक जमाखोरी को वैध बनाने के प्राविधान से,
● फिर अपनी मर्जी से जब चाहें, जैसे चाहें, कृषि उपज को बाजार में, उतार और समेट लेने की घोर मुनाफाखोरी वाली वैधानिक छूट दे देने से, जिससे बाजार कुछ पूंजीपतियों या कंपनियों के सिंडिकेट के इशारे पर ही उठे, बैठे या मरे जीये,
● अपनी मर्जी से दाम तय करके किसान से उपज की खरीद, और अपनी मर्जी से ही दाम तय कर के, उस उपज को बाजार में बेच देना, किसानों औऱ उपभोक्ता दोनो के ही शोषण की कानूनी अनुमति है। ऐसे प्राविधान से, और,
● कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसानों को सिविल अदालत में जाने के मौलिक अधिकार से वंचित कर देने से,
किसानों का कौन सा हित सध रहा है ?
आंदोलनकारी किसान ऐश से रहते हुए आंदोलन कर रहे हैं यह न तो ईर्ष्या की बात होनी चाहिए और न ही मज़ाक़ की। बल्कि बिहार के किसान, पंजाब हरियाणा के किसान की तरह सम्पन्न और मस्ती से खूब खाते पीते ढंग से, क्यों नहीं रह पा रहे हैं, यह सरकार, अर्थविशेषज्ञों, और हम सबके लिये भी, चिंता का विषय और चिन्तन का मुद्दा होना चाहिए।
उद्देश्य और प्रयास यह होना चाहिए कि, बिहार के किसान भी, पंजाब, हरियाणा के किसानों की तरह सम्पन्न हो जांय न कि, पंजाब, हरियाणा के किसान भी बिहार के किसानों की तरह बर्बाद होने लगें। 2006 में बिहार में एपीएमसी और एमएसपी न्यूनतम समर्थन मूल्य का सिस्टम खत्म करने के बाद बिहार के किसान, पूरे देश मे कृषि आय के मामले में सबसे विपन्न किसान हैं। एपीएमसी सिस्टम और एमएसपी के प्रति पंजाब और हरियाणा के किसानों की जागरूकता भी उनकी सम्पन्नता का एक कारण है।
वर्तमान कृषि कानून और आगे आने वाले सरकार के फ़र्ज़ी कृषि सुधार के कुछ कानून, भारतीय कृषि और पांच हज़ार साल की ग्रामीण और कृषि सभ्यता और संस्कृति को बरबाद कर के रख देंगे। यह एक साज़िश है, जिसे बेहद खूबसूरती से आर्थिक सुधारों का नाम दिया गया है। यह साज़िश, अमेरिकी थिंकटैंक की है। वैसे तो, ऐसे बंदिश वाले कानून बनाने के दबाव का सिलसिला 1998 से चल रहा है। लेकिन, इसके पहले की एनडीए, यूपीए की सरकारे, इसे टालती रहीं हैं। पर विडंबना देखिये, खुद को मजबूत कहने वाली मोदी सरकार ने देसी कॉरपोरेट और अमेरिकन पूंजीवादी थिंकटैंक के सामने खुद को अब, लगभग आत्मार्पित कर दिया।
इन कानूनों को ड्राफ्ट करते समय न तो किसान संगठनों से राय ली गयी, और न यह सोचा गया कि भारतीय परिवेश में यह कानून कैसे कृषि का भला कर पायेगा। संसद में भी, इन कानूनों पर, क्लॉज दर क्लॉज़ कोई बहस नहीं हुयी। हालांकि अब सरकार यह ज़रूर कह रही है कि, वह क्लॉज़ दर क्लॉज़ चर्चा करने के लिये तैयार है। राज्यसभा में तो इसे हंगामे के बीच ध्वनिमत से ही, पास घोषित कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस विंदु पर अपनी नाराजगी जताई है कि, यह कानून ड्राफ्ट औऱ पास करते समय, पर्याप्त विचार विमर्श नही किया गया।
भूपिंदर सिंह मान का आभार कि, उन्होंने खुद को इस कमेटी से अलग कर लिया है। अन्य तीन सदस्यों को भी यह कह कर इस कानून से अलग हो जाना चाहिए कि, वे इस कानून के प्राविधान, दर्शन और विचारधारा से पहले से ही सहमत हैं, और किसान संगठनों ने ऐसी कमेटी का बहिष्कार भी कर दिया है तो, ऐसी स्थिति में उनका इस कमेटी में बने रहने का न तो कोई औचित्य है और न ही अब इस कमेटी की कोई प्रासंगिकता ही बची है ।
सरकार अब भी इस गिरोहबंद पूंजीवाद को बढ़ावा देने वाली, इस तथाकथित कृषि सुधार से खुद को अलग करे और इन तीनो विवादित कृषि व्यापार कानूनों को रद्द करे । साथ ही, किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिले, जमाखोरी पर अंकुश लगे, कॉरपोरेट के बेहिसाब मुनाफाखोरी पर लगाम लगे, आदि जो मूल समस्याएं, आज किसानो के समक्ष है, उनके परिप्रेक्ष्य में,नए सिरे से, विचार कर नए कानून यदि ज़रूरी हो तो संसद में लाएं और फिर उनपर पर्याप्त विचार विमर्श कर उन्हें बनाये तथा लागू करे।
( विजय शंकर सिंह )
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