लीनियर-बी का आधार क्या है इसे समझने के लिए जरूरी है कि हम सैंधव लिपि की प्रकृति को समझें।
इस लिपि के पाठ की तीन चुनौतियाँ हैं। पहली यह कि इसकी भाषा क्या है? दूसरी, इसके अभिलेखों का अर्थ क्या है,और; तीसरी, यह कि इनका उपयोग किन रूपों या प्रयोजनों से किया जाता था।
जिन दिनों आर्य आक्रमण की कहानियां लोकप्रिय थीं, और उनके पीछे की राजनीति प्रकट हो कर भी अदृश्य रह जाती थी, उन दिनों भले इसके एक भी अभिलेख सही पाठ संभव न हो सका हो, इसकी भाषा द्रविड़ मान ली जाती थी। पढ़ने वाला अपनी पूरी अक्ल लगा कर भाषा द्रविड़ सिद्ध करना चाहता था और भाषा संस्कृत सिद्ध होती थी।
इसे एक दो उदाहरणों से अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है। इरावदन महादेवन भाषा को तमिल सिद्ध करने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे। उस अंकन का, जिसमे नीचे मानव आकृति है और जिसके सिर पर एक पात्र की आकृति बनी है, पाठ सुझाया सातिवाहन। सातिवाहन या शालिवाहन दक्षिण भारत का ऐतिहासिक काल का राजवंश था, इसलिए उन्हें इसमें द्रविड भाषा की संभावना दिखाई दी। अपने एक दूसरे लेख में (1985 `The Cult Objects on Unicorn Seals: A Sacred Filter ?' ) उन्होंने एशृंग वृष के शरीर पर अंकित चिन्हों की विस्तृत व्याख्या करते हुए उन्हें सोम सवन से संबद्ध दिखाया। मैंने कई साल बाद टोका कि इससे तो आप इसे वैदिक सिद्ध कर रहे हैं, तो उनका उत्तर था उसे अब नकार दिया है। द्रविड़ पाठ के दूसरे उद्भट आंदोलनकारी ऐस्को पार्पोला ने स्वस्तिक पर लगे अनुस्वार चिन्ह ( ँ) का पाठ ‘ॐस्वस्ति’ के रूप में किया। ऐसे शेखचिल्लीपन पर हँसी आएगी, पर इनको गंभीरता से लिया जाता रहा है और इस विडंबना पर भी ध्यान नहीं दिया जाता रहा कि इसके बाद भी दावा क्या किया जा रहा है और प्रमाण क्या कहते हैं।
दि वेदिक हड़प्पन्स में (1995: 385-395) में यह प्रमाणित किया था कि इनकी भाषा वैदिक है, क्योंकि, 1. जो कुछ कलाकारों ने चित्रों में अंकित किया है ठीक उसे ही वैदिक कवियों ने शब्दचित्रों में उतनी ही मार्मिकता के साथ अंकित किया है; 2. ऋग्वेद में जिन देवों का मूर्तन वन्य पशुओं के रूप में हुआ है, उन्हीं का चित्रण मुहरों पर पाया जाता है; 3. देवों का स्मरण रक्षा और मार्गदर्शन के लिए किया गया है, पालतू पशु जो स्वयं मनुष्य के वश में हैं, या मादा जिसकी रक्षा का भार पुरुष पर है (अनवद्या पतिजुष्टेव नारी) इसमें समर्थ नहीं इसलिए न तो बिल्ली, गधे/घोड़े का मुहरों पर अंकन है, न गाय का। सभी पशु नर हैं, वन्य हैं और अज और मेष भी इतने ओजस्वी हैं कि उनकी प्रजाति का ध्यान बाद में आता है, उनकी आक्रामकता या शक्ति पर पहले। यह रोचक है कि वृष/वृषभ के चित्रण हैं, बैल के या गाय के नहीं जिनसे किसी देव की तुलना नहीं की गई है। एक अपवाद हाथी का हो सकता था, पर ऋग्वेद का हस्ती जंगली है - मृगो न हस्ती तविषीमुषाणः सिंहो न भीम आयुधानि बिभ्रत् ।। 4.16.14 । ध्यान दें तो आयुध लिए सिंह की कल्पना अटपटी है, पर सैंधव अंकनों में ऐसा अंकन भी है, (इसका ध्यान पहले न था, इसकी स्मृति है, संप्रति जाँच नहीं कर पाया)
अभिलेखों का पाठ करने में सबसे बड़ी बाधा यह कि इनके निर्वचन में अन्य दुरूह लिपियों के पाठ के जो तरीके हैं उनसे ही मदद ली जाती रही है और भारतीय परंपरा की उपेक्षा की जाती रही है।
लेखन के मामले में भारत में एक साथ दो प्रवृत्तियां पाई जाती हैं: पाठ को सर्वग्राह्य और अल्पजनग्राह्य बनाने की विरोधी प्रवृत्तियाँ। दूसरी के पाठ के लिए गुरु या मर्मज्ञ लोगों की सहायता - ‘बिन गुरु होय न ज्ञान’ - अनिवार्य था। इसके कारण लेखन के सांप्रदायिक रूप बन गए थे, जिनके अपने कूटाक्षरों या गूढ़ार्थी शब्दों को किसी दूसरे संप्रदाय का कूटविद भी नहीं जान सकता था। सांप्रदायिक भाषा में जानबूझकर शब्दों के अर्थ छिपाने और बदलने के प्रयत्न के पीछे मठाधीशों के एकाधिकार की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। स्वामी शंकरानंद ने भले ही इन अभिलेखों का पाठ न किया हो परंतु उन्होंने भारत में प्रचलित भाषा के गुह्य प्रयोगों की ओर ध्यान दिलाया था जिस की ओर दूसरे अध्येताओं को भी ध्यान देना चाहिए। यह गोपन अराजकता का रूप ले लेता था। ललितविस्तर में बुद्ध पाठशाला में प्रवेश से पहले जिन 64 लिपियों का ज्ञान प्राप्त कर चुके थे उनमें अनेक कल्पना प्रसूत (सर्वसारसंग्रहणी, सर्वभूतरुतग्रहणी, सर्वौषधिनिष्यन्दा) हैं, कुछ ब्राह्मी के क्षेत्रीय रूप (ब्राह्मी, अंगिका, वंगिका, मागध, मांगल्य, द्राविड़, किरात, हूण, दाक्षिण्य, पूर्वविदेह, दरद, खाष्य (खश जनों की) , चीन, आदि) हैं ; कुछ कंठस्थ करने के लिए अपनाई जाने वाली विधियाँ (अनुलोम, विलोम, )हैं, परन्तु उनमें कुछ प्रयत्नपूर्वक कूटभाषा बनाने और संप्रदायों के गूढ़ाक्षरों वाली लिपियाँ (अवमूर्ध, शास्त्रावर्त, गणनावर्त, मध्याहारिणी, भी हैं। परंतु इनसे कूटविधियों का न सही नाम पता चल सकता है न उनके विविध रूप।
सैंधव लिपि मे भी शब्दाक्षरों का प्रयोग होता था यह तो स्वस्ति के प्रयोग से ही प्रमाणित है। हमारी आज की लिपि माला से इतर ॐ, स्वस्ति, श्रीश्री6, या श्रीश्री108, जैसे प्रयोग लेखन में किए जाते हैं, या, कम से कम, परंपरावादी लोगों द्वारा किए जाते हैं। सैंधव लिपि में इनकी संख्या अधिक थी यह समझना आसान है। इनके पीछे श्रद्धा, गोपन, रीति निर्वाह और ज्ञान पर नियंत्रण जैसे अनेक कारण रहे हो सकते हैं। शब्द के स्थान पर अंकों का प्रयोग, अंकों के लिए शब्दों का प्रयोग रीतिकाल तक की कूटोक्तियो में देखने में आता है। ऐसा इसलिए भी सोचना होता है कि ऋग्वेद में गोपन और गूढ़ता पर (अपगूळ्हं गुहाहितम् ; गुहा नामानि दधिरे पराणि) पर विशेष बल दिया गया है। एक ही शब्द या चिन्ह के प्रसंगानुसार अनेक अर्थ हो सकते थे । हम इनके विस्तार में भी नहीं जाएंगे। हम केवल स्वस्ति चिन्ह के अर्थभेद पर ध्यान दे सकते हैं।
स्वस्ति पाठ
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आज भी बहुत सारे हिंदू घरों के द्वार पर, विशेषतः बनियों के घरों या बहीखाते में स्वस्तिक का चिन्ह बना तो मिलेगा ही, उसके साथ, शुभ, लाभ भी लिखा मिलेगा। अर्थात् यहाँ इसका अर्थ शुभ और लाभ है : ऋग्वेद कालीन भाषा में कहें तो शुभ, ‘क्षेम’ है और लाभ, ‘योग’ - पाहि क्षेमे उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।
स्वस्तिक का चिन्ह चक्र प्रवर्तन (अपि पन्थामगन्महि स्वस्तिगामनेहसम् ।) का सबसे पुराना रूप है। , स्वस्तिक आगे बढ़ते हुए पहिए का प्रतीकात्मक अंकन है, जिसका एक अर्थ है चरैवेति चरैवेति। मूलाधार है वह चिन्ह (+) जिसका प्रयोग (धन) अर्थात ‘योग’ के लिए आज तक होता आया है। ये चक्र के अरों के प्रतीक हैं। चार ही अरे क्यों, जब कि वैदिक चक्र में बारह अरों का उल्लेख है? इसलिए यह धर्म चक्र प्रवर्तन नहीं था, अर्थचक्र प्रवर्तन था । सारी दुनिया की दौलत वे लोग बटोरना चाहते थे (सहस्रिण उप नो माहि वाजान्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः , 7.26.5; आ विश्वतः पाञ्चजन्येन राया यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः, 7.72.5)। जिनकी आकांक्षा का मूर्तिमान रूप यह चक्र है इसलिए चारों दिशाओं में निर्बाध पहुंचने का प्रतीकांकन (विश्वानि दुर्गा पिपृतं तिरो नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।। 7.60.12; सुगा नो विश्वा सुपथानि सन्तु यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।। 7.62.6), चार अरों, चारों दिशाओं में गमन और उस यात्रा के निर्बाध होने का प्रतीक पहिए की परिधि का आपस में न मिल पाना, या प्रगति का निर्बाध रहना है । जैसे संकट में पड़ा हुआ या संकट की संभावना से डरा हुआ व्यक्ति सुरक्षा के उपाय करता है जिसमें सभी देवों की मनौती भी होती है (स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु, 1.89.6; शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ।। 1.90.9); ऐसी ही चिंता यात्रा पर प्रस्थान करने वाले व्यापारियों की मौसम ( मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ।। मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता ।। मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ।। 1.90.6-8) से लेकर गलत रास्ते पर जाने से बचाने और आपदा में सुरक्षा करने से संबंधित (स्वस्ति नो पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति ।) हुआ करती थी। हमारा निवेदन मात्र यह है कि स्वस्तिक चिन्ह वही है, पर विविध संदर्भों मेे उसके अर्थ अलग हो जाते थे और इस पहलू की ओर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया गया।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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