दृषद
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दृषद - पत्थर। यह शब्द भी योगिक है इसमें प्रयुक्त दोनों शब्दों - दृ और सत - का अर्थ पानी है। हम पहले यह बता आए हैं कि कौरवी में स्वरलोप की प्रवृत्ति थी। उसके प्रभाव से पूरबी ‘तर’ के दो रूप बने - 1. ‘त्-र’ जो त्र, स्थानवाची के रूप में स्वीकार किया गया। सच कहें तो यह भो. धर- जो (इ-/उ-/कि-/जि+धर) - स्थान, धरा का कौरवी प्रभाव में बदला रूप था धर>तर>त्र* । 2. तर जिसका अर्थ जल था जो तरंग मे मिलता है। इसके अंत्य और मध्य अकार का लोप हो गया - तर > त्+र् ।
व्यंजन प्रधान भाषाओं में स्वर लोप के कारण उच्चारण में समस्याएं पैदा होती हैं। एक ही लिखित शब्द को किताब, कुत्ब,कुतुब, कातिब रूपों में पढ़ा जाता है। तत्कालीन कौरव क्षेत्र के लोग इसका उच्चारण कैसे करते थे, इसका हमें सही ज्ञान नहीं। परंतु इस बात की पूरी संभावना है इसी से ‘ऋ’ स्वर की उद्भावना हुई जिसका उच्चारण कुछ लोग घर्षी ‘ऱि’ (ऱिषि/ रिसि) और कुछ दूसरे ‘ऱु’ (ऱुषि) के रूप में करते हैं। इसी प्रभाव में तर>तृ बना।
पूरब की ही किसी घोष-प्रेमी बोली में तर का श्रवण और उच्चारण दर के रूप में होता था। इसके कौरवी में तीन रूप बने। एक में अन्त्य स्वर का लोप हुआ - दर> दर् जो दर्प, दर्श में मिलता है। दूसरे में मध्य स्वर का लोप हुआ। इसे हम द्रव, द्रप्स में पाते हैं। तीसरे में दोनों स्वरों का लोप हुआ जो दृग, दृढ़ में मिलता है। यही ‘दृ’ दृषद में पाया जाता है जिसका अर्थ है, पत्थर, सिल (दृषद-उपल = सिल-बट्टा) और यही दृषद्वती में भी पाया जाता है जहां इसका अर्थ हमारी समझ से जल है।
सत् (सत्व, सत्य) का अर्थ पानी है, इस पर किसी बहस की जरूरत नहीं। इस तरह हम पाते हैं कि दृषद दो जलवाची शब्दों से बना है। पर पत्थर का अपना स्वभाव है जो पानी से संज्ञा लेने के बाद भी रहेगा तो पत्थर जैसा ही। पानी उसके स्वभाव के लिए भी शब्द लुटाने के लिए तैयार है तर >तड़कना, - दर > दरकना। परंतु सर्वत्र इनका अर्थ विकास समानांतर होते हुए भी कुछ विभिन्नता लिए हुए है जिसके कारण इससे नई परिघटनाओं और व्यंजनाओं के लिए शब्दावली के निर्माण में बहुत सहायता मिली है। तर > तड़ तंड/टंटा (वितंडा), > तांडव; दर>दाँट/ डाँट,डाँठ (ओषधियों का तना), दाँड़ (दाडिम) डाँड़/ दंड - किसी नदी या समुद्र का तटीट ऊँचा भाग (तु. रिज ridge से) । यूरोपीय भाषाओं मे तर ( -जल) के घोषित रूप ‘दर’ अधिक पसंद किया गया - E. drop, drink, drip, drap, drain, *dr>dry, ड्रा (draw), ड्राफ्ट (draft), ड्रिफ्ट (drift) ड्राट (draught), ड्राट (drought) आदि, जब कि अ-घोषित ‘त’ भारत के विपरीत लाक्षिक आशयों में - trip, tray, train, true, track, trace, trim, trickle, trend, tip, tipsy, terror, term आदि में स्थान पा सका।
गिरि
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गर - जल, गर्गरा (घग्घर/ घाघरा)- सुजला; फा. गर्क- जलमग्न, गीला, गलना, (सं. धातु- ग्लै), ग्लानि - गलना,, ग्रस, (gulp), glutton - one who eats to excess (गटकने वाला) ग्लिसिन(glisten- to shine,, ग्लास (glass), ग्लो (glow, gloss-brightness) ग्ली glee,, ग्लैड (glad), ग्लेज (glaze), ग्रस/ ग्रास (grass), जलवाची और जलीय शब्दों की एक पूरी श्रृंखला है जिससे गिरि का संबंध दिखाई देता है और दूसरा कोई स्रोत नहीं है, जिससे इसकी व्याख्या की जा सके।
पर्वत
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पर्वत शब्द का प्रयोग बादलों (या ते अग्ने पर्वतस्येव धारा, - मेघस्य उदकस्य धारा, सा.) और पहाड़ों (दादृहाणं चिद् बिभिदुर्वि पर्वतम् -( पर्वतं शिलोच्चयम्, सा.) और शिलाखंडों (वि पर्वतस्य दृंहितान्यैरत्, ‘शिलाभिः दृढ़ीकृतानि द्वाराणि’. सा.) के लिए देखने में आता है। बताया यह जाता है कि इनका नामकरण - पर्व अर्थात गांठ के कारण पड़ा है। घुमड़ते हुए बादल गांठ के फन्दे का भ्रम पैदा करते हैं और ऊंचे नीचे पहाड़ धरती पर गाँठों की तरह दिखाई देते हैं। शिलाखंड तो गाँठ हैं ही।
परंतु ध्वनि तो इनमें से किसी के पास नहीं होती या बादलों से जो ध्वनि पैदा होती है, उसका उसके नामकरण में कोई भूमिका दिखाई नहीं देती। इनके नामकरण का एक ही स्रोत रह जाता है और वह है जल। प्र /प्ल (प्रवण, प्लव, प्लावन), पल, पाल (पाला) सभी का अर्थ जल है। ‘पर’ ‘प्र’ का पूर्व रूप है और इसके साथ भी वैसी ही समस्या उपस्थित हुई जो ‘तर’ के साथ हुई थी और वैसे ही ‘पर्’, ‘प्र’ और ‘पृ’ (पृक्ष -अन्न; पृक्षमत्यं न वाजिनम् में द्रुतगामी आशय है, । सा. प्रसंगभेद से अन्न का अर्थ जल करते भी हैं।), रूप बने थे, यद्यपि अन्तिम (पृण् का स्थान पुर/पूर- ने ले लिया)। पर्जन्य में पर् - जन्य, जल उत्पन्न करने वाला, अर्थात बादल में, पर/प्र का जलवाची होना असंदिग्ध है। इस दृष्टि से पर्वत जलवत या जल वाला हुआ। इसी कारण यह बादल और पहाड़ दोनों के लिए प्रयोग में आया लगता है न कि गाँठ के कारण।
पर्व का एक दूसरा रूप था परु है, जो परुष्णी (ऋग्वेद में परिगणित नदी) में लक्ष्य किया जा सकता है। परुष का अर्थ कठोर या नम्रतारहित है। सभी नदियां पहाड़ों से निकलती हैं और उनकी धारा में दूरी के अनुसार विविध आकार के शिलाखंड पाए जाते हैं। यह किसी एक नदी की विशेषता नहीं और इसलिए यह जरूरी नहीं कि इसे किसी एक नदी की विशिष्टता मान कर उसका नामकरण इस आधार पर किया गया हो, पर नामकरण की समस्या ऐसी है कि इस पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। फिर भी परुष और परुषता के लिए संज्ञा तो नाद के अक्षय स्रोत से ही आएगा इसलिए जल की भूमिका परुषता में भी बनी रहेगी।
शैल
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शैल का शाब्दिक अर्थ है शिलोच्चय। शिला को शिर/शिल और इनके पूर्वरूप सिल, सिल्ली और सीलन से अलग करके देखने चलें तो समस्या होगी और हाथ कुछ न आएगा।
पहाड़
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पहाड़ के विषय में हम सांकेतिक रूप में विचार करते आए हैं। यह उसी पह से बना है जिसे पहिया के पूर्वरूप पाहन में पाते हैं जिसमें गति का भाव अधिक स्पष्ट है, इसलिए पह (इया) को बहिया/ बह(ना) और वह/वाह(न) का रूपभेद मानना अधिक समझदारी की बात होगी। इसके बाद कहने को सिर्फ यह बच जाता है कि धारा में बह और घिस कर वर्तुलाकार हुए पत्थरों को जो संज्ञा दी गई थी उसी में संबंधसूचक (पह+अड़<अळ< अर = वाला) जोड़कर पहाड़ बना लिया गया। ऋग्वेदिक पहेली में कहें को पिता पुत्र बन गया, और पुत्र पिता - कविर्यः पुत्रः स ईमा चिकेत यस्ता विजानात् स पितुष्पितासत् ।
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*इसमें संभवतः पूरबी असर से अंतिम अक्षर हलन्त नहीं हुआ जो कौरवी में एक नियम सा है, इसलिए जिसमें लेखन में अकारांत शब्दों का भी उच्चारण निरकार या हलंत होता है। लिखित मन - पठित मन् । इसके उच्चारण में कोई समस्या नहीं थी ।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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