विषय विस्तार हो तो बेचैनी पैदा होती है। उसका नुकसान यह होता है कि कुछ जरूरी बातें विस्तार के बाद भी अनकही रह जाती है। मैं संस्कृत को आज भी दुनिया की सबसे सक्षम भाषा मानता हूँ, पर सबसे महान नहीं। उस मामले में तो वह हिन्दी से भी विपन्न भाषा है।
हिंदी अपनी बोलियों से कटी भाषा नहीं है यद्यपि तत्सम-प्रधानता के चक्कर में अपने मुहावरों, लोकोक्तियों से दूर होने की प्रक्रिया में इसने उस राह पर चलते हुए अपनी ऊर्जा का क्षरण किया है। हिन्दी दुनिया की किसी भाषा से ऐसे शब्द ग्रहण कर सकती है जो उन वस्तुओं, विचारों के लिए हों जिनके लिए उपयुक्त शब्द उसके भंडार में न हों पर । इससे उसकी पवित्रता नष्ट नहीं होती, संस्कृत की होती है। भाषा वस्तुजगत और भावजगत का सांकेतिक प्रस्तुतीकरण है, इसलिए उसमें कुत्सित, घृणित जिसका अस्तित्व है, उसको व्यक्त करने वाले संकेत (शब्द) उसमें होने चाहिए। पवित्रता भाषा-बाह्य अवधारणा है। यह उसे पंगु बनाती है। इसलिए यदि संस्कृत को विश्वभाषा और नैसर्गिक भाषा बनना है तो एक तो इसे पाणिनीय व्याकरण से आगे बढ़ कर ऐन्द्र व्याकरण को, जिसका कुछ आभास ऋग्वेद में और तोलकप्पियम में मिलता है, अपनाना होगा और चौके की भाषा नहीं कामकाज की, कामकाज करने वालों की उदार और सर्वसमावेशी भाषा, बन कर समृद्ध बनना होगा।
जिन धातुओं को संस्कृत का मूलाधार माना गया है वे भाषा को सक्षम नहीं अक्षम बनाती है और मूल तक पहुँचने में बाधक बनती है। मूल पर ध्यान दें और निम्न शब्दावली का अवलोकन करें:
'सर’ ,
सर् सर् - हवा या पानी के प्रवाह की ध्वनि का अनुकरण
सर /सल- पानी
सर - प्रवाह, गति
सर - तीर (ध्यान दें तीर भी जलवाची 'तर' से जुड़ा है)। २. चुभने वाला
सर / सरोवर - जलाशय
सर - वह दंड जिससे सर बनाया जाता था ।
सरिया (आ) - सरकंड की तरह पतला और लंबा
सलिल/ शरिर> शरीर (सलिलं शरिरं शरीरम्।
शल्य < शूल - काँटा>शलाका> बाण> चीर-फाड़,
शल्यचिकित्सा
सरण्यु - वायु, बादल, जल…
सरना - सधना,
सरमा - हनूमान की पूर्वर्ती भूमिका वहन करने वाली देवशुनि
सरबर/ सरबराह - प्रधान, नेता
सरयू - नदी नाम
सरई - बहुत पतली सरपत
सलाई (आ) - बुनाई या अंजन तगाने की तीली
सार - पानी, निचोड़ > सारांश - निचोड़ बिन्दु, निष्+कर्ष - खींच कर निकाला हुआ,
सार-सत्य
सारा - समग्र
साल - वर्ष
सालग्राम - सलिग्राम> शालिग्राम
सिराना - ठंडा होना
सीर - मीठा > शीरीं - मधुर, शीरनी - खीर
सीरा/ शीरा - गुड़ या चीनी का गाढ़ा घोल,
सिरा - अन्त
सिलसिला
चिलचिलाना - चमकना
चिर- सतत, सबसे ऊपर, अनन्त
चिरुकी - शिखा
सिर/शिर - सबसे ऊपर
सिरा - अंत
सरण - प्रवाह, गति;
सरणी - मार्ग;
सड़क - मार्ग
सड़न, सड़ना, सड़ांध, सड़ियल, सिड़ी, संडास
सरि (+ता); सरति - प्रवाहित होता है; सरस्वती; सरस्वान
सरकना> सर्पति
सर्प
सरसराहट
सरासर- लगातार, नितांत
सरपट / सर्राटा - तेज गति
सरीसृप - सांप
सर्ज (ऋ.)- बाहर निकलना, जैसे सोमलता से पेरकप सोमरस, (सृजामि सोम्यं मधु)।E. Surge, surf, surface, shirk, shrink,
सर्ग (ऋ.) सर्गप्रतक्त - प्रखर वेग से गतिमान (अत्यो न अज्मन् त्सर्ग प्रतक्त:)।
सर्गतक्त - गमनाय प्रवृत्त:( न वर्तवे प्रसव: सर्गतक्त) ।
सर्तवे (ऋ.) - मुक्त प्रवाह के लिए (अपो यह्वी: असृजत् सर्तवा ऊ ) ।
सर्पतु - (ऋ.) प्रसर्पतु, अभिगच्छतु (प्र सोम इन्द्र सर्पतु )।
अतिसर्पति - (ऋ.) घुन की तरह प्रवेश कर जाता है (यत् वम्रो अतिसर्पति) ।
सृप्र - क्षिप्र (सृप्रदानू ); सृप्रवन्धुर - झटपट जुत जाने वाला पशु ।
कौरवी प्रभाव में सर > स्र
स्रवति - बहता है, फैलता है
सर्ज > सृज् बन जाता है जिसके बाद सृजन
सर्जना सिरजने के आशय में प्रयुक्त होकर नई शब्दावली का जनन करता है। ऋ. में भी सृजाति प्रयोग सृजति के आशय में देखने में आता है ।
स्रग - माला
सर्व - समस्त; सब, (तु. सं/ शं - जल > समस्त; समग्र; अर -जल, अरं - सुन्दर, पर्याप्त > E. All; कु - जल > कुल - सकल; अप/ आप - जल > परिआप्त > पर्याप्त आदि )।
शीर्ण - गला हुआ
त्सर (वै) - क्षर (अभित्सरन्ति धेनुभि:; मध्व: क्षरन्ति धीतय:)।
वर्ण विपर्यय रस जिसके साथ भी पानी, गति,
रस -पानी, द्रव, फल का जूस, शीरा (रसगुल्ला, रसमलाई)
रस - आनन्द
रस - कोई भी स्वाद, षट् रस
रस - औषधीय विपाक , २. रसायन, ३. रसोई,
रस - भावानुभूति के रूप, काव्य के नव रस
रसना -
रसा - धरती, दुर्लंघ्य नदी
सरसा - बाधक धारा, कल्पित नदी
रसिक - काव्य मर्मज्ञ, सहृदय
रास - समूह नृत्य, E. Race, rash, rush, ross,
रास - लगाम
रश्मि - किरण
रश्मि -बागडोर, रसरी, रस्सी/ रस्सा
रेसा, रेशम,
रस्म - चलन
रसति - चलता है;
रंहति, रंहा - नदी नाम
रास्ता - जिस पर चला जाता है
राह, राही, राहगीर, रहजन, राहजनी
रिस - हिंसा, ऋ. रिशाद - हिंसकों का भक्षक, अग्नि
रिस / रीसि > रुष्टता, क्रोध
रिष्ट-ऋष्टि,
रिसना - चूना, बहना
रुश् -लाल, रोशनी, रोशनाई (rose, ruse,
रोष- गुस्सा
इस समस्त शब्दभंडार का आशय मात्र जल के प्रवाह से उत्पन्न हाद से विदिध भाषाई समुदायों द्वारा अनुश्रवण और उच्चारण तथा जल की विभिन्न विशेषताओं के माध्यम से इस तरह समझा जा सकता है कि शब्दार्थ स्पन्दित हो जाय, अर्थ अनुभव की प्रतीति कराएँ जब कि धातुओं के माध्यम से समझने पर थकान पैदा हो और इतनी धीतुओं का कहारा लेने पर भी संदेह बना रह जाए:
35. श्रथि शैथिल्ये (भ्वादिगण)
83. स्रकि- (भ्वादिगण)
84. श्रकि- (भ्वादिगण)
85. ष्लकि गतौ (भ्वादिगण)
151. श्रगि --- गत्यर्था (भ्वादिगण)
935. सृ गतौ (भ्वादिगण)
983. सृप्लृ गतौ (भ्वादिगण)
1099. सृ गतौ (भ्वादिगण)
1178. सृज विसर्गे (दिवादिगण)
1414. सृज विसर्गे (तुदादिगण)
1419. रुष -(तुदादिगण)
1420. रिष् हिंसायाम् (तुदादिगण)
1670. रुष रोषे। रुट इत्येके (चुरादिगण)
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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