Saturday, 9 January 2021

शब्दवेध (60) उच्छ्रयस्व महते सौभगाय

अत की चर्चा की और उसमें आत्म, आत्मा को ही जगह देने का ध्यान न रहा।  इसका परमात्मा और अध्यात्म से संबंध तो है ही, सोचने, जीने और जीवट से भी इतना गहरा संबंध है, जिसकी पहले कल्पना न करता था। ‘जल में कुंभ, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी, फूटि कुंभ जल जलहिं समाना यह तत कहो गियानी’, ब्रह्ममय या परमात्ममय जगत में रहते हुए, कायाबद्ध होने के कारण, उससे अलग प्रतीत होने की अवधारणा,  बूँद के समुद्र में विलीन होने की अवधारणा, आत्म के ब्रह्म से अभिन्न होने और मरने पर उसी में मिल जाने का विचार, ’खुदा था होने से पहले न होता तो खुदा होता’, ‘एक बूँद सहसा उछली’ (और जीव बन गई), ये सभी एक ही मनोभाव काे दुहराने वाली इबारतें हैं।  मृत्यु से भयभीत होने की जगह सदगति को प्राप्त करने का विश्वास इसी से आता है और इसी से प्रेरित राजपूत प्राणेत्सर्ग को ब्रह्म के दूसरे प्रतिरूप (जल के स्थान पर अग्नि/सूर्य/सूर्य लोक/ ) स्वर्ग में विलीन होने का पर्याय मानते रहे। सब कुछ एक दूसरे से और हमारी जातीय मनोरचना के इस तरह जुड़ा है और फिर भी मुझे इसका ध्यान नहीं आया। यह है हमारे लेखन की सीमा, इसका अधूरापन। जो कथ्य है उसका क्षुद्र अंश ही प्रकट हो पाता है मेरे लेखन में। जहाँ मेरी पोस्ट खत्म होती है वहाँ से उस मशाल को लेकर आगे और उससे आगे रिले दौड़ आरंभ हो तो यह सचमुच एक ऐसी महादौड़ और महाक्रीड़ा का रूप ले सकता है जो हमारे खोए हुए मनोबल  के पुनरुद्धार में सहायक हो सकता है और उस औपनिवेशिक कूपमंडूकता से बाहर निकलने को संभव बना सकता है जिसमें हमें डाल दिया गया। 

आप अपना बचाव करने के लिए पाश्चात्य शिक्षापद्धति, मनीषा और विश्वदृष्टि और कुछ हद तक धर्म दृष्टि (के जिसमें सेकुलरिज्म की उनकी समझ भी आती है) की श्रेष्ठता के कायल लोगों काे दोष देकर अपनी ग्लानि कम कर सकते हैं, परन्तु उनकी दशा फिर भी आप से, जो भारतीयता को धर्मप्रियता, धर्म को वर्णव्यवस्था और वर्णव्यवस्था को जातिवाद मानते हैं, यहाँ तक कि मुस्लिम, ईसाई और वामपंथी सोच से घृणा को राष्ट्रवादी नवोनमेष मानते हैं, आप का  हीनताबोध उनसे भी प्रबल है। आप आगे नहीं बढ़े हैं, मध्यकालीन संकटबोध में वापस लौट गए हैं या शायद उससे भी बुरी स्थिति में पहुँच गए हैं। संकटबोध से ग्रस्त व्यक्ति परिरक्षणवादी हो जाता है।  वह अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल नहीं कर पाता, जितनी करता है नकारात्मक दिशा में करता है, जिनसे संकट अनुभव करता या घृणा करता है उनका सामना करने के लिए उन्हीं के तरीके अपनाता है, पर इस विषय में सावधान तक नहीं रह पाता कि वह उनका अनुगमन कर रहा है, उनका अनुचर बनता जा रहा है। यदि कोई गोरा आदमी - उसका बौद्धिक  स्तर और भीतरी इरादा कुछ भी क्यों न हो -  हिंदुत्व के प्रति तनिक भी सदाशयता दिखाए तो विभोर हो कर उसे सनद की तरह पेश करते हैं। भक्ति भावना का वह रूप, मन्दिरवाद का वह रूप, चेतना का वह रूप जिसके प्रति इधर आकर्षण बढ़ा है वह मध्यकाल से पहले न था। 

मध्यकाल से पहले यदि व्यक्ति नामों पर विचार किया जाय तो वे उस तरह देवपरक नहीं होते थे, जिस तरह मुस्लिम प्रभाव में मुसलमानों से भी अधिक उत्साह से रखे जाने लगे। मंदिर/मठ दो तरह के थे। एक व्यापारिक यात्रापथों पर जो मुख्यतः व्यापारियों के पड़ाव, बैंक और मनोरंजन का केंद्र हुआ करते थे और जिनके वैभव का पता लुटेरों की लूट के बाद चलता था। इस वैभव के कारण  ही जन साधारण के लिए धार्मिक से अधिक दर्शनीय स्थल हुआ करते थे पर गहन आस्था के केन्द्र न थे। दूसरे वे जो किसी न किसी रूप में लगभग प्रत्येक गाँव में थे।  तमिल की एक कहावत है, कोविल इल्लात ऊरुमिल्लै - ऐसा कोई गांव नहीं जहाँ मन्दिर न हो। इसका कारण था। मंदिर सांस्कृतिक केन्द्र थे। वे शिक्षा के, सामाजिक समारोहों के, न्याय विचार के केन्द्र थे। मंदिरों को ध्वस्त करने वालों ने पूरे सांस्कृतिक तानबाने को नष्ट किया था। उन्हें पूजा पद्धति से अधिक आपत्ति शिक्षा-पद्धति से थी। आज केवल पूजा पद्धति वाले मन्दिरवाद और देववाद के प्रति उत्साह दिखाई देता है और अन्तश्चेतना में हो या विचारों में व्यक्त हो, तुलना उनसे होती है जिनको आप उन्हीं अंधविश्वासों के कारण गर्हित मानते है।
हमारा लक्ष्य यह नहीं है कि हमें आसन्न संकटों  से असावधान करें या उनके निवारण का उपाय करने की सलाह दें। मन्तव्य केवल यह है कि ऐसा उनका अनुकरण करके नहीं, अपने रास्ते पर चलकर किया जा सकता है।  ईसाइयत का कारोबार  जो संकट बन कर आया और जो विदेशी पैसे के बल पर ऐयाशी का तंत्र खड़ा कर चुका है और एक और तो हिंदू समाज के पिछड़े और अभावग्रस्त तबकों को  हिंदू समाज से अलग करने के लिए हिंदू मूल्य व्यवस्था को गर्हित सिद्ध करने के लिए सभी स्तरों के हिंदू बुद्धिजीवियों का इस्तेमाल कर लेता है और दूसरी और उस पाखंंड- तिलक-छापा, मंत्र, टोने, देवमूर्तियों का सहारा लेता है। उसने  हिंदू देवों के बाने में ईसा, मरियम सभी को पेश करते हुए धोखाधड़ी को ईसाइयत का पर्याय बना दिया है उसका सार्वजनिक प्रचार और  वि्देशी चंदे पर रोक ही उसको और उसके हिमायतियों को कागजी कुत्तों का जत्था सिद्ध करने के लिए काफी है। इसकी समझ और इस दिशा में प्रयत्न का हमें ज्ञान नहीं, पर बड़बोलों ने इस दिशा में कितना काम किया है यह वे ही जानें, हम केवल यह जानते हैं कि अपनी विचार-वीथी में भौंकने से अधिक कुछ किया भी हो तो वह नगण्य है।

कोरोना काल संकट में तबलीगी जमात के कारनामे - थूकने, पेशाब फेंकने, नर्सों के साथ अश्लील हरकते, संगसारी  जिनमें उनके धर्मगुरु भी साथ खड़े रहे हैं, उनका बड़े पैमाने पर प्रचार ही स्वयं संवेदनशील मुसलमानों को इस्लाम से विमुख करने और इसे गर्हित सिद्ध करने का सबसे कारगर हथियार है।  

कहें जिसे संकट मान कर  असुरक्षा की भावना से कातर हैं उसे सही समझ से आनन फानन में दूर किया जा सकता है।  

असली संकट, बड़ी चुनौतियों का सामना करने से कतराना है, आरामतलबी और दोजबानी है।  सबसे बड़ी विफलता  उस अवसर का लाभ उठाने से वंचित रहना है जिससे भारत सचमुच विश्व शक्ति बन सकता है। महिमा विश्व की सबसे दुर्लभ चीज है और उसे माँग कर, चुराकर, बल प्रयोग से हासिल नहीं किया जा सकता । उसका मोल चुकाना होता है और वह मोल है पसीना।  संकल्प और अध्यवसाय। असली संकट इसके अभाव से पैदा होता है जो वाम-दक्षिण सभी में, सभी मतों में, सभी सामाजिक आर्थिक स्तरों पर व्याप्त ‘राष्ट्रधर्म’ का रूप ले चुका है। पश्चिम ने धर्मयुद्धों में मिली मात से शिक्षा लेकर इसे पूरे संकल्प के साथ अर्जित किया यद्यपि इसके लिए बुद्धि से अधिक धोखाधड़ी से काम लिया। हम माँग कर पाना और उसके बराबर होना.यहाँ तक कि उससे आगे बढ़ना चाहते हैं। ऐसे दिवास्वप्न अहंकार प्रदर्शन और बड़बोलेपन  को आत्मगौरव का पर्याय बनाने में व्यक्त होते हैं। ये क्रांति की जगह उपद्रव का रूप ले लेते  हैं। 
अध्यवसाय दुनिया का सबसे क्रांतिकारी काम है। अध्यवसायी समाज भीतर से इतना मजबूत होता है कि उसे पाँव रखने को जगह मिल जाय तो वह पूरी धरती को अपनी उँगलियों पर उठा सकता है। उसे किसी से डर नहीं लगता। सही राष्ट्रवाद ईमानदारी और अध्यवसाय का संक्षिप्त नाम है।

इसरो ने दिखा दिया है कि हम दूसरों से अच्छा कर सकते हैं और दूसरों को रास्ता दिखा सकते हैं। यदि यह राष्ट्रव्यापी रूप ले सके को आज अपनी बात दुनिया तक पहुँचाने के लिए हमें जिनकी भाषा सीखनी पड़ती है उन्हें यह जानने के लिए कि हम क्या सोचते और जानते हैं  हमारी भाषाएँ सीखनी होंगी। आज वे जानते हैं हमारे शिक्षित समाज के पास कुछ है ही नहीं, वह उनके ज्ञान को हासिल करने की कोशिश में है, इसलिए जिसे वह अपना मौलिक बताता है वह भी उनका उच्छिष्ट है। यदि इस देश में सचमुच कुछ जानने योग्य है तो वह उन कोनों में है जिन तक उनकी शिक्षा नहीं पहुँच पाई है और उसे हासिल करने के लिए वे उन तक पहुँचने के प्रयत्न में रहते हैं।  उनकी बोलियाँ सीखते हैं। इसी तर्क से उन्हें तब मॉनीटर के तेवर से नहीं अन्तेवासी भाव से आप तक पहुँचना होगा।

ज्ञान के क्षेत्र में, और विज्ञान के क्षेत्र में भी, भारत में अपार संभावनाएँ हैं जिसके सामने पश्चिम को बहुत कम समय में  बौना  सिद्ध किया जा सकता है।  कारण यह है कि मानविकी से संबंधित पश्चिम का समस्त ज्ञान वर्चस्व की स्थापना से प्रेरित और ग्रस्त रहा है इसलिए चौंध पैदा करने वाले आडंबर के होते हुए भी कुटिलतापूर्ण और अन्तर्विरोधों से ग्रस्त रहा है। इसी तरह उनका विज्ञान भी पूँजीवादी लोभ और धौंस जमाने के आग्रहों से प्रेरित रहा। हमारे अपने शास्त्रीय ज्ञान से भी यही शिकायत की जा सकती है।  वस्तुपरक निस्पृहता से किया गया काम उनके महारथियों को धूल चटा सकता है पर तभी जब ऐसा काम बड़े पैमाने पर भारतीय भाषाओं में हो, क्योंकि उसी दशा में यह उनके मनोवैज्ञानिक महाजाल  और खुले प्रलोभनों और दबावों से मुक्त रह सकता है।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )


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