इष
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उपनिषद का वाक्य है, अन्न ही ब्रह्म है। यह किसी एक व्यक्ति की सूझ नहीं, एक दीर्घ परंपरा से अर्जित अनुभव और ज्ञान है जिसे पहले से अलग अलग मुहावरों में दुहराया जाता रहा है । इष जल। इष अन्न। इष इच्छा, एषणा। इस इच्छा या एषणा की पूर्ति के लिए किया जाना बजाने वाला आयोजन इष्टि या यज्ञ है। यह अन्न और धन के लिए भी हो सकता है, भूमि विस्तार के लिए भी हो सकता है, राज्य विस्तार (राजसूय) के लिए भी हो सकता है। हम जानते है बीती चार शताब्दियों के दौरान पूरा यूरोप राजसूय यज्ञ में लगा रहा। यह यज्ञ विविध रूपों में आज भी चल रहा है और एक ओर अपार शक्ति और समृद्धि का संचय हो रहा है तो दूसरी ओर शेष मानवता के लिए संकट का कारण भी बन रहा है। फिर भी यह सतत चलने वाला, अनन्त रूपों में चलने वाला यज्ञ है। यहाँ हम कर्मयज्ञ की बात कर रहे हैं, उसकी मखौल कर्मकांडी यज्ञ की नहीं। इसका बोध सदा रहा है, प्रस्तुति का रूप अवश्य भिन्न हो सकता है:
यो यज्ञो विश्वत: तन्तुभिः तत एकशतं देवकर्मेभिः आयतः ।
इमे वयन्ति पितरो य आययुः प्र वय अप वय इति आसते तते ।। 10.130.1
पुमाँ एनं तनुत उत्कृणत्ति पुमान्वि तत्ने अधि नाके अस्मिन् ।...10.130.2
(इस यज्ञ के तार सर्वत्र फैले हुए हैं, सैकड़ों देव-(देवों ने ही कृषि का आरंभ किया था) या श्रेष्ठ कर्मो के रूप में विस्तीर्ण है। इस महायज्ञ के वितान और बुनाई में हमारे अमर पितर भी (प्रेरक के रूप में) सहयोगी हैं, वे कहते हैं इस ताने को भरने के लिए धागे को आगे की ओर ले आओ, पीछे को ले जाओ। पुरुषार्थी व्यक्ति ही इन्हे तानता और उधारता और स्वर्गोपम अवस्था को पहुँच जाता है….।
इसका विस्तार मंत्र पाठ से नहीं, पुरुषार्थ से होता है। यह यज्ञ अनवरत चलता रहा, परन्तु इसका संपादन करने वालों को यज्ञ (कर्म) को कर्मकांड बनाने वालों ने यश, धन और सम्मान से वंचित करके यज्ञ ध्वंस का आयोजन स्वयं किया, जिसकी सीमाओं को समझने और पिछली गलतियों को सुधारने का समय आ गया।
कर्मकांड वाले यज्ञ के पुरोधा प्रचारशक्ति के बल पर निरर्थक प्रपंच करते हुए हमारी जातीय चेता में इस तरह उतार चुके हैं कि हम यज्ञ के इसी रूप से परिचित हो पाते हैं।
पुरुषार्थ के यज्ञ से पहले ईश या स्वामिवर्ग पैदा होता है जो संपदा पर अधिकार और शक्ति विस्तार करते हुए अधिकाधिक समृद्ध होता है। उत्पादन निर्विघ्न चले इसके लिए खेती को क्षति पहुंचाने वाले हिंस्र पशुओं और कृषिद्रोही वनचरों के आक्रमण से रक्षा के लिए, साहसी, युवा दस्ता तैयार होता है और कुछ समय के बाद वृद्ध और बीमार लोगों और कम उम्र के बच्चों को श्रम से मुक्ति मिल जाती है और इस तरह समाज का इन वर्गों में आंतरिक विभाजन होता है - तिस्रः प्रजा आर्या ज्योतिरग्रा। कहें वर्ण व्यवस्था का आरंभ भी कृषि यज्ञ से होता है। इसी से ईश्वर पैदा होता है। ब्रह्म पैदा होता है। श्रमविरत ब्राह्मण पैदा होता है, ब्रह्मा की अवधारणा पैदा होती है। इसके जुझारू वर्ण के प्रतिनिधि के रूप में विष्णु की उद्भावना होती है और प्रतिरोधी और प्रलयंकारी रुद्र का चरित्र विकसित होता है।
पुरुषार्थ से ही भौतिक उत्थान और उससे आत्मिक और आध्यात्मिक उत्थान संभव होता है। इनमें विरोध नहीं है, सहयोग है। पुरुषार्थ और कर्मठता से शून्य व्यक्ति, समुदाय और समाज पाखंडी हो सकता है पर आध्यात्मिक नहीं। भारत कृषि प्रधान देश है, अध्यात्मवादी देश है, यह औपनिवेशिक षड्यन्त्र और प्रचारतंत्र की देन है जो पाखंड (पूजा, मंदिर, चढ़ावा) को श्रेष्ठता का मानदंड बनाने वालों को रास आता था, इसलिए पिछले दो तीन सौ साल के भीतर हमारी मानसिकता का हिस्सा बन गया, अन्यथा, यह उद्योग में भी इतना आगे था कि ब्रिटेन के कारखाने का उत्पाद भी प्रतिस्पर्धा में इसके सामने टिक नहीं पाता था, इसलिए भारतीय उद्योगों को क्रूरता पूर्वक बन्द कराकर इसे कृषि प्रधान बनने को बाध्य किया गया और इन काम धंधों से जुड़े लोगों, आज के दलितों को दलित बनने को बाध्य ही नहीं किया गया उनका उद्धारक बनने का ऐसा स्वांग रचा गया जिसका जादू आज तक नहीं टूटा है।
इस इष - इच्छा से जो लुप्त है या खो गया है, उसकी खोज- अन्वेषण, गवेषणा/ गविष्टि आरंभ होती है। इसी से हमारे ज्ञान का विस्तार होता है, विज्ञान का विकास होता है, नए मूल्यों और व्यवस्थाओं की खोज आरंभ होती है और अधिक से अधिक पाने और उस पर अधिकार जमाने की लालसा पैदा होती है, ऐश्वर्य की भूख पैदा होती। जो इसे नहीं समझता वह भौतिक प्रगति का विरोधी और धूर्तता से भौतिक संपदा के अर्जन के लिए प्रयत्नशील होता है, अध्यात्म आधिभौतिक की देन है और भौतिक समृद्धि से पैदा हुआ है जैसे विज्ञान। बाहर की खोज ने ही अपने भीतर की खोज का भी रूप लिया, परंतु जो लोग अध्यात्म और कर्मकांड, युक्ति और धूर्तता में फर्क नहीं कर पाते, वे अकिंचनता को अध्यात्म बना देते हैं और भौतिक तथा आध्यात्मिक के बीच में एक नकली विरोध पैदा करते हैं। जब कोई कहता है भारतीय परंपरा अध्यात्मवादी है, भौतिकवादी नहीं वह अपनी परंपरा को भी नहीं जानता और वर्तमान समस्याओं की समझ भी नहीं रखता।
“Those who have seen the unspeakable poverty and physiological weakness of the Hindus to-day will hardly believe that it was the wealth of eighteenth century India which attracted commercial pirates of England and France. This wealth, says Sunderland, was created by the Hindus’ wast and varied industries
“ Nearly every kind of Manufacture or product known to the civilized world, Nearly every kind of creation of man’s brain and hand, existing anywhere, prized either for its utility or beauty, had been produced long long been produced in India. India was or greater Industrial and manufacturing nation then any in Europe or than any other in Asia…..”
(Will Durant, The Case for India, Mumbai, 2007, p. 7).
भारत यदि आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत उन्नत था तो इसलिए कि वह औद्योगिक और व्यावसायिक दृष्टि से भी विश्व का सबसे अग्रणी देश था। पूंजीवादी अमानुषिकता को दरकिनार कर दें तो आज का पश्चिमी समाज भौतिक दृष्टि से ही भारतीय समाज से अधिक समृद्ध नहीं है आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी बहुत उन्नत है और इसी अनुपात में वह धार्मिक पाखंड से भी अधिक मुक्त हुआ है।
कर्मकांडी यज्ञ का चरित्र उस ऋत और आचार के विपरीत जिससे भारत ने सभ्यता का आरंभ किया था। वैदिक कवियों में कुछ को इसकी चेतना है -
यज्ञं पृच्छामि अवमं स तद् दूतो विवोचति ।
क्व ऋतं पूर्व्यं गतं कस्तद् बिभर्ति नूतनो वित्तं मे अस्य रोदसी ।। 1.105.4
प्राचीन यज्ञ, प्राचीन विधान से च्युत हो जाने पर यह नया यज्ञ टिका किस पर है यह पता नहीं चलता। यज्ञ चल रहा है, उसका संपादन वे कर रहे हैं जिनका गुणगान तो आश्चर्य मिश्रित श्रद्धा से किया जाता है, जिन्हें दक्षक्रतु माना भी जाता है, कवि उन जैसा कौशल कविता में कर दिखाना चाहते हैं, ऐसा करने पर गर्व करते हैं, परन्तु उनको अपनी समकक्षता पर नहीं रखना चाहते हैं, जब कि उनके पास इष्टि के नाम पर पुत्रेष्टि और अंत्येष्टि और भयदोहन बच रहा है।
जो भी हो इष्टि और एषणा का वह पुराना रूप जो दृष्टि को प्रखर बनाता है, ज्ञान, विज्ञान, अनुसंधान, उद्योग, व्यवसाय, उत्पादन और समृद्धि का मूल मंत्र है,और ऐश्वर्य को संभव बनाता है, जिसकी दबी छिपी समझ हमारी परंपरा में लगातार बनी रही है उसे पहचानना और उसके लिए समर्पित होना परंपरा की रक्षा और समय की माँग तो है ही हिंदू समाज पर पर मड़रा रहे संकट के निवारण के लिए भी जरूरी है। पहले प्रचारतंत्र ब्राह्मण के हाथ में था, आज समीकरण बदल गए हैं और देशज स्वार्थ का टकराव अंतर-राष्ट्रीय स्वार्थों के शक्तिशाली गठजोड़ से हैं। कुछ कटु सचाइयाँ संकटकाल में ही समझ में आती हैं और यदि तब भी समझ में न आए तो इतिहास अपने फैसले अमल में लाता है।
इष का ऐशानी दिशा के नामकरण में हाथ है, अरबी के ऐश और ऐयाशी में भी हाथ है क्योंकि इनका रूप परिवर्तन अरबी नियम से नहीं है और अरबी में संस्कृत के बहुत से शब्द पहुँचे हुए हैं जिनका अपना इतिहास है। अं. आइस, ईस्ट, विश का इष से संबंध दिखाई देता है, पर सबसे राेचक है इसका भविष्यत (भू-इष्यत/ इष्यति) का सूचक बनना। इसे समझने में अंग्रेजी की सहायक क्रिया ‘विल’ चाहना सहायक हो सकती है। भावी काम हम कर नहीं रहे होते है, करना चाहते हैं और इष्यति/ इच्छति इसी को प्रकट करता है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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