माटी/मृदा
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पहला सवाल तो यह कि माटी और मृदा में कौन किससे निकला। मैं भदेस कहे जाने वाले शब्दों को तत्सम प्रतिरूपों का जनक मानता हूँ जैसे वनचर मानुस को सभ्य मनुष्य का जनक। इसे बहाने से दुहराना इसलिए पड़ता है कि हमारी चेतना में यह बात बहुत गहराई में उतार दी गई है कि बोलियाँ संस्कृत के स्खलन से पैदा हुई हैं। इसके पीछे एक सोची समझी चाल थी जो भारतीय ब्राह्मणों के मिथ्या श्रेष्ठताबोध से मेल खाती थी। सही समझ और मनुष्य को मानवीय बनाने के रास्ते में वर्णवाद, नस्लवाद और वर्चस्ववाद सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। ये सामाजिक समस्याओं की वैज्ञानिक समझ को भी असंभव बनाती हैं। जैसे किसी व्याधि से मुक्त होने की चिंता सबसे पहले बीमार को करनी चाहिए, उसी तरह इनसे मुक्त होने का प्रयत्न इनसे ग्रस्त लोगों को करनी चाहिए। होता उल्टा है क्योंकि ये कुटेव या नशे की लत की तरह हैे।
माटी में वही भाव है जो माता में होता है जो मृदुता मे है। है तो यह एक वाग्विलास ही पर संभव है इसमें सचाई भी हो।
माटी के साथ दो शब्द अनायास याद आते हैं, 1. अं. मड और, 2. मटका, मटकी, मेटा, मेटिया। दूसरे वर्ग के शब्दों के विषय में पहले यह सोच कर रुक जाता था कि इनका नामकरण इस आधार पर किया गया लगता है कि ये मिट्टी के बने हैं- पत्ते का बना पत्तल, काठ की बनी कठौत, इसलिए मिट्टी का बना मटका/मेटा। परन्तु इसके साथ ही याद आता है कि पानी रखने के मिट्टी के दूसरे पात्रों का नामकरण जल पर आधारित है - कल - जल >कलश, गं/गंग - पानी > गगरी, गगरा, गंगाल। ऐसी स्थिति में इस बात का पता लगाया जाना चाहिए कि कहीं इसका भी अर्थ जलपात्र तो नहीं। मेटा, मीठा, मीड, मीट, मेडु> मृदु, मेदु, मधु, मध, मद, मत, मट का सजात है और एक ही अर्थ-संकुल से जुड़ा है। इन सभी का मूल अर्थ जल है जो रस, मधुर, खाद्य आदि के लिए प्रयोग में आया। अर्थविस्तार अन्य दिशाओ में भी हुआ इसे मत>मंत - युक्त, मेट>मेठ> मठ - शीर्ष, सबसे बड़ा से समझा जा सकता है।
अंग्रेजी में मीड ( mead - honey and water fermented and flavoured), मधु; मेलो (mellow - soft) मृदुल; मैट/ मैट्रिक्स (mat, matrix, matron, L. matrona- , mater -mother) मातृ, और मैड (mad, from Old English gemædde "out of one's mind" (usually implying also violent excitement), also "foolish, extremely stupid," earlier gemæded "rendered insane,") मद/ मत्त और मड (mud-a wet soft earth), मृदा एक ही संकुल में आते है। हम इसके साथ मैटर (matter, that which occupies space, that out of which anything is made.), माटी और मैटीरियल (material) को भी रखना चाहेंगे, पर सीधा सूत्र उपलब्ध नहीं है।
शतपथ में एक कथा है जो प्रेरित तो नासदीय सूक्त से लगती है, पर है नयापन लिए। इसके अनुसार सबसे पहले तो प्रजापति ही था। उसके जी में आया, वह आत्मवृद्धि करे। इसके लिए उसने श्रम और तप किया और जब थक कर निढाल हो गया तो उससे जल पैदा हुआ। फिर जलों को यह चिंता हुई कि वे टिकें तो टिकें कहाँ। अब उन्होंने भी श्रम और तप किया और जब थक कर निढाल हो गए तो उनसे फेन पैदा हुआ। फिर फेन ने सोचा हमारा ठिकाना कहाँ है। उत्तर मिला श्रम और तप करो। उसने श्रम और तप किया और जब थक कर निढाल हो गया तो उससे मृदा पैदा हुई। फिर इसी प्रक्रिया से मृदा से सिकता और सिकता से शर्करा और शर्करा के अश्म, अश्म से अयस और अयस से हिरण्य उत्पन्न हुआ। हमारे लिए इसमें काम की सूचना यही रह जाती है कि इस विधान में भी माटी जल से ही उत्पन्न मानी गई है यद्यपि इसमें नामकरण की समस्या पर प्रकाश नहीं पड़ता।[1]
[1] प्रजापतिः वा इदं अग्र आसात् ।एक एव सः अकामयत स्यां प्रजाय इयेति। सो अश्राम्यत् स तपो अतप्यत। तस्मात श्रान्तात् तेपानात् आपो असृज्यन्त, तस्मात् पुरुषात् तप्तात् आपो जायन्ते।1। आपो अब्रुवन् । क्व वयं भवाम इति। तप्यध्वं इति अब्रवीत् । ता अतप्यन्त । ता फेनं असृजन्त, तस्मात अपां तप्तानां फेनो जायते। फेनो क्व अहं भवान इति। तप्यस्व इति अब्रवीत् सो अतप्यत स म़दं असृजत एतद् वै फेनः तप्यते यत् अप्सु आवेष्टमानः प्लवते स यत उपहन्यते मृदा एव भवति।… सा अतप्यत सा सिकता अभवत….सिकताभ्यः शर्करां असृजत् ...शर्कराया अशमानं...अश्मनो यो धमति असो हिरण्यं…शतपथ ब्रा. 6.1.3-5.
सिकता
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सिकता के आदि में आए सिच् /सिक् - जल, सिक्त-सराबोर, सेक/सिच/ सिंच - भिगोना, पर ध्यान दें तो संदेह न रहेगा कि इसे यह संज्ञा जल की ध्वनि से मिली है।
बालू
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बालू की संज्ञा कुछ पेचीदी है। पाल् - जल (पाला - तुषार) त.और ते. ( पाल्, पालु) दूध के लिए प्रयोग में आता है जो पय-जल >दूध को देखते स्वाभाविक है । इसके प्रभाव से पल/पाल बल/बाल नए आशय के साथ प्रकट हुए। ०बाल - दूध, बाल/ बालक- दूध पीता बच्चा और पालन में पाल-दूध पिला कर पोषण करना। बालू पाल पानी/ दूध के उसी तर्क से यह बालू की संज्ञा पा सका।
रेत
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रेत का तो अर्थ ही जल है, और यह उसी रित>ऋत का सजात है जिसका पुराना अर्थ पानी था। दिवो न यस्य रेतसः दुघानाः ऋ. 1.100.3 में रेतस का अर्थ करते हुए सायण लिखते हैं ‘रीयते गच्छन्तीति रेतः उदकं, परन्तु इसका अर्थ संकोच इस तरह हुआ है कि ग्रिफिथ इसके गति वाले पक्ष को भुला कर संदर्भ (मरुतों के निर्बाध वहां भी पहुँचने का जहां कोई दूसरा नहीं जा सकता) की अवहेलना करके इसका अर्थ जीनियल म्वाएस्चर (genial moisture) करते हैं। ऋ. में इस शब्द का इस आशय में भी प्रयोग हुआ है (प्रजावद् रेत आ भर), पर एकरूपता के नाम पर पाश्चात्य अध्येता इस तरह के इकहरेपन से काम लेते हैं। हमारे सीमित प्रयोजन के लिए इतना ही पर्याप्त है कि रेत शब्द भी शुष्कता से नहीं जल से ही संबंध रखता है।
रज
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रज का प्रयोग बारीक धूल और पराग कणों के लिए किया जाता है, पर जो बात रेत के विषय में सच है वही रज के विषय में भी। प्रवहमान पार्थिव रज (स तू पवस्व परि पार्थिवं रज) की ओर सामान्यतः ध्यान नहीं जाता। रज का प्रयोग ऋग्वेद में जल, दीप्ति, आकाश, सातत्य, सात्विकता, उज्वलता, गतिशीलता आदि सामान्य जल की सभी विशेषताओं के लिए हुआ है। बारीक धूल के लिए इसके प्रयोग के पीछे उक्त गुणों की भूमिका हो सकती है।
धूलि
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धूलि का प्रयोग रज की तरह अत्यंत बारीक कणों वाली उस मिट्टी के लिए होती है जिसमें बालू, सिकता, रेत और रज की तरह आसंजकता के अभाव के कारण इतना बिखराव होता है कि एक कण दूसरे के सटे पास मे होकर भी उससे सट नहीं सकता। इसके साथ ‘धुले हुए’ का बिंब उभरता है। एकमात्र जो शब्द याद आता है उसको संस्कृत में जगह न मिली । वह है धुलाई। दूसरा शब्द धवल जिसका भाव है धुला हुआ और अर्थ है श्वेत। धवन का दोलन- धुव-धुव= दोधुव बार बार हिलाने के आशय में आया है और धौती का प्रयोग नदियों के लिए हुआ है। दौड़ने के आशय में धवन ‘गिरो ब्रह्माणि नियुतो धवन्ते’ ।’ और धावन (दिवि धावमानम्, आकाश में अनवरत दौड़ते हुए।) का प्रयोग अनेक बार हुआ है। इनसे अलग कोई संकुल दिखाई नहीं देता जिससे इसे जोड़ा जा सके, इसलिए मानना होगा कि यह तोय का सघोष महाप्राण उच्चारण करने वाली बोली का शब्द है। किसी भी सूरत में जल से इसका नामकरण अलग नहीं जा पाता।
भगवान singh
( Bhagwan Singh )
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