हम कल इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते थे कि वैज्ञानिक इतिहास लिखा जाना संभव भी है और जरूरी भी, क्योंकि यही उन विकृतियों का एकमात्र उपचार है, जिससे पूरी मानवता ग्रस्त है। ऐसा इतिहास मानव सभ्यता का इतिहास ही हो सकता है, न कि प्रतापी राजाओं और देशों और जातियों के प्रताप का।
वैज्ञानिक इतिहास की बात करने वाले नहीं जानते कि वैज्ञानिक इतिहास होता क्या है। इसका जिक्र आने पर वे यह मान लेते हैं कि इतिहास के मामले में न तो वह वस्तुपरकता और तटस्थता अपनाई जा सकती है जो प्राकृत विज्ञानों में संभव है, न ही उस तरह के प्रयोग किए जा सकते है। सच तो यह है कि इतिहास स्वयं वह प्रयोगशाला है जिसमे एकल मनुष्य से लेकर मानव समुदायों के आचरण के परिणाम दर्ज हैं। इतिहास प्रक्रिया है, परिणति नही। जहाँ एक परिघटना का अन्त दिखाई देता है वहीं और उसके भीतर से ही दूसरे का आरंभ हो जाता है; जो कार्य है, वह कारण के बदल जाता है।
इसमें हस्तक्षेप संभव नहीं। हुआ तो कुछ न दीखेगा, न समझ में आएगा। आप केवल वह देखेंगे जिसे देखना चाहते हैं, मनोगत को देखने के लिए इतिहास पर नजर डालने की जरूरत नहीं। आज तक इतिहास का इसी रूप में ‘अध्ययन’ किया गया है। नतीजा सामने है, समाज विज्ञान की बात करने वाले स्वयं कहते हैं कि इतिहास विज्ञान की समकक्षता में नहीं आ सकता। यदि नहीं आ सकता तो विज्ञान मत कहो। कथा कह लो, इतिवृत्त कह लो।
इस दुहरी समझ के पीछे इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हुए, इसकी वैज्ञानिक साख का इस्तेमाल करने की चालाकी दिखाई देती है न कि इसकी वैज्ञानिकता की रक्षा की चिंता। इसका राग अलापने वालों ने इसके स्रोतों के साथ जितनी छेड़छाड़ की है उतनी मध्यकालीन मूर्ति, मंदिर, शिक्षाकेंद्रों और ग्रंथागार को नष्ट-ध्वस्त और भस्म करने वालों ने ही किया होगा।
मार्क्सवादी इतिहास को समझना नहीं, इसे अपनी योजना के अनुसार तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल करना चाहते हैं, और करते रहे हैं। इतने कम समय में उनके व्यर्थ, उत्पीड़क और मानवद्रोही हो जाने का कारण यह नासमझी ही है और यही मार्क्सवादी इतिहास लेखन में असंगतियों और अंतर्विरोधों का भी कारण है।
यह मार्क्सवादी इतिहासकारों के ही बस की बात है कि आपात काल के दौर में सोवियत संघ के इतिहासकार भारत का एक नया इतिहास लिखते हैं और आपात काल की समाप्ति के बाद उसे वापस ले लेते हैं। वे कहते रहे पूँजीवाद संकट के दौर से गुजर रहा है, भविष्य कम्यूनिज्म का है, और संकटग्रस्त कम्युनिज्म हो गया, पूँजीवाद उसकी व्यर्थता के कारण संजीवनी पा गया।
मार्क्सवादियो की सबसे बड़ी विडंबना यह कि वे मार्क्सवादी नहीं थे। मार्क्सवाद उनका चेहरा नहीं मुखौटा था, असली चेहरा फासिज्म का था जो इनकी भाषा में गाली था। यदि उन्होंने इतिहास के उपयोगितावादी अध्ययन को इतिहास का आदर्श अध्ययन माना होता तो मार्क्सवादी प्रभाव में आने के बाद, मैं स्वयं, वैज्ञानिकता का उपहास करते हुए, ऐसे अध्ययन का कायल हो चुका होता, और इतिहास में वैज्ञानिकता की माँग को अकादमिक पाखंड मानते हुए इसका उपहास करता और उन निष्कर्षों पर नहीं पहुँचता जिनसे मार्क्सवादियों से मेरा मोहभंग हो गया। मेरा मोहभंग उन्हें उन्हीं की कसौटी पर गलत सिद्ध होने से हुआ।
अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए उन्होंने न केवल विचार को नष्ट किया, अपितु विचार के माध्यम, भाषा को, निर्णायक महत्व के शब्दों का अर्थ उलट कर नष्ट कर दिया और आज का साहित्यकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी अपने ही समाज के समक्ष बे-आवाज भौचक खड़ा है ताे इसके अपराधी वे हैं। यदि ज्ञान और कर्म के क्षेत्र में कतिपय अपवादों को छोड़कर कोई अपना काम नही कर रहा है तो इसकी शिक्षा उन्होंने दी, सब कुछ छोड़ कर राजनीति करो और वह भी गंभीर राजनीतिक विमर्श न बन कर सतही सत्ताबुभुक्षु राजनीति ही बनी रहे।
यह कितनी शर्मनाक बात है कि जिस सोवियत संघ के इशारे पर भारतीय कम्युनिस्ट अपना रुख बदलते रहते थे, उसकी नजर में वे उपयोगी मूर्ख थे। यह मेरा आरोप नहीं बल्कि केजीबी के एक एजेंट के इंटरव्यू का अंश है :
In an interview with G. Edward Griffin in 1984, former KGB informant Yuri Bezmenov had exposed the insidious operations of the Soviet Union and how the Communist apparatus viciously overtakes the conscience of a country.
He began his interview by revealing that people who towed the Soviet foreign policy, in their home country, were elevated to positions of power through media and manipulation of public opinion. However, those who refused to do so were either subjected to character assassination or killed.Recounting his time in India, the KGB informant revealed how he was shocked to discover the list of known pro-soviet journalists in India who were doomed to die. He said that even though those journalists were idealistically leftists, yet the KGB wanted them dead as ‘they knew too much’. Benzmenov emphasised, “Once the useful idiots (leftists), who idealistically believe in the beauty of Soviet socialism or Communism, get disillusioned, they become the worst enemies.”
The former KGB informant reiterated there are no grassroots revolutions but one engineered by a professional, organised group. He revealed that the Awami League party leaders were trained in Moscow, Crimea, and Tashkent.
तथाकथित मार्क्सवादियों के भारतीय जनक कोसंंबी माने जाते हैं और उनकी अपनी इतिहास दृष्टि के जनक ई.एच. कार हैं जिनके What is History को विस्तार से उद्धृत करते हुए वह अपना What is History लिखते हैं । कार आजीवन एक कूटनीतिविद रहे, कई देशों में ब्रिटेन के राजदूत रहे। उनकी इतिहासदार्शनिक के रूप में ख्याति Clash of Civilizations के लेखक हंटिंगटन के समकक्ष ही ठहरती है। उतने ही झटके से दोनों लोगों की नजर में चढ़े थे।
कार की समझ से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के चिंतक (The Twenty Year's Crisis, July 1939) दो तरह के होते हैं एक यथार्थवादी (realists) और दूसरे खयाली utopians. यदि हम कहें नेहरू दूसरी कोटि के चिंतक थे तो भारतीय मार्क्सवादी बुरा मान जाएँगे क्योंकि वे नेहरू से हर मामले में मीलों आगे थे। भारतीय मार्क्सवादी इतिहास वैज्ञानिक हो ही नहीं सकता था। उसी में कालपत्र लिखा जा सकता था, उसी में इतिहास की एक संस्था का कई बार प्रधान बनने और मनचाहा इतिहास लिखवाने के लिए संस्था का धन और मान अर्थलोलुप इतिहासकारों के हवाले करने के बल पर एक व्यक्ति इतिहास का निर्माता हो सकता था ( The Making of History: Essays Presented to Irfan Habib) और उसी के सारे इतहासकार जुट मिल कर एक अदना जिज्ञासु के सवालों के सामने ढेर हो सकते थे।
विज्ञान की ही नहीं वैज्ञानिक इतिहासबोध का भी सबसे पुराना परिचय बुद्ध में ही मिलता है, एक तो कालामों के बीच सत्यज्ञान का परिचय देते देते हुए राग और दबाव के सभी रूपों से मुक्त हो कर उभय कल्याणकारी निष्कर्ष पर पहुँचने का उपाय बताते हैं और दूसरा गणसंघ की एकता में दरार आए बिना उनके अजेय होने की बात करते हैं। उपयोग करने वालों ने तो उनका भी उसी तरह उपयोग कर लिया जैसे उनके समय से ढाई हजार साल बाद पैदा होने वाले आइंस्टाइन का।
मैं अपना दुश्मन स्वयं हूँ इसलिए मुझे किसी दुश्मन की जरूरत नहीं। लिखता हूँ शोध-निबंध और प्रसंगों को स्पष्ट करने के लिए ऐसे व्यौरों की ओर भटक जाता हूँ कि शोधनिबंध ललित निबंध बन जाता है। मैं स्थापित यह करना चाहता था कि इतिहास के नियमों का सम्मान न करने पर वह इतिहास नहीं रह जाता, वह विषवेलि का रूप ले लेता है और सभी के लिए अनिष्टकारी होता है जब कि वैज्ञानिक इतिहास इतिहास के नियमों का सम्मान करते हुए ही संभव है और इसका परिणाम (बोध) उभयकल्याण होता है। इसमें हार-जीत नहीं होती। जीतने वाले और हारने वाले कुछ खोते नहीं पाते हैं, सत्य के अधिक निकट पहुँचते हैं।
हम इसके बाद अपनी नजर में आए इतिहास के उन वैज्ञानिक सिद्धांतों में से कुछ की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं जिनका पालन करने में शिथिलता बरतने पर हम सही निर्णय पर पहुँच ही नही सकते। हम लिपि पर बात कर रहे थे और हमारा तर्क वही था कि जिसका विवेचन बुद्ध ने किया था कि अमुक के हुए बिना अमुक नहीं हो सकता। यदि अमुक न हो तो अमुक नहीं हो सकता। विकास की पिछली मंजिलों के बाद ही अगली मंजिल पर पहुँचा जा सकता है, यदि उन तक पहुँचना बाधित हो जाए या उसे रोक दिया जाए तो अगला चरण बाधित हो जाएगा।
अहमद हसन दानी अपने जीवनकाल में पूरे दक्षिण एशिया के सबसे कद्दावर पुरातत्वविद थे। बह संस्कृत जानते ही नहीं, उसमें बात भी कर सकते थे जो मेरे वश का नहीं। उन्होंने सिंधु-सरस्वती लिपि, ब्राह्मी और सामी लिपि के आपसी संबंधों की व्याख्या करते हुए ब्राह्मी की उत्पत्ति सामी के दर्शाने का प्रयत्न किया था जो फिनीशियन या तथाकथित अनातोलियन का पर्याय थी। पर वह यह भूल गए थे कि वर्णिक अवस्था alphabetic मात्रिक syllabic का जनक नहीं हो सकती थी, मात्रिक syllabic के बाद ही संभव थी। दानी से एक चूक हुई या अपने निर्णय मे बाधक पा कर उन्होंने इसकी अवज्ञा कर दी कि अमुक के बिना अमुक संभव ही नहीं। यह तथ्य था ग्रीक का सबसे पुराना प्रमाण माइसीनिया की लीनियर- बी में पाया जाना। लीनियर-बी मात्रिक लिपि थी और फिनीशियन लिपि इससे ही पैदा हुई थी:
Mycenaean language, the most ancient form of the Greek language that has been discovered. It was a chancellery language, used mainly for records and inventories of royal palaces and commercial establishments. Written in a syllabic script known as Linear B, it has been found mostly on clay tablets discovered at Knossos and Chania in Crete and at Pylos, Mycenae, Tiryns, and Thebes on the mainland, as well as in inscriptions on pots and jars from Thebes, Mycenae, and other cities that imported these vessels from Crete. Encyclopedia Britanica.
इसके कुछ दूसरे भी पक्ष हैं जिन पर यहाँ विचार नहीं किया जा सकता।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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