रोम ने ग्रीस पर विजय पाई इसके साथ ही सांस्कृतिक स्तर पर उनको पराजय का सामना करना पड़ा। ग्रीक रोम के अधीन हो गया, रोमन ग्रीस के शिष्य बन गए।
यूरोप में जो घटना एक बात हुई, भारत में इसे कितनी बार दोहराया गया, इसका सही अनुमान कर पाना कठिन है। विजेताओं ने अपनी क्रूरता, धूर्तता, विश्वासघात और जासूसी, और कुछ मामलों में आयुधों में अग्रता के योग से, उस देश को अनेक बार परास्त किया जो युद्ध और आपदा में भी प्राणपण से नैतिकता का निर्वाह करता था और जो ऐसा नहीं कर पाते थे उनका तिरस्कार करता था। यह प्रतिक्रिया किसी वर्ग या हैसियत तक सीमित न थी, सार्विक थी अतः विजय के कुछ ही वर्षों के भीतर वे विजेता शिष्य भाव से उन्हीं जीवन मूल्यों के लिए अपने प्राण उत्सर्ग करने को तैयार हो जाते थे, जिनके कारण कभी उन्हें भारतीयों को परास्त करने में आसानी हुई थी।
हैवानियत की सीमाओं को पहचान कर, मानवमूल्य अपनाने वालों में केवल मध्य एशिया और मंगोलिया के वहशी ही नहीं थे, वे ग्रीक भी थे, जो सिकंदर की सेना के साथ आए थे, उसके अंग थ् और किसी कारण वापस नहीं लौट सके थे।
डूगल्ड स्टीवर्ट की यह उद्भावना कि यूनानी यों के प्रभाव से संस्कृत भाषा का जन्म हुआ था जितना भी हास्यास्पद क्यों न हो, यह तो सच है ही कि भारत में रह गए यूनानियों ने अपने को ब्राह्मणों की कोटि में लाने के लिए उस समय तक उपेक्षित तंत्र-मंत्र के संग्रह अथर्ववेद को चौथा वेद सिद्ध करते हुए, अपने को इस नए वेद का भी ज्ञाता होने का दावा करते हुए, उन ब्राह्मणों से जो केवल त्रयी का ज्ञाता होने का दावा करते थे, अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए चारों वेदों का अधिकारी ही सिद्ध नहीं किया, हिंदू धर्म पर आने वाली आपदाओं में अनन्य बलिदान देते हुए उसकी रक्षा की।
यदि इसे कसौटी बनाया जाए तो, यूरोप में जिस समाज ने राजनीतिक पराजय का मुंह देखने के बाद भी सांस्कृतिक विजय प्राप्त की वह ग्रीक थे, और सार्वभौम फलक पर अगर उसी कसौटी को अमल में लाया जाए तो वे भारतीय थे, जिनके सामने ग्रीकों को भी समर्पण करना पड़ा।
यह निर्विवाद है कि ब्रिटेन ने, और दूसरे यूरोपीय देशों के जिन अन्य देशों ने भारतीय भूभाग के किसी भी हिस्से पर अधिकार जमाया उनमें शौर्य कहीं नहीं दिखाई देता, कपटाचार औ र विश्वासघात हर मोड़ पर दिखाई देता है।
विजय उन्हें प्राप्त हो गई परंतु विजेताओं में उनके प्रति सम्मान भाव नहीं पैदा हुआ,, आतंक अवश्य पैदा हुआ। किसी विजेता के लिए इससे अधिक अपमान की बात क्या हो सकती है कि उसका वशवर्ती उसे इतना तुच्छ समझे कि वह मृत्युभय होने के बाद भी उसके हाथ का पानी पीने से इन्कार कर दे, उसके स्पर्श तक से अपने को अपवित्र समझे।
इस सांस्कृतिक अपमान बोध से आरंभ हुई थी मूल्य व्यवस्था की उस शक्ति के स्रोत की खोज और इसी से पैदा हुई थी वेदों और पुराणों के प्रति जिज्ञासा जिन्हें समझने वाले तो विरल थे, परंतु जिसके मूल्य, वर्ण निरपेक्ष रूप में ,अशिक्षित और अल्प शिक्षित जनों में सर्वाधिक व्याप्त थे। यहीं से उत्पन्न हुई थी उस भाषा में दिलचस्पी जिसमें ये ग्रंथ लिखे हुए थे और हम कह सकते हैं “ज्यों ज्यों ज्ञान गहन भयो, त्यों त्यों घटो गुमान।”
धर्मयुद्ध के अपमानजनक अनुभव के बाद पूर्व के ज्ञान, और पूर्व के अनुसंधान से मिली संजीवनी और अपने यूनानी अतीत के पुनराविष्कार से नवोदित, ऊर्जस्वित, विश्व विजय की लालसा से उद्वेलित पश्चिम की सबसे अमूल्य सांस्कृतिक पूँजी थी ग्रीक सभ्यता जिसके समकक्ष, उनकी तब तक की दृष्टि में , विश्व में कहीं कुछ हो ही नहीं सकता था।
संस्कृत की खोज के साथ उनका ग्रीकभाषा की श्रेष्ठता का अभिमान, संस्कृत मनीषा के माध्यम से ज्ञान-विज्ञान और दर्शन की श्रेष्ठता का अभिमान, संक्षेप में कहें तो सांस्कृतिक वर्चस्व का अभिमान, ध्वस्त हो रहा था। इस्लाम के विस्तार के विरुद्ध यूरोप ने धर्म युद्ध लड़ा था, भारत में उसे सांस्कृतिक युद्ध लड़ना पड़ रहा था। धर्म युद्ध मे हथियार की भी भूमिका होती है, सांस्कृतिक मुठभेड़ में एक का दूसरे के सामने उपस्थित होना ही इतनी बड़ी चुनौती बन जाता है कि कोई हथियार, यहां तक कि तर्क और न्याय का औजार भी बेकार हो जाता है। इस मोर्चे पर या तो समर्पण किया जा सकता है जो पराजय दिखाई देने के बाद भी परम विजय है या विषवपन किया जा सकता है और बड़े पैमाने पर योजनाबद्ध रूप में विषप्रचार किया जा सकता है जिसमें मोर्चा संभालने वाले योद्धा भी विषभक्षी बनकर समर्पण के लिए प्रतिस्पर्धा करने लगें और विजेता स्वयं भी इसका आदी बन जाए और अपनी भावी पिढ़ियों को भी इसका आदी बनाता चला जाए।
यह युद्ध कभी समाप्त नहीं होता, इसमें किसी भी चरण पर शिथिलता नहीं बरती जाती। यूरोप के साथ भारत को धर्म युद्ध नहीं लड़ना पड़ा, परंतु सांस्कृतिक युद्ध वह आज तक लड़ रहा है। जो भी इस व्यक्ति बुनियादी सचाई को नहीं जानता वह न तो अपने आत्मसम्मान की रक्षा कर सकता है, न ही राष्ट्राभिमान की बात कर सकता है। तदगतेन मनसा वह मालिकों, पुरस्कर्ताओं और संरक्षकों के पांव के नीचे जगह अवश्य तलाश कर सकता है।
बाबा साहब ने भी अस्पृश्यता के सामाजिक पक्ष पर ध्यान दिया, मूल्यव्यवस्था के प्रभावी औजार के रूप में नहीं देखा जिसमें यह निहित था कि यदि स्वच्छता, आचार, खानपान के एक मर्यादित स्तर पर आप खरे नहीं उतरते तो आप अस्पृश्य हैं और इसी कारण किसी परिजन की मृत्यु के बाद एक निश्चित अवधि एतक पूरा परिवार अस्पृश्य बना रहेगा, उस परिवार का भी वह व्यक्ति जिसने दाह कर्म किया है अपने परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए, शाकाहारी परिवार में आमिषभक्षी और उसके उपयोग में आने वाले पात्र, रजस्वला स्त्री और सूतक काल में प्रसवा, चेचक आदि के प्रकोप को झेलता परिवार अस्पृश्य बना रहेगा। आईसीयू में सभी बाहरी लगभग अस्पृश्य थे और आज तो कोरोना ने इसे इस तरह रेखांकित किया है कि इसकी आरोग्यपरकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। यदि उन्होंने इसकी गहनता को समझा होता तो उनके आन्दोलन ने आर्थिक न्याय के लिए संघर्ष का रूप ले लिया होता जिसके कारण ही समाज के एक बड़े हिस्से को नारकीय जीवन जीना और अस्पृश्य वन कर रहना पड़ता है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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