अर्थात् इत/इद/इंद/इंध/विद/विंद जो देखने में अलग होते हुए भी अलग अलग पृष्ठभूमियों से आए लोगों के एक ही शब्द के उच्चारण हैं। मैं स्वयं भोजपुरी पृष्ठभूमि से आने के कारण यह के ये और वह को वो बोलता हूँ इसका पता मुझे अपने एक व्याख्यान का टेपांकित पाठ सुनने के बाद चला। रफी अपने गानों में इ और उ का उच्चारण कैसे करते हैं इस पर उनका ध्यान शायद ही गया हो। मेरा गया था, पर अपने उच्चारण का दोष मुझे तब भी न दिखाई न दिया।
मैंने अत पर चर्चा करने हुए सुझाया था कि इससे जुड़े दूसरे संकुलों पर हमारे पाठक विचार कर लेंगे पर पाया कि जब मुझसे बहुत जरूरी पहलू ओझल रह जाते हैं तो उनका ध्यान इनकी ओर न जाए, यह अधिक स्वाभाविक है। उदाहरण के लिए संस्कृतीकरण और अर्थविचलन के चरित्र को समझने के लिए अंत के निकट, भीतर का वाचक बन जाने के बाद आँत (intestine) और फिर ‘आन्त्र’ बनना। इसलिए एक सरसरी नजर इन पर डालने के बाद ही आगे बढ़ना उचित होगा।
ई- जल, बहना ( स्तोमाँ इयर्मि अभ्रिया इव वातः) E. eel -a fish , चलना (ईयते, ‘दूत ईयसे युयुजान ऋष्व’, इयर्ति ‘इयर्ति वाचमरितेव नावम्’), उड़ना (यो अब्दिमाँ उदनिमाँ इयर्ति ), त. मक्खी (E. bee?)।
ई-त/इत- यहाँ, इधर (इत उत ताकि चला भड़िहांई); इतः- यहाँ से। ऐसी दशा में , जैसा हम पहले संकेत कर आए हैं, इति का पुराना अर्थ आरंभ था, पर इसे अति/ अंत/ ०अन्ति का पर्याय बना दिया गया। इसके बाद भी ‘अति’ और ‘अंत’ का प्रयोग समाज के किसी स्तर पर जारी रहा, फिर भी पुराने इतः के साथ अतः का चलन आरंभ हो गया। इत्र के साथ अत्र आरंभ हुआ और इसने इत्र को बाहर कर दिया। इदं यह (E. it, त. इदु. सं. इदानीं - इस समय) बना रहा, पर इदि का स्थान ०अदि>आदि ने ले लिया, फिर भी ‘अन्त’ ‘इति’ के साथ भारत में बना रहा, परंतु भारत से बाहर इति ही प्रचलित हुआ। यही फा. (इन्तकाल, इन्तहा आदि) तथा E. end, enate-going out, के आशय में प्रयोग तो हुआ पर इन, in, enter,entry, endo-/ ento/ ent/ ent, en(enbloc) en- (i.e. engage, entwine- to interlace, ensure, endure etc) में निकटता या आन्तरिकता का भाव बना रहा। केवल भारतीय बोलियाँ इस अराजकता से बची रहीं।
इसका अर्थ है, जो भी उलट-पलट होना था वह भारत में हो चुका था इसके बाद इनका प्रसार उस पूरे उलट-फेर के साथ हुआ।
भारतीय व्यापक संपर्क की भाषा में यह उलट-फेर कैसे हुआ इसे समझना जरूरी है। आर्यों के हमले के हिमायती भाषाविद भी यह मानते रहे हैं कि वैदिक भाषा पर द्रविड़ और मुंडारी को प्रभाव है। भाषा परिवारों की सीमा में बंधे होने के कारण वे उन बोलियों का सही अनुमान नहीं कर सकते थे, और उस समग्र और गहन समागम की कल्पना से भी घबराते थे जिसका परिचय पाए बिना भारोपीय के चरित्र को समझा ही नहीं जा सकता था ।
किसी भिन्न भाषाई परिवेश में पहुँचने वाला गूँगेपन से आरंभ करता है। पहले संकेत से काम लेता है। सबसे आसान होता है संज्ञाओं को सीखना। उसके संकेत के उत्तर में दूसरा, कहें, दूकानदार वस्तु का नाम आदतन ले कर पुष्टि करना चाहता है और इससे वह बहुत आसानी से दुहरा लेता है। फिर क्रिया, सर्वनाम और विशेषणों की बारी आती है। सबसे कठिन होता है कारक चिन्हों, लिंग निर्धारक चिन्हों का और इससे भी अधिक क्रियाविशेषणों का सही प्रयोग। यह इतना कठिन होता है कि आजीवन किसी भाषा क्षेत्र में रहने के बाद भी लोग इनके मामले में गलतियाँ करते है और कुछ मामलों में ये गलतियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी गलतियाँ करते हैं और यदि इनकी संख्या या भूमिका निर्णायक रही तो इनकी गलतियों को सही और सही प्रयोगों को कुछ माने में प्रयोगबाह्य कर दिया जाता है, कुछ में साथ साथ जारी रहने दिया जाता है और इस तरह प्रयोगों में अराजकता पैदा हो जाती है। इस दृष्टि से वैदिक भाषा सबसे अराजक है पर संस्कृत में शुद्धि के घोर आग्रह के बाद भी अनियमितता किसी अन्य भारतीय भाषा की तुलना में बहुत अधिक पाई जाती है।
ईति -बाधा, प्राकृतिक उपद्रव (महाप्लावन/ सूखा), E. evil/ ill (?)। इदा( इदानीं)इतर, इदं, it,
इन्द - (त्वं न इन्द ऊतिभिः सजोषाः पाहि)> इन्दु - रस, जल (तुभ्यं पवन्त इन्दवः सुतासः ), 2. चंद्रमा, प्रकाश; बिंदु (मंहिष्ठं सिञ्च इन्दुभिः ).> इन्द्र - प्रकाश > इन्द्रिय - संज्ञान कराने वाला; इन्द्र - जल का देवता, E. index - to show; indicate - to show, in- un-(inclement/ unwanted).
इन्ध- ०जल > प्रकाश, इन्धते - प्रज्वलित करते हैं। ईंधन- ज्वलनशील।
एत-शुभ्रवर्ण - 5.81.3; गमन - अधृष्टो व एतवा अस्तु पन्था .।
एतग्व - दौड़ लगाने वाला, घोड़ा (एतग्वा चिद्य एतशा युयोजते हरी इन्द्रो युयोजते ।। 8.70.7. आदि।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
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