Friday, 8 January 2021

शब्दवेध (59) एक कदम पीछे

मैं जो कुछ  लिखता हूं उससे मुझे यह असंतोष बना रहता कि जो लोग मेरे लिखे को पसंद करते हैं उनको भी पूरी बात समझ में न आती होगी।  उसके लिए जितना समय और जैसी अभिरुचि चाहिए वैसी शायद ही किसी के पास हो। 

फेसबुक की सीमा है कि इसमें  फॉर्मेटिंग हट जाती है, इसलिए न तो  इटैलिक, अधोरेखा या बोल्ड फेस का प्रयोग कर सकता हूं, न ही  किसी  तालिका के माध्यम से बात को पूरी स्पष्टता से रख पाता हूँ। इसलिए  इस लेखमाला में  बहुत कम लोग रुचि ले पाते हैं, इसकी शिकायत नहीं है। शिकायत यह है कि जो लोग पसंद जताते हैं वे कुछ तो पाते ही होंगे, पर अनेक जितनी जल्द पसंद कर लेते हैं, उसमें इन लेखों को समझना संभव नहीं है।  

यह अनुसंधान या पांडित्यपूर्ण काम नहीं है जिसके लिए लेखक और पाठक दोनों को विशिष्ट प्रतिभा, विपुल ज्ञान और ऊँची खोपड़ी की जरूरत होती है। इसके विपरीत यह एक खोज है जिसके लिए जिज्ञासा और एकाग्रता की आवश्यकता होती है, जो एक बच्चे में भी हो सकती है और वह भी इसे पूरे विश्वास से प्रस्तुत कर सकता है। अपनी विशेष परिस्थितियों के कारण मुझमें यह बेचैनी बचपन से ही थी। मेरे पास प्रश्न थे। कुछ तो ऐसे जिन्हें किसी से पूछ नहीं सकता था। कुछ ऐसे जिनका उत्तर कल्पना से तैयार कर लेता था, पर उनसे संतोष न होता था, इसलिए वे प्रश्न, उत्तर के साथ, संचित होते रहे और कुछ प्रश्न डरते हुए बड़े-बूढ़ों से पूछ बैठता, क्योंकि उस समय के शिष्टाचार के अनुसार छोटों को मुँह नहीं लगाया जाता था।  मेरे प्रश्न होते ही ऐसे कि र उनका उत्तर कोई न दे पाता। लोग झुँझला जाते। 

मेरी ये जिज्ञासाएँ जगहों के नामों के विषय में होतीं। मेरी छावनी जहाँ थी उसका नाम गोबरैया, उससे पहले सोनबरसा, आगे झरना और पकलपूरा।  इनका मतलब क्या है। क्या सोनवरसा में सोना बरसता है? झरना में कोई झरना तो है नहीं। गोवरैया की बात यूँ समझ में आती कि वहाँ हमारे जानवर रहते थे और वे गोबर भी करते थे, पर पकलपूरा में क्या पकता था? 

यह अकारण नहीं कि भारतीय भाषाएँ सीखने के क्रम में जब मुझे लगा कि हमें भाषाविज्ञान के नाम पर जो शास्त्र पढ़ाया गया था उससे उन समस्याओं का समाधान नहीं होता जो इनकी आंतरिक बुनावट से सामने आती हैं, तो इसके समाधान के लिए मैंने स्थाननामोंं के भाषावैज्ञानिक अध्ययन (1968-70) का निश्चय किया और उसके परिणाम इतने आश्वस्तिकर थे कि पाश्चात्य भाषा-शास्त्रीय पोथे और विद्वान हास्यास्पद जमूरों में बदल गए (1973)। 

इसलिए मुझे यह निवेदन करने में संकोच नहीं कि भाषाविज्ञान के क्षेत्र में यह एक  युगांतरकारी प्रयास है और पुरातन मान्यताओं से इतना अलग है कि भाषाविज्ञान के क्षेत्र के कृती विद्वान भी इस समझने के लिए मानसिक रूप में तैयार नहीं मिलेंगे। वे यह जानते और मानते हैं कि उनकी कोई ऐसी स्थापना नहीं है जिसे अधिकारी विद्वानों ने गलत न पाया हो,  फिर भी वे उन्हीं के संचित भार को विषय का आधिकारिक ज्ञान मानते हैं । उनका यह तर्कातीत ज्ञान ही इसे समझने में बाधक भी बनेगा।   हमारे विश्लेषण और निष्कर्ष ही अलग नहीं है, हमारे स्रोत और आधार सामग्री तक अलग है।

हम जिस अवस्था से अपने आंकड़े जुटाते और उनको निखारते हैं, वह तुलनात्मक अध्ययनों की पहुँच से बाहर था।  उसे न तो आद्य  भारोपीय  के कल्पित  रूपों में  पाया जा सकता है न मानक कोशों में, पर एक बार उनके प्रस्तुत किए जाने के बाद, उन सभी की वे गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं, जिनके कारण उनकी आलोचना होती रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो हमारी स्थापना में कोई भी चीज न तो काल्पनिक है, न खींच-तान से काम लिया गया है। केवल सिरा बदल दिया गया है या कहें सत्ता और प्रचार साधनों के सहारे सिर के बल खड़ा किए गए विज्ञान को उसके पाँवों के बल खड़ा कर दिया गया है।  जो सूत्र लिखित रूप में उपलब्ध होने के कारण मानक भाषाओं के साहित्य से जुटाए जाते थे उन्हें बोलियों से प्राप्त ही नहीं किया गया है अपितु यह भी दिखाया गया है कि वे लिखित साहित्य में उपलब्ध प्रतिरूपों से अधिक सही और कम विकृत हैं और ये भाषा-परिवारों की सीमाओं का उल्लंघन करते हैं और इस सुझाव को भी गलत ठहराते हैं कि भाषाओं में कालक्रम में स्वतः परिवर्तन होते हैे, उनका कोई अन्य कारण नहीं होता।   

अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, पर अकेली खोज दुनिया को उलट सकती है।  यह विश्वास न होता तो हिंदी जगत की विरक्ति और उपेक्षा के बाद भी यह विश्वास न बनाए रख पाता कि इस काम को जो भाषा, इतिहास, पुरातत्व, समाजशास्त्र,  नृतत्व और कलादृष्टि सभी में परिवर्ततित करता है,अपने जीवनकाल में पूरा अवश्य करना होगा।  मेरा इन अनुशासनों के  मूर्धन्य विद्वानों से  जब भी सामना हुआ,  आरंभ में  मेरी मान्यताओं को  तिरस्कार पूर्वक  रफा दफा करने की कोशिश के  बाद  उन्हें मेमनों की तरह टकटकी बाँध कर देखते और कुछ को अपने पहले के काम को धता बताते हुए नई दिशा अपनाते और आत्मविश्वास के साथ अपने मंतब्य रखते पाया। उन्होंने दृष्टि-परिवर्तन से नया जीवन पाया, जो चुप साध गए, वे अपने प्रभुत्वकाल में ही दरकिनार किए जाने लगे। 

किंचित् अशोभन लगने वाला यह कथन इसलिए कि मुझे अपने आत्मविश्वास के लिए किसी पसन्द की, खास कर मैत्री निभाने के लिए पसंद की जरूरत नहीं है। फिर भी कोई भी विचारक इस इरादे से ही लिखता और बोलता है कि उसके विचार अधिकतम लोगों तक पहुँच सकें और वह आकांक्षा मुझमें भी है, इसलिए मैं चाहता हूँ कि जो कोई भी इन्हें पढ़े वह दत्तचित्त हो कर पढ़े, इस बात की खोज करते हुए पढ़े कि प्रस्तुत सामग्री में त्रुटि या अस्पष्टता कहाँ दिखाई देती है और यदि प्रश्न करे तो वे पाठ की सीमा में ही हों।  लिखने की सार्थकता इसी में है। साक्ष्य और तर्क शास्त्रीय सीमाओं से इतने अलग हैं कि इसमें दखल देने के लिए विषय का ज्ञाता होने की आवश्यकता नहीं, उल्टे शास्त्रीय अनभिज्ञता और किसी बोली का ज्ञान और जरूरत होने पर कोश आदि देखने की तत्परता ही पर्याप्त है।  

नियमित लेखन इसलिए जरूरी है कि इसी से काम हो पाता है, जिन साधकों और कृतिकारों को हम जानते हैं उनकी आदत का हिस्सा बन जाने के कारण वे एक दिन भी शिथिल नहीं रह सकते थे। पर फेसबुक की सीमाओं और इस शृंखला के बढ़ते चले जाने के कारण, जिसके साथ थकान और समय का अभाव भी जुड़ जाता है मैं अपेक्षा कर बैठता हूँ कि सुझाए तर्ज पर आप स्वयं दूसरे शब्दों की मीमांसा कर लेंगे  जब कि हम स्वयं अपने साक्ष्यों को संतोषजनक रूप में नहीं रख पाते हैं।

उदाहरण के लिए हमने कल एक बहुत महत्वपूर्ण समस्या उठाई थी पर उसका सही प्रतिपादन पोस्ट में संभव न हो पाया। इसे  वाक्य बदलकर  प्रस्तुत करें तो 
 1. लिखित भाषाएँ  और बोलियाँ  सामाजिक संरचना में बदलाव आने के कारण हजारों साल के भीतर  बदली हैं।    बोलियों ने  लिखित साहित्य से  जितना प्रभाव ग्रहण किया है उतना साहित्यिक भाषाओं ने इस दौरान ग्रहण किया है परंतु उनकी सारी पूँजी बोलियों से आई है। नई शब्दावली वे और प्रत्यय और उपसर्ग के जोड़-तो़ड़ से  करती रही हैं, परंतु इनके घटक भी बोलियों से आए हैं।  नए अनुसंधान और विकास में शिक्षितों की भूमिका प्रधान  रही है इसलिए बोलियों में नई अपेक्षाओं की पूर्ति साहित्यिक भाषाओं के शब्दों को अपने ध्वनि विन्यास के अनुसार ढालकर कर ली जाती रही है।  इसी से  इस दुष्प्रचार को बल मिला कि बोलियां लिखित भाषाओं की विकृति से पैदा हुई हैं। 

2. इसके बावजूद बोलियां उसी ऐतिहासिक दौर में  भाषाओं की तुलना में कम विकृत हुई हैं।   कारण  भाषाओं में विकृतियां या परिवर्तन दूसरे भाषा समुदाय के  मिलने खपने से  होते हैं और नए अवसर की तलाश में ऐसे समुदाय उन्नत सामाजिक संरचना के भीतर अपनी जगह  बनाने का प्रयत्न करते हैं और इसलिए  उन भाषाओं में परिवर्तन अपेक्षाकृत तेजी से होते हैं।  

3. संस्कृत और दूसरी लिखित भाषाएं  बोलियों के इतिहास की तुलना में उन्हीं की गोद में  पली  बच्चियाँ है, इसलिए भाषा के इतिहास,  इसके उद्भव और विकास को समझने के लिए वे लिखित भाषाओं की तुलना में अधिक भरोसे की हैं।

परंतु हम जानते हैं   कि इन्हें हम सही-सही  प्रस्तुत नहीं कर सके, क्योंकि हमारा ध्यान  इस जटिल समस्या के  एक दूसरे  पक्ष की ओर था,  जिसको भी  बहुत सलीके से  प्रस्तुत नहीं कर सके और जिस रूप में प्रस्तुत किया  उससे  पाठकों की उलझन  और बढ़ी होगी। ई का स्थान अ ने ले लिया,  अ का स्थान त ने ले लिया, यह भाषा  उड़ती नजर डालने वालों की समझ में नहीं आ सकती। 

यदि  फेसबुक की पोस्ट में  तालिका बनाने की गुंजाइश होती तो यह दिखाना आइने की तरह साफ होता कि निकटस्थ के लिए सभी बोलियों में इकार का प्रयोग मिलता है, भो. ई , इहाँ/इहवाँ, ई>ए एकर, एही बदे, एइसन आदि।  कहें परिवर्तन भो. में भी हुआ, पर अपने मूल चरित्र के अनुरूप और उस तरह का उलट फेर न हुआ जो संस्कृत में हुआ। 

भो. का रूप अधिक पुराना है, क्योंकि आर्य द्रविड़ सभी बोलियों में आसन्न का यह रूप मिलता है (त. इदु -यह (अमहत्), इवन/ इवर - यह (महत्), इवळ - यह (महिला)। संस्कृत में भी इसके अवशेष बने हुए हैं। ऋग्वेद में आता है य ईं चकार सो न अस्य वेद,  ‘जिसने इसे बनाया वह इसे न जान सका।’ यह उस संक्रमण को दर्शाता है जिसमें , ईंम का स्थान अस्य ले रहा है, फिर भी इदं -यह, अं. it -यह नपुंषक में बना रहा, अन्यत्र  इसका लोप हो गया और इसका स्थान अ ने ले लिया - असौ,  अं. this, पर बहुवचन में नपुं और पुं. सभी के मामले मे ‘त/द’  these, those और दूरस्थ में सं. में, (पु. सः, स्त्री. सा,नपुं. एक व. मे त (तत) आता है , पर आगे ‘त’ हावी हो जाता है - सः तौ ते, सा, ते ता), अं. में भी इसका निर्वाह एक व. में होता है (he, she, his her) पर बहु.व. में और आगे की रूपावली मे ‘त’ that, these, those, their,) हावी हो जाता है।   

जाहिर है कि संस्कृत बोलियों की तुलना में अधिक विकृत हुई और देशांतर में ऐसे समुदायों के भारोपाय भाषियों की जमात में घुसने और मिलने की छूट न थी इसलिए उन्हें अपनी ध्वनि सीमाओं में इसका अनुकरण करना और मूल के यथासंभव अनुरूप बने रहने का प्रयत्न करना पड़ा।

भगवान सिंह 
( Bhagwan Singh )


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