इसे आप एक दोष कह सकते हैं। चाहें तो इसे सबसे बड़ा गुण भी कह सकते हैं। प्रत्येक रचनाकार और महान दार्शनिक के पास केवल एक जीवन सत्य होता है, केवल एक इबारत होती है, और उसकी समग्र रचनाएं उसी की आवृत्ति, उसी का भाष्य होती हैं और यह भाष्य उसके लाख प्रयत्नों के बाद भी अधूरा ही रह जाता है।
हमें इस सीमा के बाद भी अनगिनत सवालों के जवाब इस एक वाक्य से निकालना होता है। यही हमें द्रष्टा बनाता है, यही हमें स्रष्टा बनाता है, यही हमें क्रांतदर्शी बनाता है। आरंभ से लेकर आज तक मेरा सारा लेखन एक ही इबारत को बार-बार कई रूपों, विधाओं और अनुशासनों में दुहराने की कथा है। इस सत्य का एक क्षीण बोध मुझे सदा रहा है, परंतु इसकी इतनी तीखी अनुभूति इससे पहले कभी न हुई थी जब मैंने अपनी एक पुरानी रचना महाभिषग के पन्ने पलटते हुए एक उद्धरण की तलाश आरंभ की जो मेरे तलाश के बाद भी अभी तक सामने नहीं आई। मैं इतिहास की वैज्ञानिकता के सवाल को आगे विस्तार देना चाहता था और अपना लेख कुछ इस प्रकार आरंभ किया था:
“मेरे पास सभी सवालों के जवाब नहीं हैं। कुछ के जो जवाब हैं, वे अंतिम सत्य नहीं हैं। मेरे लिए सत्य उपलब्ध तथ्यों का निष्कर्ष है । कोई नया तथ्य सामने आने पर इस निष्कर्ष में मामूली, या भारी, परिवर्तन हो सकता है। यही किसी अध्ययन दृष्टि को वैज्ञानिक बनाता है। प्रमाण बोलते हैं, हम नहीं, फैसला करते हैं प्रमाण ही। हमारी भूमिका उनकी दृश्य भाषा को श्रव्य भाषा में रूपांतरित करने तक सीमित होती है।
प्रमाण अपनी दृश्य भाषा में सच तभी व्यक्त कर पाएंगे जब हमारी ओर से हस्तक्षेप, या उनके किसी पक्ष का किसी तरह का पटाक्षेप न हो। यदि ऐसी तटस्थता संभव न हो, या यांत्रिक प्रतीत हो तो, कम से कम, ऐसा हस्तक्षेप न हो जो प्रमाण विरुद्ध हो और औचित्य की सीमा लाँघता हो।
इसी कारण किसी इतर से, वह कितनी भी श्लाघ्य क्यों न हो, आसक्ति इतिहास की वैज्ञानिकता में बाधक है। यही कारण है कि किसी विचारधारा, आंदोलन, या आस्था से जुड़ा हुआ व्यक्ति, वैज्ञानिक सत्य पर नहीं पहुंच सकता। ….इसी प्रसंग में मुझे गौतम बुद्ध के कालामों के बीच दिए गए उपदेश की याद आई और मुझे लगा इसे मैंने अपने उपन्यास महा अभिषेक में उद्धृत कर रखा है। इसी आशा में उसे उतना आरंभ किया, जल्दबाजी में खोज न पाया परंतु नजर में आया वह मेरे लिए भी विश्व में की बात है कि मैं किसी दूसरे पर लिखता नहीं, अपने पर लिखता हूं, अपने को लिखता हूं, अपना विस्तार करता हूं और वही विश्व दृष्टि का रूप ले लेता है।
मूल पाठ के लिए मुझे विकिपीडिया का सहारा लेना पड़ा। पाठ निम्न प्रकार है:
इति खो, कालामा, यं तं अवोचुंह एथ तुम्हे, कालामा, मा अनुस्सवेन, मा परम्पराय, मा इतिकिराय, मा पिटकसम्पदानेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा आकार परिवितक्केन , मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया, मा भब्बरूपताय, मा समणो नो गरूति।
यदा तुम्हे, कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ – इमे धम्मा कुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विञ्ञुगरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्तीsति, अथ तुम्हे, कालामा, पजहेय्याथ।
(हे कालामाओ ! ये सब मैने तुमको बताया है, किन्तु तुम इसे स्वीकार करो, इसलिए नहीं कि वह एक अनुविवरण है, इसलिए नहीं कि एक परम्परा है, इसलिए नहीं कि पहले ऐसे कहा गया है, इसलिए नहीं कि यह धर्मग्रन्थ में है। यह विवाद के लिए नहीं, एक विशेष प्रणाली के लिए नहीं, सावधानी से सोचविचार के लिए नहीं, असत्य धारणाओं को सहन करने के लिए नहीं, इसलिए नहीं कि वह अनुकूल मालूम होता है, इसलिए नहीं कि तुम्हारा गुरु एक प्रमाण है,
किन्तु तुम स्वयं यदि यह समझते हो कि ये धर्म (धारणाएँ) शुभ हैं, निर्दोष हैं, बुद्धिमान लोग इन धर्मों की प्रशंसा करते हैं, इन धर्मों को ग्रहण करने पर यह कल्याण और सुख देंगे, तब तुम्हें इन्हें स्वीकर करना चाहिए।)
परंतु मेरी खोज ने मेरी कृतियों के भीतर से मुझे जिस रूप में खोजा उसकी बानगी निम्न अंशों में (महाभिषग,1973, उद्धृत पन्ने सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित संस्करण के हैं) मिल जाएगी:
आनंद, प्रत्येक प्रवाद के पीछे सत्य का एक स्वल्प अंश अवश्य होता है, और सत्य का यह बीजांश ही सत्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है अन्य विषयों में संदेह उत्पन्न होने पर उस क्षीण अंश की पुष्टि होते ही शेष काल्पनिक अंश को भी वही प्रामाणिकता मिल जाती है जो उस सत्य अंश को। 67
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मानस के विकास के अभाव में भी शिक्षा आदि के द्वारा बुद्धि का विकास संभव है। अनुभव से बुद्धि का विकास संभव है परंतु इस तरह की बुद्धि का उपयोग क्या होता है? उन्हीं मलिन आचारों को तर्क द्वारा उचित ठहरा कर अपने लिए एक दुर्ग खड़ा करना ….85
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...मुझे उनके प्रति क्रोध नहीं जगा था, आनंद। हंसी भी नहीं आई थी । करुणा जगी थी। सोचा था मैंने, ब्राह्मण तूने इतना शास्त्र ज्ञान अपने को अधिक बालिश बनाने के लिए अर्जित किया। तूने भुजंग की भांति दूध को भी विष बनाकर ही ग्रहण किया, ब्राह्मण। 86
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आशु आशु अधीर करता है। त्वरणशीलता मन की चंचलता, संयम के अभाव, मन की अपरिपक्वता का नाम है। जो पक्के विचार का है, वह वस्तुओं, गुणों, और कर्मों के फूल, फल, और परिणाम की और कालों को जानता है। 90
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धर्म इंद्रजाल नहीं है, आनंद, कि एक क्षण में समस्त लोक में फैल जाए। यह गति है। पथ है। इसे चलकर ही जानना होगा। धीरे-धीरे फैलेगा और सिकुड़ेगा भी, पर लुप्त नहीं होगा। 91
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जो अतिरिक्त संग्रह कर चुके हैं, वे अपने पास पिशाच की सी शक्ति संचित कर चुके हैं । उसी से वे लोक को तोड़ रहे हैं अहंकार प्रदर्शन करते हुए पैशाचिक हंसी हँस रहे हैं और वह आनंद, जो सब कुछ से वंचित हैं, वह कीड़ों मकोड़ों की अवस्था में पड़े हुए हैं । उनमें कुछ ऐसे हैं जो संग्रहशीलो के उपकरण बने हुए हैं। 93
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धर्म अति का नहीं है। सम का है धर्म। वह वक्र नहीं है। ऋजु का है धर्म। ... मध्यम है उसका मार्ग। मध्यमा है उसकी गति । 94
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यदि सभी विमाताएं क्रूर होती हैं, राक्षसियों जैसा व्यवहार करने लगती हैं, उन्हीं सौतेली संतान से, वह दोष किसका है इसमें? यदि वही बालिका किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह करें जो कुमार है तो क्या उसे अपनी संतानों के साथ राक्षसी व्यवहार करते पाया जाता है? राक्षसी बनाई जाने वाली विमाता अपनी संतान के प्रति निष्ठुर होती है? वह तो देवी होती है अपनी संतान के लिए । हर कुमारी मैं देवी बनने की वही क्षमता होती है पर उसे उसकी इच्छा के विपरीत एक विशेष परिस्थिति में डालकर, उसे एक विशेष दूषण का आंखेट बनाया जाता है और पुनः उसे ही दोष दिया जाता है । यह कहां का न्याय है किसी को विष के घट में डुबो दिया जाए, विश्व का प्रकोप उसकी शिरा उपशिरा में हो जाए और जब उसके प्रभाव में वह उन्मत्त जैसा आचरण करने लगे तो उसका उपहास और निंदा की जाए। 97-98
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मैं सोचने लगा, यदि आत्मपीड़न ही धर्म है, सुख से अपने को वंचित करना ही घर्म है तब स्वर्ग की अभिलाषा ही क्यों? स्वर्ग जहां भोग ही भोग है, सुख ही सुख है, वाह तू अधर्म बीज हुआ।155
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उसी दिन मैंने जाना, आनंद, कि धरती से ऊपर केवल हिमाद्रि के ऊंचे शृंग ही नहीं हैं, कैलाश की चोटी एकमात्र ऊंची भूमि नहीं। सामान्य धरातल से कैलाश की ऊंची भूमिका के मध्य दूसरे भी ऊँचे स्थल पडते हैं। कुछ नहीं से कुछ सार्थक है, कुछ से अधिक श्रेयस्कर है और अधिक से चरम की गति होनी चाहिए। “ 159-160
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तो, आनंद , मैंने स्पष्ट देखा कि जन्म से कोई वृषल नहीं होता। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता। कर्म से वृषल होता है और कर्म से ब्राह्मण होता है। ...191
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आजीवक उपल ने उन्हें प्रसन्न, परिशुद्ध और पर्यवदातवर्ण देख, पूछा था, “ किसको गुरु मानकर तू प्रव्रजित दुआ? कौन तेरा शास्ता है?” तो शास्ता ने उत्तर दिया था, “ मैं स्वयं ही अपना गुरु बना और स्वयं ही अपना शास्ता। सभी धर्मों को निकट से देखा सभी का क्रम क्रम से अभ्यास किया । सभी धर्मो में निर्लिप्त सर्वत्यागी अर्हत हूँ।…” 201
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“विनय के कारण, लज्जा के कारण, भय के कारण, अपने उपलब्ध को गुप्त रखना अविनय है, अधर्म है, आनंद। यदि तुम अपनी काया से जुड़े नहीं हो, राग से लिप्त नहीं हो, तो अपने जाने हुए को अपनी काया और मन से क्यों जोड़ोगे? ऐसे ही तो अहंकार होगा।” 201
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भगवान सिंह
Bhagwan Singh
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