गांधी जी की आत्मकथा "सत्य के प्रयोग" के पांचवें खंड में एक अध्याय का शीर्षक है- "पहाड़ जैसी भूल!"
आप यह शीर्षक पढ़कर सोचते हैं, यह कौन-सी भूल रही होगी? कथा-प्रकरण के तारतम्य में आप जानते हैं कि यह साल 1919 है और अप्रैल का महीना है। इससे पूर्व के अध्याय का शीर्षक है- "वह सप्ताह।" हम जानते हैं कि यहां 30 मार्च से 6 अप्रैल तक के ऐतिहासिक सप्ताह की बात हो रही है, जब असहयोग आंदोलन आरम्भ हुआ था। उससे पहले वाले अध्याय का शीर्षक है- "रोलैट एक्ट और मेरा धर्मसंकट।" अब तो दुविधा का प्रश्न ही नहीं। परिप्रेक्ष्य स्पष्ट हो जाता है।
असहयोग आंदोलन भारत में आग की तरह फैला था। उसने सबको चकित किया था। उसने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के समीकरण भी बदल दिए थे और गांधी जी सहसा परिदृश्य के केंद्र में आ गए थे। कहने वाले कहते हैं कि इस पैमाने पर भारत-देश अतीत में कभी एकजुट होकर आंदोलित नहीं हुआ था।
इतना व्यापक जन-आंदोलन तो किसी भी नेता के लिए सबसे बड़ी विजय का क्षण होना चाहिए ना?
किंतु अप्रैल 1919 के उसी महीने में जब गांधी जी नड़ियाड गए तो उन्होंने "पहाड़ जैसी भूल" शब्द का उपयोग किया। पांच-छह वर्ष बाद आत्मकथा लिखी तो इसे एक अध्याय का शीर्षक भी बनाया। यह पहाड़ जैसी भूल क्या थी?
गांधी जी को लगता था कि उन्होंने जिन मूल्यों को केंद्र में रखकर सत्याग्रह शुरू किया था, उन्हें आंदोलनकारियों ने ताक पर रख दिया है। इससे पहले वे दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आंदोलन कर चुके थे। भारत में भी चम्पारण और खेड़ा में उनके सत्याग्रह आंदोलन हो चुके थे। इन सभी आंदोलनों को आरम्भ करने से पहले उन्होंने वस्तुस्थिति का गहरा परीक्षण किया था। स्वयं मौक़े पर जाकर लोगों से मिले, बात की थी और राज्यतंत्र की सीमाओं को भी भरसक समझने का प्रयास किया था। उनके प्रभाव का क्षेत्र सीमित था। वे अपनी बातें अपने लोगों तक ठीक से पहुंचा सके थे। ये आंदोलन उनकी कल्पना के अनुरूप हुए थे।
किंतु असहयोग आंदोलन की बात और थी। 30 मार्च को दिल्ली में ऐतिहासिक हड़ताल हुई थी। 6 अप्रैल को बम्बई मुकम्मल बंद रहा। पूरा देश ठप्प हो गया। ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिल गईं। ना स्कूल-कॉलेज चल रहे थे, ना अदालतें काम कर रही थीं, ना कारख़ानों में काम हो रहा था। आंदोलन इतना सर्वव्यापी था और सत्याग्रह का प्रयोग इतना अभिनव था कि यह गांधी जी के नियंत्रण में नहीं रह गया था। अनेक स्थानों पर दंगे की नौबत थी। पंजाब में तनाव था। गांधी जी पंजाब जा रहे थे कि उन्हें रास्ते में गिरफ़्तार कर लिया गया। इससे आंदोलन और भड़क गया। नड़ियाद में रेल की पटरी उखाड़ने की कोशिश की गई। अहमदाबाद में मार्शल लॉ लगाया गया। वीरमगाम में एक सरकारी कर्मचारी की हत्या कर दी गई। बम्बई में बलवा हो गया। गांधी जी के मन में क्षोभ की यह भावना थी कि यह सब मेरे निमित्त हो रहा है। वे इसके साथ सहज नहीं थे।
जब बम्बई के कमिश्नर ग्रिफ़िथ ने गांधी जी से कहा कि यह सब आपकी शिक्षा का परिणाम है तो गांधी जी ने उत्तर दिया, मैं तो पंजाब में शांति-रक्षा के लिए जा रहा था, आपने ही मुझको बंदी बनाकर लोगों को आंदोलित होने का अवसर दिया। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि मेरा विश्वास है कि भारत के लोग स्वभाव से शांतिप्रेमी हैं, दंगाई नहीं हैं। किंतु मन ही मन वे विचलित थे। 13 अप्रैल को गांधी जी ने बम्बई में सभा करके शांति की अपील की। उन्होंने कहा सत्याग्रह सच्चे का हथियार है, अगर लोग शांति न रखेंगे तो मैं सत्याग्रह की लड़ाई नहीं लड़ सकूंगा। आंदोलन मुल्तवी करने का विचार भी उनके मन में था। किंतु इसी दिन अमृतसर में जलियांवाला बाग़ हत्याकांड हो गया। अब तो आंदोलन रोके ना रुक सकता था।
आत्मकथा में गांधी जी ने लिखा है-
"मैंने अपना धर्म स्पष्ट देखा। जिन मज़दूरों के विषय में मैं अच्छे व्यवहार की आशा रखता था, उन्होंने उपद्रव में हिस्सा लिया, यह मुझे असह्य मालूम हुआ। मैंने अपने को उनके दोष में हिस्सेदार माना। जिस तरह मैंने लोगों को समझाया कि अपना अपराध स्वीकार कर लें, उसी तरह सरकार को भी गुनाह माफ़ करने की सलाह दी। दोनों में से किसी ने मेरी नहीं सुनी।"
तब कुछ सहयोगियों ने गांधी जी से कहा कि सब कहीं शांति की आशा रखने से तो आंदोलन चल ही नहीं सकेगा। किंतु गांधी जी का मत यह था कि तब वैसे आंदोलन का क्या औचित्य रह जाएगा, जो स्वयं अपने स्वरूप में अन्यायपूर्ण हो?
"सत्य के प्रयोग" में जिस अध्याय का शीर्षक "पहाड़ जैसी भूल" है, उसमें गांधी जी ने लिखा-
"क़ानून का सविनय भंग उन्हीं लोगों के द्वारा किया जा सकता है, जिन्होंने विनयपूर्वक और स्वेच्छा से क़ानून का सम्मान किया हो। जिसने समाज के नियमों का विचारपूर्वक पालन किया है, उसी को समाज के नियमों में नीति-अनीति का भेद करने की शक्ति प्राप्त होती है और उसी को मर्यादित परिस्थितियों में नियमों को तोड़ने का अधिकार प्राप्त होता है। लोगों के इस तरह का अधिकार प्राप्त करने से पहले मैंने उन्हें सविनय क़ानून-भंग के लिए निमंत्रित किया, अपनी यह भूल मुझे पहाड़-जैसी लगी।"
हम देख सकते हैं कि असहयोग आंदोलन भले औपचारिक रूप से फ़रवरी 1922 में चौरी चौरा कांड के बाद समाप्त कर दिया गया हो, किंतु वह एक आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि एक सुदीर्घ दुविधा की परिणति थी। अप्रैल 1919 में ही गांधी जी इस आंदोलन से सहज नहीं थे। कहा जा सकता है कि जब अप्रैल 1930 में गांधी जी ने नमक क़ानून तोड़कर सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया, तब वे स्वयं को पहले से बेहतर स्थिति में पाते थे। इन आठ वर्षों में वे सत्याग्रह की अपनी कल्पना को जनसामान्य तक बेहतर ढंग से पहुंचा सके थे।
सत्याग्रह के मूल में यह भावना है कि अगर अन्यायी की तुलना में आंदोलनकारी नैतिक रूप से श्रेष्ठ और उच्चतर आसन पर विराजित नहीं होता है, तो उसे प्रतिरोध करने का अधिकार नहीं है। वह दूसरे अर्थों में स्वयं अन्याय का एक और प्रतिरूप है।
एक विराट जनांदोलन के केंद्र में रहकर यों आत्मपरीक्षण करना सरल नहीं है। औरों के दोष देखना बहुत सहज है। गांधीवादी नैतिकता एक वृहत्तर मूल्य है, विप्लव के आत्मतुष्ट व्याकरण से उसको समझा नहीं जा सकता।
राजा अन्यायी है, इससे प्रजा गुणवान नहीं हो जाती। प्रजा को अपने तईं गुणवान होना होता है। यह एक बुनियादी गांधीवादी मूल्य है।
आंदोलनों में कुछ वैसी आवेगमयी भावना होती है कि वह आंदोलनकारियों को मन ही मन श्रेष्ठता की कल्पना से भरती है। तिस पर अगर राज्य-व्यवस्था अन्यायी, अहंकारी और असहिष्णु हो, तब तो आंदोलन में जैसे चार चांद लग जाते हैं। तब भी आंदोलनकारियों को कुछ बातें कभी नहीं भूलना चाहिए। और ये हैं-
1) निष्ठा और नैतिकता के प्रयोग आवेग का एक क्षण मात्र नहीं होते, यह एक जीवनपर्यंत प्रक्रिया है।
2) आंदोलन करना उच्छृंखलता नहीं, फ़ैशन-परेड भी नहीं, बल्कि एक बड़ा उत्तरदायित्व है। प्रदर्शनकारी के लिए सत्याग्रही होना आवश्यक है। उस पर यह ज़िम्मेदारी होती है कि अपने आचरण से स्वयं को अन्यायी तंत्र से नैतिक रूप से श्रेष्ठ सिद्ध करे।
3) वृहत्तर आंदोलन वृहत्तर मूल्यों के लिए होते हैं, नहीं तो वो बलवे में रूपांतरित होकर रह जाते हैं। गांधी जी के समय स्वराज का आदर्श था। आज मानवाधिकार ही सबसे बड़ा मूल्य है। हर वो आंदोलन जो शासन-विरोधी तो है, किंतु मानवाधिकारों के प्रति सजग नहीं है, अंतिम निष्पत्ति में न्यायपूर्ण नहीं कहला सकता।
मैं देखता हूं कि आंदोलनकारी अकसर इंक़लाबी नग़मे और तराने गाते हैं। वह भली बात है। इकलौती समस्या यह है कि ये तराने आपको आत्मपरीक्षण के लिए प्रेरित नहीं करते, उलटे आपमें नायकत्व की एक कल्पना भर देते हैं।
मैं तो सभी आंदोलनकारियों से आग्रह करूंगा कि गांधी जी को पढ़ें और सत्याग्रह के स्वरूप को गहराई से समझें। दुनिया की नज़र में चढ़ने के बजाय अपनी नज़र में खरा साबित होना हर सत्याग्रही का पहला और इकलौता दायित्व होता है, इसे सदैव स्मरण रखें। इति।
~ साभार सुशोभित
असहयोग आंदोलन भारत में आग की तरह फैला था। उसने सबको चकित किया था। उसने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के समीकरण भी बदल दिए थे और गांधी जी सहसा परिदृश्य के केंद्र में आ गए थे। कहने वाले कहते हैं कि इस पैमाने पर भारत-देश अतीत में कभी एकजुट होकर आंदोलित नहीं हुआ था।
इतना व्यापक जन-आंदोलन तो किसी भी नेता के लिए सबसे बड़ी विजय का क्षण होना चाहिए ना?
किंतु अप्रैल 1919 के उसी महीने में जब गांधी जी नड़ियाड गए तो उन्होंने "पहाड़ जैसी भूल" शब्द का उपयोग किया। पांच-छह वर्ष बाद आत्मकथा लिखी तो इसे एक अध्याय का शीर्षक भी बनाया। यह पहाड़ जैसी भूल क्या थी?
गांधी जी को लगता था कि उन्होंने जिन मूल्यों को केंद्र में रखकर सत्याग्रह शुरू किया था, उन्हें आंदोलनकारियों ने ताक पर रख दिया है। इससे पहले वे दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह आंदोलन कर चुके थे। भारत में भी चम्पारण और खेड़ा में उनके सत्याग्रह आंदोलन हो चुके थे। इन सभी आंदोलनों को आरम्भ करने से पहले उन्होंने वस्तुस्थिति का गहरा परीक्षण किया था। स्वयं मौक़े पर जाकर लोगों से मिले, बात की थी और राज्यतंत्र की सीमाओं को भी भरसक समझने का प्रयास किया था। उनके प्रभाव का क्षेत्र सीमित था। वे अपनी बातें अपने लोगों तक ठीक से पहुंचा सके थे। ये आंदोलन उनकी कल्पना के अनुरूप हुए थे।
किंतु असहयोग आंदोलन की बात और थी। 30 मार्च को दिल्ली में ऐतिहासिक हड़ताल हुई थी। 6 अप्रैल को बम्बई मुकम्मल बंद रहा। पूरा देश ठप्प हो गया। ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिल गईं। ना स्कूल-कॉलेज चल रहे थे, ना अदालतें काम कर रही थीं, ना कारख़ानों में काम हो रहा था। आंदोलन इतना सर्वव्यापी था और सत्याग्रह का प्रयोग इतना अभिनव था कि यह गांधी जी के नियंत्रण में नहीं रह गया था। अनेक स्थानों पर दंगे की नौबत थी। पंजाब में तनाव था। गांधी जी पंजाब जा रहे थे कि उन्हें रास्ते में गिरफ़्तार कर लिया गया। इससे आंदोलन और भड़क गया। नड़ियाद में रेल की पटरी उखाड़ने की कोशिश की गई। अहमदाबाद में मार्शल लॉ लगाया गया। वीरमगाम में एक सरकारी कर्मचारी की हत्या कर दी गई। बम्बई में बलवा हो गया। गांधी जी के मन में क्षोभ की यह भावना थी कि यह सब मेरे निमित्त हो रहा है। वे इसके साथ सहज नहीं थे।
जब बम्बई के कमिश्नर ग्रिफ़िथ ने गांधी जी से कहा कि यह सब आपकी शिक्षा का परिणाम है तो गांधी जी ने उत्तर दिया, मैं तो पंजाब में शांति-रक्षा के लिए जा रहा था, आपने ही मुझको बंदी बनाकर लोगों को आंदोलित होने का अवसर दिया। साथ ही उन्होंने यह भी जोड़ा कि मेरा विश्वास है कि भारत के लोग स्वभाव से शांतिप्रेमी हैं, दंगाई नहीं हैं। किंतु मन ही मन वे विचलित थे। 13 अप्रैल को गांधी जी ने बम्बई में सभा करके शांति की अपील की। उन्होंने कहा सत्याग्रह सच्चे का हथियार है, अगर लोग शांति न रखेंगे तो मैं सत्याग्रह की लड़ाई नहीं लड़ सकूंगा। आंदोलन मुल्तवी करने का विचार भी उनके मन में था। किंतु इसी दिन अमृतसर में जलियांवाला बाग़ हत्याकांड हो गया। अब तो आंदोलन रोके ना रुक सकता था।
आत्मकथा में गांधी जी ने लिखा है-
"मैंने अपना धर्म स्पष्ट देखा। जिन मज़दूरों के विषय में मैं अच्छे व्यवहार की आशा रखता था, उन्होंने उपद्रव में हिस्सा लिया, यह मुझे असह्य मालूम हुआ। मैंने अपने को उनके दोष में हिस्सेदार माना। जिस तरह मैंने लोगों को समझाया कि अपना अपराध स्वीकार कर लें, उसी तरह सरकार को भी गुनाह माफ़ करने की सलाह दी। दोनों में से किसी ने मेरी नहीं सुनी।"
तब कुछ सहयोगियों ने गांधी जी से कहा कि सब कहीं शांति की आशा रखने से तो आंदोलन चल ही नहीं सकेगा। किंतु गांधी जी का मत यह था कि तब वैसे आंदोलन का क्या औचित्य रह जाएगा, जो स्वयं अपने स्वरूप में अन्यायपूर्ण हो?
"सत्य के प्रयोग" में जिस अध्याय का शीर्षक "पहाड़ जैसी भूल" है, उसमें गांधी जी ने लिखा-
"क़ानून का सविनय भंग उन्हीं लोगों के द्वारा किया जा सकता है, जिन्होंने विनयपूर्वक और स्वेच्छा से क़ानून का सम्मान किया हो। जिसने समाज के नियमों का विचारपूर्वक पालन किया है, उसी को समाज के नियमों में नीति-अनीति का भेद करने की शक्ति प्राप्त होती है और उसी को मर्यादित परिस्थितियों में नियमों को तोड़ने का अधिकार प्राप्त होता है। लोगों के इस तरह का अधिकार प्राप्त करने से पहले मैंने उन्हें सविनय क़ानून-भंग के लिए निमंत्रित किया, अपनी यह भूल मुझे पहाड़-जैसी लगी।"
हम देख सकते हैं कि असहयोग आंदोलन भले औपचारिक रूप से फ़रवरी 1922 में चौरी चौरा कांड के बाद समाप्त कर दिया गया हो, किंतु वह एक आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि एक सुदीर्घ दुविधा की परिणति थी। अप्रैल 1919 में ही गांधी जी इस आंदोलन से सहज नहीं थे। कहा जा सकता है कि जब अप्रैल 1930 में गांधी जी ने नमक क़ानून तोड़कर सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया, तब वे स्वयं को पहले से बेहतर स्थिति में पाते थे। इन आठ वर्षों में वे सत्याग्रह की अपनी कल्पना को जनसामान्य तक बेहतर ढंग से पहुंचा सके थे।
सत्याग्रह के मूल में यह भावना है कि अगर अन्यायी की तुलना में आंदोलनकारी नैतिक रूप से श्रेष्ठ और उच्चतर आसन पर विराजित नहीं होता है, तो उसे प्रतिरोध करने का अधिकार नहीं है। वह दूसरे अर्थों में स्वयं अन्याय का एक और प्रतिरूप है।
एक विराट जनांदोलन के केंद्र में रहकर यों आत्मपरीक्षण करना सरल नहीं है। औरों के दोष देखना बहुत सहज है। गांधीवादी नैतिकता एक वृहत्तर मूल्य है, विप्लव के आत्मतुष्ट व्याकरण से उसको समझा नहीं जा सकता।
राजा अन्यायी है, इससे प्रजा गुणवान नहीं हो जाती। प्रजा को अपने तईं गुणवान होना होता है। यह एक बुनियादी गांधीवादी मूल्य है।
आंदोलनों में कुछ वैसी आवेगमयी भावना होती है कि वह आंदोलनकारियों को मन ही मन श्रेष्ठता की कल्पना से भरती है। तिस पर अगर राज्य-व्यवस्था अन्यायी, अहंकारी और असहिष्णु हो, तब तो आंदोलन में जैसे चार चांद लग जाते हैं। तब भी आंदोलनकारियों को कुछ बातें कभी नहीं भूलना चाहिए। और ये हैं-
1) निष्ठा और नैतिकता के प्रयोग आवेग का एक क्षण मात्र नहीं होते, यह एक जीवनपर्यंत प्रक्रिया है।
2) आंदोलन करना उच्छृंखलता नहीं, फ़ैशन-परेड भी नहीं, बल्कि एक बड़ा उत्तरदायित्व है। प्रदर्शनकारी के लिए सत्याग्रही होना आवश्यक है। उस पर यह ज़िम्मेदारी होती है कि अपने आचरण से स्वयं को अन्यायी तंत्र से नैतिक रूप से श्रेष्ठ सिद्ध करे।
3) वृहत्तर आंदोलन वृहत्तर मूल्यों के लिए होते हैं, नहीं तो वो बलवे में रूपांतरित होकर रह जाते हैं। गांधी जी के समय स्वराज का आदर्श था। आज मानवाधिकार ही सबसे बड़ा मूल्य है। हर वो आंदोलन जो शासन-विरोधी तो है, किंतु मानवाधिकारों के प्रति सजग नहीं है, अंतिम निष्पत्ति में न्यायपूर्ण नहीं कहला सकता।
मैं देखता हूं कि आंदोलनकारी अकसर इंक़लाबी नग़मे और तराने गाते हैं। वह भली बात है। इकलौती समस्या यह है कि ये तराने आपको आत्मपरीक्षण के लिए प्रेरित नहीं करते, उलटे आपमें नायकत्व की एक कल्पना भर देते हैं।
मैं तो सभी आंदोलनकारियों से आग्रह करूंगा कि गांधी जी को पढ़ें और सत्याग्रह के स्वरूप को गहराई से समझें। दुनिया की नज़र में चढ़ने के बजाय अपनी नज़र में खरा साबित होना हर सत्याग्रही का पहला और इकलौता दायित्व होता है, इसे सदैव स्मरण रखें। इति।
~ साभार सुशोभित
( विजय शंकर सिंह )
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