चन्द्रयान 2 का प्रक्षेपण हो चुका है। वह एक लंबी यात्रा पर निकल चुका है। चंद्रमा के संबंध में यह वैदिक मंत्र जो ऋग्वेद के पुरूष सूक्त का है के शीर्षक पर डॉ विद्यानिवास मिश्र जी द्वारा लिखा गया यह ललित निबंध पढें।
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चंद्रमा मनसो जात
( विद्यानिवास मिश्र )
चंद्रमा के जन्म–कर्म के संबंध में अनेक कथाएँ हैं, कहीं वे महर्षि अत्रि की संतान हैं, कहीं त्रिपुरसुंदरी की बाँईं आँख से समुद्भूत कहे गए हैं और कहीं उदधि के वे पुत्र कहे गए हैं, पर इन सब से अलग और विचक्षण कल्पना है कि ‘चंद्रमा मनसो जात:’ चंद्रमा विराट पुरुष के मन से उत्पन्न हुए हैं। मन से उत्पन्न हुए हैं तभी तो बुध के पिता हैं और मनोभव के अभिन्न मित्र। और तभी तो अंतर्जगत के समस्त सौंदर्य के और जीवन के निश्शेष अमृतत्व के अकेले प्रतीक हैं। चंद्रमा का कलंक है और उनकी क्षीणता भी मानव मन की क्षीणता है। अमृत-साधना का मंत्र चंद्रमा ने मन से ही तो पाया है, मन भी पार्थिव मन। चंद्रमा का पथ पृथ्वी की परिक्रमा के साथ-साथ मनुष्य की ऊँची उड़ान की लकीर है। ‘कारण गुणा:कार्यगुणारारभंते, (कारण के गुणों से कार्य के गुण होते हैं) यह न्यायशास्त्र के लिए चाहे सच हो, पर मैंने तो देखा है कि चंद्रमा कार्य होते हुए भी अपने कारण मन में अपने-अपने गुणों का प्रतिक्षेप करता रहता है। मन की पर्तों को समझने के लिए इसीलिए चंद्रमा की पर्तों को समझना आवश्यक हो जाता है।
माउंट विल्सन की वेधशाला वाली दूरबीन के लिए सुना है कि चंद्रमा की दूरी केवल पचीस मील रह गई है और वहाँ से चंद्रमा का चप्पा-चप्पा जमीन की पैमाइश कर ली गई है। चंद्रमा क के नक्शे में पहाड़ों और खोहों को टेढ़े-मेढ़े जबड़ातोड़ नाम भी दिए जा चुके हैं। चंद्रमा को रसाकर मानने वालों को बड़ी निराशा हुई है यह जान कर कि रस की वहाँ एक बूँद भी नहीं है, जो कुछ सुंदरता है वह बीहड़ और उजाड़, जीवन का वहाँ सर्वथा अभाव है। इसीलिए चंद्रमा की चढ़ाई में इधर लोगों को रस नहीं मालूम होता। मन के लिए भी दूरबीन आल्प्स की घाटियों में खड़ी करने का प्रयत्न फ्रायड, जुंग और एड्लर ने किया है, पर इन की दूरबीन और रंगीन है। मन की विषमताओं के केवल अधूरे पक्ष इसकी परिधि में आ सके हैं। मन का जीवन से कितना बिलगाव है यह तो पता चल गया है, पर मन की अंदरूनी नाप-जोख अभी ठीक-ठीक नहीं हो सका है। चंद्रमा छिछोरा रहा है, उसका भेद देने के लिए अश्विनी, भरणी, कृत्तिका आदि-आदि सत्ताइस चमकने वाली पत्नियाँ हैं, जो सौतियाडाह से दहकती रहती हैं। मन की गहराई अतलस्पर्शिनी है, उसका भेद लेने के लिए सुषुप्ति तक पहुँचना पड़ता है और ‘सुन्न महल में दिअना’ जलाना पड़ता है। ‘न यत्र सूर्योभाति न चंद्र तारका नेमा विधुती भांति कुतोऽयमग्रि:’ (जहाँ सूर्य का प्रकाश नहीं, चंद्रमा का प्रकाश नहीं, आग की कोई चर्चा ही क्या उठेगी) मन का लोक पृथ्वी के परमाणु में समेट कर समस्त ब्रह्मांड से बड़ा है, उससे भी अधिक दुर्ज्ञेय है, अज्ञेय मैं न कहूँगा, क्योंकि अपने को अज्ञेय घोषित कराने वाला तो ज्ञान को चुनौती दे देकर ज्ञेय हो जाता है। मन की पैमाइश इसलिए अभी पश्चिमी मनीषी तक नहीं कर पाए हैं इतना ध्रुव है। सूक्ष्म को स्थूल बना कर देखने का जिसे अभ्यास हो, वह स्थूल से सूक्ष्म तक का साक्षात्कार कर भी नहीं सकता। पश्चिम से हमारा अभ्यास भिन्न है, हम ससीम से असीम की ओर जाने का प्रयास करते हैं, सरूप से अरूप की ओर जाने की चाहना करते हैं, और वैखरी से परा तक पहुँचने की सीढ़ी लगाते हैं, इसलिए हमने सोचा-समझा और कह दिया ‘चंद्रमा मनसो जात:’ चंद्रमा मन से उत्पन्न हुआ। मन की खोज चंद्रमा के सूत्र से ही की जा सकती है, इसी सूत्र के सहारे खोज हमने की है और चंद्रमा की पर्त चाहे न उघारी हो पर मन की गाँठ हमने खोली। सो कैसे? चंद्रमा की अमृत-साधना की बदौलत। कभी किसी ने कृष्ण पक्ष की अष्टमी के शशि को देखा है। साँझ से नीरव निशीथ तक अनंत आकाश में अनंत झिलमिलाते नक्षत्र पुंज में अपना दुविधा सुधा को बाँट बिखरा कर वारुणी के अंचल में मुँह ऊँचा कर के झाँकते हुए महासाधक को किसी ने देखा है? आधी रात के झाँय-छाँय करते हुए सूनेपन में अपनी आधी कला लुटा कर शेष आधी कला की बंकिमा में खिलते हुए इस बेला के फूल को किसी ने देखा? जिसने देखा होगा, वह मन की उस साधना का मर्म भी समझ सकेगा, जिसमें जवानी अपने हृदय का आधे-आध करके आधा हृदय हथेली पर रख कर आधे हृदय से ही उमगती रहती है। कुछ और स्थूल जगत में चलें तो इनका एक चित्र देखें।
एक किशोरी के मन में एक किशोर के लिए चाह उकसती है और उसका मनचाहा उसे मिल भी जाता है, वह खुद मनचाहे की मनचाही बन जाती है। यहाँ तक कि मनचाहा उसके हाथ बिक जाता है। अंत में बीच जवानी में जब मनचाही पूरे तौर से उसका मन हथिया लेती है तब धीरे-धीरे वह एक-एक करके उस चाहे मन के पंख नोच-नोच कर अलग करने लगती है, अपनी एक-एक मुस्कान पर उसकी सौ-सौ मुरकानि करती हुई उसे निपाख और पंगु बना देती है। किंतु स्नेही का बिका हुआ मन आह नहीं भरता है, हाँ विषभरी मुस्कान की एक चोट में घायल होकर गा भर देता है। उस गान की अमृत स्वर-लहरी में जगत उसके बलिदान का प्रतिपादन पा जाता है। भर रात ठूँठ गुलाब के काँटे से अपने को छिदा कर अपने रक्त से सींच कर उस ठूँठ में सुमन खिलाने वाली आस्कर वाइल्ड की बुलबुल का बलिदान भी इस बलिदान के आगे हलका पड़ता है क्योंकि बुलबुल का बलिदान कम से कम गुलाब की हँसी मूठ में लिए रहता है और गुलाब ज्यों-ज्यों ठूँठ से हरा हो जाता है, ज्यों-ज्यों पल्लवित से किसलयित होता जाता है और ज्यों-ज्यों किसलयित से कोरकित होता जाता है त्यों-त्यों कृतज्ञता के आभार में वह तो अपने काँटे सिमटाता रहता है। बुलबुल स्वयं अपने नन्हें पैरों से खींच-खींच कर अपना हृदय काँटे में घुमाती चली जाती है। यहाँ तो मानव जगत में भरी जवानी में प्रेयसियाँ सरबस लेकर भौं सीधी नही करतीं और छटपटाते हुए मन-पँछी को मरोरती चली जाती हैं। तुलसी की सात्विक मंजरित सुरभि का स्वाद रत्नावली को नहीं मिला होगा, कालिदास की कामार्त्त विरहव्यथा की घटा उनकी विद्योत्तमा के आँगन में नहीं उनई होगी शेक्सपीयर की विरसतामई थकान की अनुभूति उनकी चतुर्दशपादियों की अज्ञात आराध्या को नहीं हुई होगी, दांते की प्रेम-यात्रा का अंदाज भी बीट्रिस को नहीं लगा होगा, घनानंद की सुजान या दूर क्यों शरत बाबू की पियारी को उनके स्वोत्सर्ग की झाईं भी न दीखी होगी। हवाई जहाज और राकेट तक पहुँच कर भी, अणु के खंड-खंड करने के बाद भी ध्वंस-शक्ति का महाजाल बिछाने के बाद भी मन के क्षेत्र में जगत लगभग वहीं है, जहाँ गुहावासी रहा होगा। मन की साधना भी लगभग वहीं है और इसलिए फ्रायड पढ़े बिना ही कालिदास का नीवीबंधोच्छ्वास समझ में आ जाता है, भवभूति का हरिचंदन पल्लवों का आश्च्योतन भी समझ में आ जाता है और देव की वियोगिनी की योगसाधना भी।
मानव मन का यही बलिदान उसकी अमृत-साधना है। बिना इस सँकरे में आए वह अमृत हो नहीं पाता, बिना अमृत हुए अमृत दे भी नहीं पाता। पुराणों में कथा है कि कृष्णपक्ष में पितर लोग चंद्र की एक-एक कला पीते हैं और शुक्ल पक्ष में देवता, पर चंद्रमा पिया जाता है दोनों पक्षों में, अमावस्या के दिन सबसे बड़ा उत्सव होता है पितरों का और पूर्णिमा के दिन देवताओं का। और साल भर में अमावस्याओं में भी सबसे पुण्यवती अमावस्या आश्विन की होती है, तथा पूर्णिमाओं में भी सबसे बड़ी पूर्णिमा उसी की होती है। चंद्रमा मृत और अमृत दोनों को पिलाता है, एक को पिलाता है क्षीण हो-होकर और दूसरे को पिलाता है पीन हो होकर। पितर पी कर भी नहीं तृप्त होते, देवता पीकर जगत तृप्त कर देते हैं। मनुष्य का मन भी दोनों को पीलाता है जो मरा है उसे भी, जो जीवित है उसे भी। मरे को पिला कर मारने का बल देता है, जिए को पिला कर जिलाने का बल देता है। अमा की अँधेरी रात में चंद्र रीता होकर भी द्वितीया की अर्चना पाने की तैयारी में डूबा रहता है, संकोच में छिपा रहता है और पूर्णिमा की उजेली चाँदनी में वह पूर्ण होकर भी अनागत की छाया से पीला पड़कर घूमता रहता है। ठीक यही दशा मन की है, दुख को गहन रात्रि में वह भार की आस में भीना और सुख के चरम उत्कर्ष पर उतार की निढाल से चूर।
पर बात चली थी कृष्ण पक्ष की अष्टमी के महासाधक शशांक की। वाम साधना में तो कृष्ण पक्ष की अष्टमी का यदि विशेष महत्व है तो अकारण नहीं। वाम साधना जिसे सहज मानकर तत्वदर्शियों ने सहज साधना की भी संज्ञा दी है, कृष्ण पक्ष की अष्टमी के अगले दो पहरों का सूना अंधकार भर नहीं माँगती, वह जीवन के पूर्वार्द्ध का भी निरालोक अंधकार माँगती है। यह अंधकार किसने नहीं दिया है, व्यास ने नहीं दिया कि कालिदास ने नहीं दिया, सूर ने नहीं दिया कि तुलसी ने नहीं दिया, ह्यूगो ने नहीं दिया कि गेटे ने नहीं दिया? किसने नहीं दिया? शक्ति के तीन नाम हैं... महालक्ष्मी, महासरस्वती, और महागौरी। जिसमें वैभव की कामना है उसने क्या अपना पूर्वार्द्ध नहीं गँवाया? जिसने स्नेह की चाहना की, उसने अपना पूर्वार्द्ध विछोह के अछोर अंधकार में नहीं गँवाया? सीधी-सादी चौड़ी डगर पकड़ कर चलने वालों की बात नहीं करता, क्योंकि उस राह पर चलने वाले भीड़ में धीर-धीरे सरकते हुए चलते हैं, जन्म-जन्मांतर में भी चींटी की तरह वे जहाँ के तहाँ ही पड़े रह जाते हैं, पर जो अनजानी एक-पदियों पर चलने का उत्साह रखते हैं, वे आधा जीवन अनुभव या ठोकर में गँवाते ही हैं। दूसरे के मारे शिकार पर उनके दाँत नहीं चलते और दूसरे की चली डगर पर उनके पग नहीं पड़ते, उनकी बात मैं करता हूँ, इसलिए कि उनकी बिरादरी में शामिल होने को न जाने कब से ललक है। कृष्णपक्ष की अष्टमी का इसीलिए भक्त हूँ। जानता हूँ निशीथ अभी दूर है, पर अंधकार के लिए ममता बड़ी प्रबल है। पांडवों ने इस अंधकार से ममता की थी और कभी अपने जीवन के अंतिम पहर में उन्हें विगत अंधकार के लिए बड़ी ललक भी हुई थी,
विपद: संतु न: शश्वद्यत्र यत्र जगद्गुरो
तत्र ते दर्शनं न: स्यादपुनर्भवदर्शनम्॥
(हे जगद्गुरु, विपत्तियाँ हमारे ऊपर सदा रहें, जिसमे तुम्हारा पुनर्जन्म का अदर्शन कराने वाला दर्शन तो मिलता रहे।)
अस्तु, अष्टमी तो चंद्रमा का एक पहलू मात्र है। चंद्रमा के और भी तो कोने-कगारे हैं। सबसे बड़ा तो उसका कलंक ही है, जिसे कवियों की कल्पना न जाने कौन-कौन रंग प्रदान करती रही है। शशक, मृग तो लोगों ने कुतूहलवश कहा है, तत्वत: कलंक चंद्रमा के उर:स्थल के गहनतम गर्त हैं, उसके हृदय के अंधकार की सबसे अछूती गहराई है और उसको गर्व से आस्फालित न होने के लिए सबसे बड़े अंकुश। मन की दुर्बलता भी उतनी ही संलक्ष्य होती है। विवेकानंद ने कहा था कि मनुष्य के हृदय में दुर्बलता न हो, तो ऊँचे उठने की प्रेरणा न उसमें आए, करुणा चीत्कार न उसमें उठें और न उसमें दिव्य ज्योति ही जगे। सहृदय रहीम ने भी इसी दुर्बलता से अपने आराध्य को आभारी बनाया था…
नवनीतसारमपहृत्य शंकया स्वीकृतं यदि पलायनं त्वया
मानसे मय घमान्धताभसे नंदनंदन कथं न लीयसे॥
(माखन चुराकर यदि तुमने भागने की ही ठानी है तो कहाँ मारे-मोर फिरोगे, सारा जगत तो तुम्हारे प्रकाश से आलोकित है, हाँ, प्रगाढ़ अंधकार वाले मेरे मन के कोने में आकर छिपना चाहो तो भाई, आ जाओ जगह सुरक्षित है) कहाँ तो चंद्रमा में कलंक बसता है और कहाँ उस मतवाले रहीम ने अपने कलंक में ब्रजचंद्र को बसाना चाहा था। यह विधि की विडंबना नहीं मन की विचित्रता है,जिसका कलंक जितना ही बड़ा होगा उसकी अमर ज्योति भी उतनी ही पूरी होगी। इसमें यह न समझा जाए कि कलंक ही महनीय अथवा पूजनीय है। पर उसकी पूजा का साधन है कलंक, उस अमरता तक पहुँचने की सीढ़ी है कलंक, जो इस साधन तक ही रह जाना चाहता है, जो अपनी दुर्बलताओं की गठरी पर बैठे रहने में ही अपनी जिंदगी बिता देता है और जो अमृत कला के लिए साहस का कण भी संचित नहीं कर पाता, वह तो अपने साधनों का दुरुपयोग करके पाप में एक दहाई और वृद्धि करता है। कलंक सबको ऊँचे नहीं उठाता, लेकिन जिसे उठाता है, उसे चरम शिखर तक पहुँचा देता है। इसलिए कलंक को महान पुरुष सहर्ष धारण करते हैं। स्वयं शशि को सिर पर बिठलाने वाले शंकर गले में कालकूट धारण करते हैं। शशिशेखर के पितामह का कलंक तो मृगशिरा नक्षत्र के रूप में अब भी जाज्वल्यमान है और शशिशेखर के आराध्य तथा आराधक विष्णु की छाती पर लात का चिह्न धारण करते हैं। शंकर को महाविष मिला, क्योंकि उनमें क्रोध का लघुविष आ गया था, ब्रह्म को व्याध बने रुद्र का तीर मिला, क्योंकि उनमें काम आ गया था। विष्णु को लात मिली, क्योंकि उन्हें नींद आ गई थी। विष पीने के बाद शंकर से बड़ा दया और करुणा का सागर नहीं रहा, तीर से बिंधे जाने पर ब्रह्मा से बड़ा ब्रह्मचारी नहीं हुआ और लात मिल जाने पर विष्णु से बढ़ कर जागरूक पालनकर्ता नहीं हुआ। चंद्रमा कलंकी हुआ तो क्या हुआ। चंद्रमा के पिता (मन) के भी आरध्य परब्रह्म श्रीकृष्ण को भी कलंकी होना पड़ा। प्रीति से छूआछूत भी रखने वाले महापुरुष को छैला बना दिया जाए, उसके लिए इससे बड़ा कलंक क्या है? पर इस कलंक को धारण करके ही ब्रजेश्वर ने भारतीय साहित्य को उज्ज्वल शृंगार की पद्मनिधि लुटा दी है। चंद्र का कलंक छिपता नहीं, मन छिपाता है। जो मन नहीं छिपाता, वह कृतकार्य हो जाता है। मन छिपाता भी तभी नहीं है जब वह किसी ऐसे आराध्य की चिंता में लवलीन हो जाता है, जिसके वदनविंब के आगे,
नित ही अपूरब सुधाधर वदन आछो
मित्र अंक आए जोति ज्वालनि जगतु है।
अमित कलानि ऐन रैन द्यैस एकरस
केस तम संग रंग राँचनि पगतु हैं।।
सुनि जान प्यारी घन आनंद ते दूनो दिपै
लोचन चकोरनि सो चौंपनि खगतु हैं।
नीठि दीठि परें खरकत सों किरकिरी लों
तेरे आगे चंद्रमा कलंकी सो लगतु हैं॥
निष्कलंक मुख चंद्र की प्यास समस्त कलंक धो देती है। वह प्यास दूसरों के लिए परम तृप्ति बन जाती है। व्यास को वेदपुराण-इतिहास में डूबने के बाद भी प्यास लगी थी और उस प्यास ने श्रीमद्भागवत का रसफल किया।
चंद्रमा की कला का घटाव-बढ़ाव नियत गति में बँधा चलता है पर मन इतना बँधा थोड़े ही है, हाँ वह अपने से बँधता है तो चाहे उस बंधन से पिंड न छुड़ा सके। चंद्रमा को इसलिए यदि एक पूर्णिमा मिलती है तो साथ ही अमावस्या भी एक से अधिक नहीं मिलती। निरंकुश होने के कारण ही मन की दशा ऐसी हो जाती है कि ‘जीवन मूरति जान को आनन है विन हेरैं सदाई अमावस’, साथ ही कभी-कभी अमावस चीर कर निकलने पर वह अनंत ज्योत्स्नामयी राकामयी स्थिति में भी चला जाता है, जहाँ से फिर लौटना नहीं होता।
चंद्रमा की तरह आकर्षण में बँधकर चलने वाले घरपोसू लोग भी होते हैं, जो पुत्र-कलत्र चिंता में इतने घिर जाते हैं कि अपना घटाव-बढ़ाव लख भी नहीं पाते, पर घटते-बढ़ते उनकी आयु सिरा जाती है। कभी-कभी स्थिरता उनमें आती ही नहीं कि चंद्रमा की ही भाँति अपने आप उसके गले में सुधादायिनी मूर्ति न लिपट जाए। पर मन को मुक्त रखने के लिए शरीर को व्याथा की व्याली से लपेटना पड़ता है, सब कुछ लुटा कर उसे केवल प्राण रक्षामात्र इसलिए करनी पड़ती है कि…।
दृग नीर सों दीठहिं देहु बहाय पै वा मुख कौं अभिलाखि रही।
रसना विष बोरि गिराइ गसों वह नाम सुधानिधि भाखि रही।
घनआनंद जान सुबैननिं त्यों रचि कान बचे रुचि साखि रही।
निज जीवन पाय पलैं कबहूँ, पिय कारन यों जिय राखि रही।
नेह में इतनी ‘बिथा’ ढोने वाले मन से मुक्त रहते हैं और वे अपने अवच्छिन्न प्रिय को प्राप्त न करें अनवछिन्न प्रिय को आवश्यक ही प्राप्त करते हैं। उनकी प्रीति में जो जितना ही अपना शरीर बाँधता है, वह बंधनों से उतना ही मुक्त हो जाता है।
दुस्सहप्रेष्ठविरहतीव्रतापधुताशुभा:।
ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेषनिर्वृत्या क्षीणमंडला:॥
(प्रियतम के दुस्सह विरह के तीव्र ताप में समस्त अशुभ को धोकर और ध्यान में अच्युत प्रियतम का आलिंगन के द्वारा समस्त पुण्य का भोग कर) परमानंद से एकाकार हो जाते हैं। चंद्रमा विचार पार्थिव बंधन का दास उसे फेरा लगाना ही होगा, पर फेरा लगाते हुए भी वह सर्वथा अमृत पथ का संकेत किया करेगा, अपनी दुर्गति से सदा सद्गति की शिक्षा देता रहेगा। मन से निकल कर भी मन का मधुबंधन तो वह पा सका, पर मोक्ष न पा सका। चंद्रलोक पुण्यालोक तो बन गया पर शाश्वत लोक पदवी उसे नहीं मिल। ‘क्षीणे पुण्ये मर्त्य लोकं विशांति’ कभी न कभी चंद्रमा से फिर नीचे उतरना ही पड़ता है। मन यहाँ भी उससे बड़ा है। वह मर्त्यलोक में रह कर परमानंद वाले लोकों की सृष्टि करता रहता है। वह स्वयं परमात्मा का आसन बनकर बुनता-उधेड़ता रहता है।
फलित ज्योतिष के अनुसार रोहिणी का चंद्रमा बहुत प्रशस्त माना गया है। सुना है रोहिणी के लिए पक्षपात ने ही चंद्रमा को क्षय का शाप दिलवाया है। पर तब भी रोहिणी के लिए चंद्रमा का लगाव है सविशेष। रोहिणी चंद्रमा की अरोहिणी भी है। चंद्रमा की आश्रिता भी है, आश्रय भी है, इसलिए उसके घर में चंद्रमा सर्वोच्च हो जाता हैं। स्वयं श्रीकृष्ण का जन्म भी रोहिणी के चंद्रमा में ही हुआ है, तभी वे व्रजचंद्र हुए, उन्हें किसी ने भानुकुलभानु नहीं कहा। रामचंद्र का जन्म हुआ है उच्च सूर्य में और भानुकुलभानु सही माने में कहे भी गए। किंतु श्रीकृष्ण मनोभव तत्व के अधिष्ठान, वे मन के मीत, चंद्रमा से ही बने हुए हैं। उनकी उपासना में अंधे रहने वाले अलबत्ता सूर्य बन गए, पर वे स्वयं ‘देवकीजठरभूरुडुराज:’ बने रहे अकेले उन्हें चमकना नहीं था, उन्हें बनना था उडुराज, नक्षत्रमालाओं का आराध्य उन्हें प्रात: सायं अर्ध्य नहीं लेना था, प्रताप नहीं फैलाना था, अमृत छिड़काना था। पर उन्हें यह शीतल ज्योति मिली कहाँ से? उनकी रोहिणी कौन बनीं? जिन्होंने अपना नाम खोकर राधना करने में ही अपने को निश्शेष कर दिया और जो इसीलिए आज राधा या राधिका नाम से ही विश्रुत भी हैं, उन्होंने ही वृषभानु का तेज लेकर अवतार लिया केवल कृष्ण को चंद्र बनाने के लिए धरती की बेटी ने अपनी क्षमा की बलि देकर राम को सूर्य-सा तेजस्वी बना दिया, वृषभानु की कन्या ने अपने स्नेह की बलि देकर कृष्ण को कमनीय बना दिया। इस शशि की उपासना करके सूर सूर्य हो गए और उस भानु की वंदना के लिए तुलसी शशि हो गए, जिन्होंने व्यक्ति के लिए आदर्श उपस्थित किया, वे लोकरंजक रह गए। राम के राज्य की बड़ाई हुई और कृष्ण के रूप की बड़ाई हुई। यह है विडंबना, पर इन दोनों की शक्ति के स्रोतों की यह महिमा है, दानों अपनी उल्टी दिशा में पड़ गए हैं। मन की यही बात है। उसे स्फूर्ति या शक्ति किसी रोहिणी से ही मिलती है, रोहिणी चाहे रूपमई हो, चाहे रसमयी हो, चाहे गंधमयी हो, चाहे स्पर्शमयी हो, चाहे शब्दमयी हो,या चाहे पंचमयी ही क्यों न हो, पर उसकी उठान के लिए रोहिणी का अवलंबन अपेक्षित है। रोहिणी के लिए जिसे भटकना पड़ता है, वह शून्य में खो जाता है, पर रोहिणी जिसे स्वत: मिल जाती है वह ऊँचे उठ जाता है। पर सबसे ऊँचे उठाने वाली रोहिणी शब्दमयी ही होती है, यह अक्षर उन्नति कराती है।
‘चंद्रमा मनसो जात:’ की ओर एक बार फिर लौट कर दृष्टि जाती है, तो याद आता है कि इस मंत्र का विनियोग आरती के लिए है।
मन के आलोक का डिंडिमनाद करने के लिए मानों मंत्र उच्चरित होता है, मंत्र का दूसरा अंश है :‘चक्षो: सूर्यों आजाएत: (चक्षु से सूर्य उत्पन्न हुए) अर्थात आँख जिसका महत्व मन से से कहीं कम है सूर्य को पैदा करती है। इसी से पता चल जाता है कि भीतरी ज्योति के आगे बाहरी ज्योति कितनी छोटी है। मन की धुँधली तरल स्वप्निल ज्योति जो देती है, वह आँख की भास्वर दृष्टि नहीं देती। आँख चमत्कृत अवश्य करती है, पर सुख नहीं देती। इसीलिए आरती करते समय पहले स्मरण किया जाता है चंद्रमा और मन का ही। जिस आरती में हृदय का सोमदीप नहीं जला, वह आरती छूँछी है, जिस पूजा में ऐसी आरती नहीं हुई, वह पूजा छूँछी है और जिस घर में ऐसी पूजा नहीं वह घर भी छूँछा है। कोई भी देवी देवता हो, कोई भी आराध्य हो, कोई भी सेव्य हो उसकी आरती में ‘चंद्रमा मनसो जात:’ पढ़ना उसे तृप्त कर देता है। जो नहीं तृप्त होता होगा, वह पिशाच होगा। हृदय की लौ जिसे आलोकित न कर सके, वह महामूढ़ होगा और उसके लिए जो कुछ ऊपर लिखा गया है वह चंद्रगस्त प्रलाप ही जान पड़ेगा। प्रलाप है या विलाप है, यह दोनों है इसे मैं बता नहीं सकता। यह तो भविष्य की कसौटी बताएगी, किंतु मन कभी-कभी मूढ़ ज्वाला में घबरा कर चाहता आवश्य है कि
विशालविषयाटवीवल लग्नय दावानल
प्रसृत्वरशिखावलीविकलित मदीयं मन:।
अमंदमिलदिन्दिरे निखिलमाधुरीमंदिरे
मुकुंदमुखचंदिरे चिरमिदं चकोरायताम्॥
आग की लपटों से बचाव का कोई रास्ता नहीं है जब तक कि किसी अमंद शोभा वाले मुखचंद्र को पीते रहने की चकोरता न आ जाए, इसलिए मन उस चंद्र का चकोर बनने के लिए तड़प रहा है, अब चाहे चंद्र दर्शन दे या नहीं, कम से कम आग चुगने की सामर्थ्य तो दे ही दे, आशा का बल तो दे ही दे, जिससे दुराशा के दुर्दिन कट जाएँ। यह चाह उठती है, इसी में जन्म की सार्थकता मानता हूँ अभी टिक नहीं पा रही है, तो चंद्रमा भी चंचल, मन भी चंचल दोनों की देखादेखी भी नहीं, केवल सुना-सुनी है, दोष ही क्यों किसी को दूँ? तब तक अपने मन को आश्वासन देने के लिए जपता रहूँगा ‘चंद्रमा मनसो जात:’ मन कम से कम अवसाद से उबरा रहेगा। इतना बहुत है, छीना झपटी में इतना हाथ आन भी बहुत बड़ा लाभ है।
( श्रावण 2009, मंझरिया )
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डॉ विद्या निवास मिश्र (28 जनवरी 1926 - 14 फ़रवरी 2005) संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान, जाने-माने भाषाविद्, हिन्दी साहित्यकार और सफल सम्पादक (नवभारत टाइम्स) थे। उन्हें सन 1999 में भारत सरकार ने साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। डॉ विद्यानिवास मिश्र का जन्म 28 जनवरी 1925 को उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के पकडडीहा गाँव में हुआ था। वाराणसी और गोरखपुर में शिक्षा प्राप्त करने वाले श्री मिश्र ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से वर्ष 1960-61 में पाणिनी की व्याकरण पर डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित की थी।
उन्होंने अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में भी शोध कार्य किया था तथा वर्ष 1967-68 में वाशिंगटन विश्वविद्यालय में अध्येता रहे थे। मध्यप्रदेश में सूचना विभाग में कुछ समय कार्यरत रहने के बाद वे अध्यापन के क्षेत्र में आ गए। वे 1968 से 1977 तक वाराणसी के सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में अध्यापक रहे। कुछ वर्ष बाद वे इसी विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे। उनकी उपलब्धियों की लंबी शृंखला है। लेकिन वे हमेशा अपनी कोमल भावाभिव्यक्ति के कारण सराहे गए हैं। उनके ललित निबंधों की महक साहित्य- जगत में सदैव बनी रहेगी।
ललित निबन्ध परम्परा में ये आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी और कुबेरनाथ रायके साथ मिलकर एक त्रयी रचते है। पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी के बाद अगर कोई हिन्दी साहित्यकार ललित निबंधों को वांछित ऊँचाइयों पर ले गया तो हिन्दी जगत में डॉ॰ विद्यानिवास मिश्र का ही जिक्र होता है।
© विजय शंकर सिंह
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