Monday, 29 July 2019

आरटीआई एक्ट में संशोधन, सुप्रीम कोर्ट और संविधान / विजय शंकर सिंह

कानून के जानकारों के अनुसार आरटीआई  एक्ट मे किये गए संशोधन असंवैधानिक हैं। अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट इन्हें रद्द कर सकती है।

संविधान के मौलिक अधिकारों के संदर्भ में यह तर्क पढें।
1. सूचना का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) जो अभिव्यक्ति का अधिकार है, से संबंधित है ।

2. संविधान, मौलिक अधिकारों की रक्षा की गारंटी लेता है। इस गारंटी में केवल वे ही अधिकार नहीं है जो यहां उल्लखित हैं बल्कि उनसे जुड़े सभी अधिकार भी आ जाते हैं।

3. संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का नकतात्मक ( Negative Obligation ) और सकारात्मक Positive Obligation ) दोनों पहलू है। नकतात्मक पहलू यह है कि वह व्यक्ति यानी इंडिविजुअल को राज्य यानी स्टेट के हस्तक्षेप से बचाता है और सकारात्मक पहलू यह है कि वह राज्य को इन मौलिक अधिकारों की रक्षा, संवर्धन और उन्हें पूरा करने के लिये स्वीकृति  भी देता है ताकि वह व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को कानूनी रूप से सुरक्षित रख सके।

4. अदालत, संसद को यह निर्देश नहीं दे सकती है कि वह मौलिक अधिकारों के सकारात्मक पक्ष जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है, पर कोई कानून बनाये, पर निम्न कार्य कर सकती है और ऐसा हुआ भी है,
(1) अगर किसी मामले में विधि शून्यता है यानी कोई कानून नहीँ बना है, तो वह एक दिशा निर्देश जारी कर सकती है जो जब तक संसद उस मामले में कोई कानून नहीं बनाती तब तक वही दिशानिर्देश कानून की तरह से लागू होगा।
(2) अगर कोई कानून बना है तो उसका परीक्षण करना कि वह कानून संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के सकारात्मक पक्ष के अनुसार बने हैं या नहीं। उन कानूनों से संविधान के किसी प्राविधान का हनन तो नहीं हो रहा है ।

5. संसद कोई भी कानून संविधान के प्राविधानों के विपरीत नहीं बना सकती है। अगर अदालत बने हुये कानून का परीक्षण कर के इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि वे कानून संविधान की मूल भावना के विपरीत हैं तो वह असंवैधानिक मानते हुये उन्हें पूरा या जो भी अंश असंवैधानिक उसे मिले वह रद्द कर सकती है।

6. इसकी अगर तार्किक व्याख्या करें तो अगर कोई बना हुआ कानून है और उसमे संसद कोई ऐसा संशोधन करती है कि मौलिक अधिकारों का सकात्मक पक्ष कमज़ोर होकर मौलिक अधिकारों को बाधित करता है तो अदालत उसे भी असंवैधानिक मानते हुए रद्द कर सकती है, और उसे ऐसा कर कानून को पूर्ववर्ती रूप में ला देना चाहिये।

उपरोक्त कानूनी विदुओं के परिशीलन से यह स्पष्ट होता है कि सूचना के अधिकार अधिनियम में किया गया संशोधन असंवैधानिक है। संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के सम्बंध में बनाया गया यह कानून संवैधानिक कानून का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। अदालत को यह परीक्षण करना है कि मौलिक अधिकारों के सकारात्मक पक्ष को कहीं इन संशोधनों द्वारा कमज़ोर तो नहीं किया गया है। आगर वे पक्ष कमज़ोर किये गए हैं तो अदालत इन संशोधनों को मौलिक अधिकारों पर आघात मानते हुए रद्द कर सकती है।

* सूचना का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अनुसार एक मौलिक अधिकार है।

2013 में आरटीआई पर एक याचिका की सुनवायी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा है उसे यहां पढें,
"the right to information is a facet of freedom of speech and expression contained in Article 19(1)(a) of the Constitution of India… [the] right to information thus indisputably is a fundamental right, so held in several judgments of this Court."

" सूचना का अधिकार, संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में दिया गये मौलिक अधिकार का ही एक रूप है। अतः सूचना का अधिकार, निर्विवाद रूप से एक मौलिक अधिकार है औऱ इसे इस अदालत में अनेक बार स्थापित किया जा चुका है। "

इस कानूनी विंदु के अतिरिक्त यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि आज से एक सदी से भी पहले, जब अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता को लोकतंत्र का अनिवार्य पक्ष माना गया था तब, इसके निम्न विंदु  चर्चा में आये थे।
यह बिल्कुल सही कहा गया है कि जब तक विचारों का निर्बाध आदान प्रदान नहीं होगा तब तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुरक्षित नहीं बनाए रखा जा सकता है। तब तक जनता अपने प्रतिनिधि को भी नही चुन सकती है। यहां यह उल्लेखनीय है कि, अगर राज्य किसी सूचना को, जनता तक पहुंचने के लिये रोक देता है तो, यह सूचनावरोध, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित करता है जो लोकतंत्र का मूलाधार है। ऐसी स्थिति में जब जनता को उसकी सरकार द्वारा किये गए क्रियाकलापों की जानकारी ही नहीं होगी तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक भ्रम बन कर रह जाएगी।

* संविधान मौलिक अधिकारों की रक्षा का वचन देता है। मौलिक अधिकारों से तात्पर्य केवल वे ही मौलिक अधिकार नहीं जो संविधान में लिखे हुए हैं, बल्कि उन मौलिक अधिकारों की रक्षा में जो भी अधिकार हैं उनकी भी रक्षा करने की वह गारंटी लेता है।

इसी से संबंधित एक मामला था जो चुनाव में नोटा के इस्तेमाल पर था। पीयूसीएल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के एक मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि अगर कोई खड़े हुये उम्मीदवारों में से नही चुनना चाहता तो उसे भी 'इनमें से कोई नहीं' नोटा का विकल्प दिया जाना चाहिये। यह अनुच्छेद 19(1)(a) के अंगर्गत एक मौलिक अधिकार है जो वोट के अधिकार को स्पष्ट करता है। तभी नोटा का विकल्प निर्वाचन आयोग ने दिया।

अब आरटीआई के संशोधन की बात करें तो, सूचना आयुक्त, राज्य और जनता के बीच एक कड़ी है जो जनता के मौलिक अधिकार, सूचना के अधिकार को सुरक्षित रखने में सूचनाएं देकर सहायता करता है। वह इस अधिकार को सुनिश्चित करता है।

* जैसा कि पहले कहा जा चुका है संविधान मौलिक अधिकारों के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही पक्षो की रक्षा की गारंटी लेता है।

यह बात कई बार सुप्रीम कोर्ट अपने कई फैसलों में कह चुका है। उदाहरण के लिये पृथीपाल सिंह बनाम भारत सरकार के मुक़दमे का संदर्भ लें। हाइवे पर शराबबंदी भी राज्य के सकारात्मक पक्ष की ओर इशारा करता है। अगर राज्य ने शराबबंदी नहीं कर रखी है और शराब पीना किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार हो सकता है। उसकी रक्षा की जानी चाहिये। पर इसी मौलिक अधिकार का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि शराब की दुकानें ऐसी जगह न हों, जहां से पीकर एक्सीडेंट होने लगें। इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने हाइवे के किनारे से शराब के ठेके 500 मीटर दूर कर दिये हैं।

ऐसा ही एक मामला अमिता बनाम भारत सरकार का है जो अनुच्छेद 14 से सम्बंधित है।यह मौलिक अधिकार यह कहता है कि हर व्यक्ति समान है। लेकिन यह सरकार का भी दायित्व है कि वह ऐसी परिस्थितियां बनाये जिससे, हर व्यक्ति की गरिमा समान रहे। मौलिक अधिकारों के दोनों पक्ष नकरात्मक और सकारात्मक दोनों ही मिल कर मौलिक अधिकारों को बल प्रदान करते हैं।

मौलिक अधिकारों के इन दोनों पक्षों पर सबसे सारगर्भित निर्णय आधार और निजता के अधिकार पर सुप्रीम कोर्ट का आया है। इस मामले में फैसला देते हुये सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि,
" the Constitutional right is placed at a pedestal which embodies both a negative and a positive freedom. The negative freedom protects the individual from unwanted intrusion. As a positive freedom, it obliges the State to adopt suitable measures for protecting individual privacy."

" संवैधानिक अधिकार एक ऐसे स्थान पर अवस्थित हैं कि वहां इसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही पक्ष महत्वपूर्ण हैं। नकारात्मक स्वतंत्रता व्यक्ति को उसकी आज़ादी में पड़ने वाले खलल से बचाती है और सकारात्मक पक्ष राज्य को यह अधिकार देता है कि वह व्यक्ति के आज़ादी के अधिकार को सुनिश्चित करे। "

अब सूचना के अधिकार की बात करें तो यह अब तय हो गया है कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के अंतर्गत यह एक मौलिक अधिकार है। अब संविधान इस बात की गारंटी लेता है कि वह न सिर्फ इस मौलिक अधिकार की रक्षा करेगा बल्कि हर उस कदम से इसे सुरक्षित रखेगा जो इस अधिकार को कम या खत्म करने की ओर बढ़ रहे हैं।

* सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार प्राप्त है कि वह संसद को मौलिक अधिकारों के सकारात्मक पक्ष की रक्षा के लिये संसद को उस  मामले में कानून बनाने के लिये निर्देशित कर सकती है। जैसे अभी एक साल उसने भीडहिंसा पर कानून बनाने के लिये निर्देशित किया है।
लेकिन अगर किसी विंदु पर कोई कानून नहीं है तो वह जब तक कोई कानून बन नहीं जाता, तब तक एक दिशा निर्देश जारी कर सकती है जो कानून की ही तरह प्रयुक्त होगा। साथ ही अगर कोई कानून है तो उसका परीक्षण कर सकती है और सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा किया भी है।
लेकिन अदालत संसद को कोई परमादेश mandamus नहीं जारी कर सकती कि वह सूचना आयुक्त के बारे में उनकी स्वायत्तता बरकरार रखने के लिये एक कानून बनाये। यह शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत के विपरीत होगा। अदालत को ऐसा करना भी नहीं चाहिये।

लेकिन इस मामले में वह उस परंपरागत मार्ग का अनुसरण कर सकती है जो उसने अपने कई फैसलों में कहा है। वह है कानून का परीक्षण कि वह मौलिक अधिकारों के सकारात्मक पक्ष पर कितनी ईमानदारी से उतरता है।
ऐसे मामलों में सबसे उपयुक्त उदाहरण विशाखा मामला है। विशाखा मामले में सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंची की कार्यस्थल पर महिलाओं का उत्पीड़न अनुच्छेद 14 और 15 के अंतर्गत दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
फिर सुप्रीम कोर्ट इस निष्कर्ष पर पहुंची कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को रोकने के लिये राज्य द्वारा कुछ भी नहीं किया गया है। जबकि किसी का मौलिक अधिकार सुरक्षित रहे इसकी जिम्मेदारी राज्य की भी है। इसे से पॉजिटिव ओबलीगेशन कहते हैं जिसे मैं सकारात्मक पक्ष लिख रहा हूँ।
अब इस टिप्पणी के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कानून बनाने का निर्देश दिया।

लेकिन इस निर्देश के जारी करने के बाद भी अदालत चुप नहीं रही। उसने अनुच्छेद 32 के अंतर्गत दिशा निर्देश जारी किये। जो अनु 141 के अंगर्गत तब तक कानून के रूप में रहे जब तक कि संसद ने उस पर कानून नहीं बना दिया। विशाखा दिशा निर्देशों पर 2013 में कानून बना।

* अदालत को यह अधिकार है कि किसी भी कानून को संविधान के विपरीत पाए जाने पर उसे पूरा या उसके किसी एक अंश को रद्द कर दें।
इसका उदाहरण आधार कार्ड पर आया अदालत का फैसला है। अदालत के सामने आधार में दी गयी सूचनाओं की सुरक्षा का प्रश्न व्यक्ति की निजता जो उसका मौलिक अधिकार है के संदर्भ में उठाया गया। अदालत ने पाया कि कानून में इन डेटा की सुरक्षा के संदर्भ में खामियां और कमियां हैं और अदालत ने उन्हें ठीक करने के लिये, मेटाडेटा और सूचनाओं को विधिक रूप से मांगे जाने पर एक संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी की नियुक्ति की बात कही। और यह सरकार ने किया।

अब आरटीआई के नए संशोधन पर आइए। प्रत्यक्ष रूप से आरटीआई के अन्य प्राविधानों में कोई संशोधन नहीं किया गया है लेकिन सबसे बड़ा संशोधन यही किया गया है सूचना आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त के पदों की स्वायत्तता को खत्म कर के सरकार के एक विभाग की तरह बना दिया गया है। उनके सेवा अवधि को सरकार की मनमर्जी पर रखा गया है और वेतन भत्ते भी पहले की तरह सुरक्षित नहीँ है। यह संशोधन मौलिक अधिकारों के सकारात्मक पक्ष जो राज्य का दायित्व है कि वह ऐसे उपाय करें जिससे जनता को प्रदत्त मौलिक अधिकार सुरक्षित रहे को सीधे सीधे आघात पहुंचा रहा है।

जनता आरटीआई के अधीन जो सूचना मांगती है यह उसका मौलिक अधिकार है जो सुप्रीम कोर्ट ने तय कर दिया है। सरकार ने इस अधिनियम के अंतर्गत जनता को सूचनाएं मिलें इसके लिये सूचना अधिकारी की नियुक्ति की है। उनके द्वारा तय समय मे सूचना न देने पर अर्थदंड के प्राविधान हैं। साथ ही सूचना आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त के यहां अपील का प्राविधान है। मुख्य सूचना अगुक्त के पास सरकार को सूचना देने के लिये आदेश देने का प्राविधान है। पर अंत मे सूचना आयुक्त और सीईसी सरकार को ऐसी सूचना, जिससे सत्ता शीर्ष असहज हो या वह कहीं फंस रहा हो के संबंध में कोई निर्देश ही इस भय से न दें कि वे अब स्वतंत्र और स्वायत्त नहीं रहे तो, यह मौलिक अधिकारों का हनन है।

यह लेख, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ एडवोकेट गौतम भाटिया के एक निबंध पर आधारित है। उन्होंने मौलिक अधिकारों के जिन सकारात्मक पक्ष की चर्चा की है और जिसकी रक्षा करना राज्य का दायित्व है। यहां राज्य अपने इस दायित्व के वहन में जानबूझकर पीछे हट रहा है। बल्कि वह आयुक्तों और सीईसी की स्वायत्तता को समाप्त कर मौलिक अधिकारों के ऊपर सीधा आघात कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट जिसके ऊपर संविधान की रक्षा का दायित्व है और मौलिक अधिकार संविधान के मूल ढांचे का अंग है तो इस संदर्भ में अपनी शक्तियों और अधिकार के अंतर्गत संज्ञान लेकर इन संशोधनों का न्यायिक परीक्षण कर सकता है और अगर उसे लगा कि ये संशोधन कहीं न कही  मौलिक अधिकारों के उपयोग में बाधक हैं तो रद्द भी कर सकता है।

© विजय शंकर सिंह

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