Tuesday, 23 July 2019

विदेशनीति और ट्रम्प का कश्मीर मामले में विवादित बयान - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

1947 में देश के आज़ाद होने के बाद भारत के समक्ष विदेशनीति भी एक समस्या थी कि किस राह पर चला जाय। द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म हो चुका था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नए दादा उभर कर सामने आ गए थे। बर्तानिया का सूरज जो कभी भी डूबता नहीं था, अब अटलांटिक सागर में किनारे पर ही डूबने लगा था। अमेरिका एक बड़ी, आर्थिक, सामरिक और वैज्ञानिक ताकत बन कर उभर आया था। रूस भी विजेता था। चीन में लाल क्रांति हो चुकी थी। वह भी रूसी राह पर था। अमेरिका और रूस को कभी एक साथ मित्र राष्ट्र थे, अब वैचारिक वैभिन्नयता के कारण अलग राह पर थे। ब्रिटेन खंडित साम्राज्यवाद के हैंगओवर में था। हम धर्म के आधार पर बंट कर दंगों में मर खप रहे थे।

द्वितीय विश्वयुद्ध में अमेरिका और रूस दोनों ही
मित्र देशों के साथ  थे। पर यह साध मजबूरी का था। अमेरिका जापान द्वारा पर्ल हार्बर पर हमले के बाद और रूस जर्मनी द्वारा अपने पर आक्रमण कर दिये जाने के बाद युद्ध मे शामिल हुआ था। 1945 में जब युद्ध समाप्त हो गया तो अमेरिका और रूस की साथ साथ होने की जो वजह थी वह भी खत्म हो गयी और दोनों ही फिर अपनी अपनी विपरीत ध्रुवीय विचारधारा के कारण एक दूसरे से अलग और विरोधी हो गए। उसी समय संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ और अमेरिका तथा रूस  में  शीतयुद्ध का दौर शुरू हुआ।

अप्रैल, 4, 1949 में ही नार्थ एटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (नाटो)) नामक एक सैन्य गठबंधन बना, जिसका मुख्यालय ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में है। इस संगठन ने सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था बनाई है, जिसके तहत इस संगठन के सदस्य राज्य किसी गैर सदस्य राष्ट्र द्वारा किसी भी सदस्य राष्ट्र पर, बाहरी हमले किये जाने की स्थिति में परस्पर सहयोग करने के लिए सहमत होंगे। नाटो के गठन के शुरुआत के कुछ वर्षों में यह संगठन एक राजनीतिक संगठन से अधिक नहीं था। लेकिन कोरियाई युद्ध ने सदस्य देशों को रक्षा संगठन के रूप में गठित करने हेतु प्रेरक का काम किया और दो अमरीकी सर्वोच्च कमांडरों के दिशा निर्देशन में एक एकीकृत सैन्य संरचना बनायी गई। लॉर्ड इश्मे पहले नाटो महासचिव बने। उनकी संगठन के उद्देश्य पर की गई यह टिप्पणी, " रुसियों को बाहर रखने, अमरीकियों को अंदर और जर्मनों को नीचे रखने के लिए यह संगठन बनाया गया है, " से रूस और अमेरिका के आपसी संबंध की हकीकत समझी जा सकती है। यूरोपीय और अमरीका के बीच रिश्तों की तरह ही संगठन की ताकत समय पर घटती-बढ़ती रही। इन्हीं परिस्थितियों में फ्रांस स्वतंत्र परमाणु निवारक बनाते हुए नाटो की सैनिक संरचना से 1966 में अलग हो गया।

24 फरवरी, 1955 को से CENTO,  सेंट्रल ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन की स्थापना हुई। सेन्टो की स्थापना ईरान, इराक, पाकिस्तान, तुर्की, यूनाइटेन किंगडम इन पाँच देशों ने मिलकर की थी। सेन्टो को बगदाद संधि एवं मध्य पूर्व संधि(एमईटीओ) संगठन के नामों से भी जाना जाता है। सेन्टो एक प्रकार का अंतरराष्ट्रीय सैन्य संगठन है, जिसका मुख्यालय अंकारा में है। 1955 में इराक और तुर्की ने साम्यवाद के प्रभाव को रोकने के लिए सेन्टो संधि पर हस्ताक्षर किये। संयुक्त राज्य अमेरिका ने सेन्टो संधि को कम्युनिस्ट विरोधी होने के कारण, वित्तीय सहायता दिया, लेकिन अमेरिका औपचारिक तौर पर कभी भी संधि में शामिल नहीं हुआ था। हालाांकि, अमेरिका समिति की बैठकों में भाग लेता था। 1959 में इराक ने बगदाद संधि से इस्तीफा दे दिया था। इसी समय से इस संधि का नाम बगदाद संधि से सेन्टो हो गया।

अमेरिका ने दक्षिण पश्चिम एवं मध्य-पूर्व एशिया के देशों में सोवियत साम्यवादी प्रभाव को रोकने तथा अमरीकी प्रभाव का विस्तार करने के लिए उन्हें आर्थिक सहायता पहुँचाने, उनके साथ सैनिक संधियां करने तथा अरब राष्ट्रों में फूट डालने के लिए 1955 में बगदाद समझौता किया था।

इस समझौते के तहत ब्रिटेन, ईरान, ईराक, तुर्की, पाकिस्तान, जार्डन आदि पश्चिमी एवं मध्य-पूर्व एशियाई देश पश्चिमी गुट में शामिल हो गये। किन्तु 1958 में इराक इस समझौते से अलग हो गया तो इसका नाम 1959 में बगदाद पैक्ट से बदलकर सेन्टो समझौता कर दिया गया। सेन्टो के उद्देश्य, सोवियत संघ को मध्य पूर्व से दूर रखना, मध्य पूर्व में शांत रखना,व्यापार वाणिज्य विकास था। 1979 में सेन्टो का अंत कर दिया गया।क्योंकि सेन्टो अपने उद्देश्यों में सफल नहीं हुआ।

उपरोक्त दोनों संगठन अमेरिकी प्रभुत्व के थे। उसी शीत युद्ध के काल मे सोवियत रूस ने कम्युनिस्ट देशों का एक अलग संगठन खड़ा किया जिसे ईस्टर्न ब्लॉक के नाम से जाना जाता है। ईस्टर्न ब्लॉक या सोवियत ब्लॉक में मध्य और पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट देश, पूर्वी एशिया, दक्षिण पूर्वी एशिया के कुछ देश शामिल थे। इस ब्लॉक में, पूर्वी जर्मनी, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया, अल्बामा, वियतनाम, कम्पूचिया, कोरिया, और कैरिबियन देश क्यूबा भी शामिल था। यह कम्युनिस्ट देशों का गठजोड़ था। चीन भी इसके साथ शामिल रहा।

1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म हुआ, और 1948 से ही दुनिया फिर अलग अलग खानों में बंटने लगी। एक गुट अमेरिका के नेतृत्व का नाटो NATO और दूसरा अमेरिका से वित्त पोषित सेंटो CENTO तथा तीसरा सोवियत खेमा था । यह पूंजीवाद और कम्युनिस्ट ब्लॉक्स में बंटी दो अलग अलग दुनिया थी। पर एक तीसरी दुनिया भी 1948 के बाद आकार लेने लगी थी जो इन दोनों से अलग, नवस्वतंत्र और अफ्रीका, एशिया के पिछड़े पर अपने अधिकार के लिये सचेत मुल्क़ों की थी। ये नए देश, शीत और प्रत्यक्ष युद्ध के झमेले से बचना चाहते थे और तरक़्क़ी की राह पर बढ़ना चाहते थे। यह तीसरी दुनिया थी गुट निरपेक्ष देशों यानी नॉन अलाइन्ड नेशन्स NAM की।

यह गुट निरपेक्ष आंदोलन भारत के प्रधानमंत्री  जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर युगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसिप बरोज़ टिटो, इंडोनेशिया के डाॅ सुक्रणों एवं घाना के क्वामें एन्क्रूमा द्वारा आरंभ किया गया । इसकी स्थापना अप्रैल,1961में हुई थी और 2012 तक इसमें 120 सदस्य हो चुके थे।

1979 की हवाना घोषणा के अनुसार इस संगठन का उद्देश्य गुट निरपेक्ष राष्ट्रों की राष्ट्रीय स्वतंत्रता, सार्वभौमिकता, क्षेत्रीय एकता एवं सुरक्षा को उनके साम्राज्यवाद जन्य युद्ध के विरुद्ध रहना है। इसके साथ ही किसी पावर ब्लॉक के पक्ष या विरोध में ना होकर निष्पक्ष रहना है। ये संगठन संयुक्त राष्ट्र के कुल सदस्यों की संख्या का लगभग दो तिहाई और दुुनिया
की समस्त जनसंख्या का पचपन प्रतिशत था।

जब देश आजाद हुआ तो भारत की विदेशनीति क्या हो इस पर भी विचार हुआ। तब नाटो बन गया था। कॉमनवेल्थ का अस्तित्व 1931 से ही था। कॉमनवेल्थ उन 53 देशों का संघटन है, जो कभी न कभी इंग्लैंड के आधिपत्य में रहे हैं। जब भारत आज़ाद हुआ तो उसने कॉमनवेल्थ की सदस्यता ली तब डॉ राममनोहर लोहिया ने इसका विरोध किया था। पर नेहरू कॉमनवेल्थ में जाने के पक्षधर थे। यह कोई सैनिक संघटन नहीं था। भारत इसमे शामिल तो हुआ पर उसने इंग्लैंड की रानी के प्रति निष्ठा की शर्त नहीं मानी। इंग्लैंड की रानी, कॉमनवेल्थ की पदेन अध्यक्ष होती हैं।

उंस समय कांग्रेस का एक धड़ा जिसका नेतृत्व सी राजगोपालाचारी कर रहे थे अमेरिकी गुट में शामिल होना चाहता था। साथ ही कम्युनिस्ट जिनकी संख्या कम नहीं थी और चीन की लाल क्रांति से उत्साहित थे, सोवियत कैंप में जाना चाहते थे। नेहरू का इरादा अलग था। युद्ध की विभीषिका वे देख चुके थे । गांधी का असर उनपर था ही। वे दोनों ही गुटों से समान दूरी बनाकर चलना चाहते थे। उन्होंने विदेश नीति में पंचशील के सिद्धांत की बात की।

मानव कल्याण तथा विश्वशांति के आदर्शों की स्थापना के लिए विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था वाले देशों में पारस्परिक सहयोग के पाँच आधारभूत सिद्धांत, जिन्हें पंचसूत्र अथवा पंचशील कहते हैं, की नींव नेहरू के विदेशनीति का आधार बना । इसके अंतर्गत ये पाँच सिद्धांत निहित हैं। ये सिद्धांत हैं,
* सभी देशों द्वारा अन्य देशों की क्षेत्रीय
अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना
* दूसरे देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना.
* दूसरे देश पर आक्रमण न करना।
* परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढावा देना।
* शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति का पालन करना।

29 अप्रैल सन् 1954 ई. को तिब्बत संबंधी भारत-चीन समझौते में सर्वप्रथम इन पाँच सिद्धांतों को आधारभूत मानकर संधि की गई। पंचशील शब्द ऐतिहासिक बौद्ध अभिलेखों से लिया गया है जो कि बौद्ध भिक्षुओं का व्यवहार निर्धारित करने वाले पाँच निषेध होते हैं। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने वहीं से ये शब्द लिया था।

उक्त समझौते के आमुख रूप में पंचशील की मान्यता एशियाई-अफ्रीकी और बाद में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था वाले देशों में मैत्री तथा सहयोग का आधार बनी। 25 जून 1954 को चीन के प्रधान मंत्री श्री चाऊ एन लाई भारत की राजकीय यात्रा पर आए और उनकी यात्रा की समाप्ति पर जो संयुक्त विज्ञप्ति प्रकाशित हुई उसमें घोषणा की गई कि वे पंचशील के पाँच सिद्धांतों का परिपालन करेंगे। दोनों प्रधान मंत्रियों ने अंतरराष्ट्रीय व्यवहार और सहअस्तित्व के आवश्यक सिद्धांतों के रूप में पंचशील के सिद्धांतों की व्यापक घोषणा की।

इस प्रकार नेहरू ने किसी भी गुट में शामिल हुए बिना एशिया और अफ्रीका के देशों का एक संगठन बनाया जिसकी चर्चा की जा चुकी है। ऐसा नहीं है कि अमेरिका ने भारत को अपने गुट में खींचने के लिये प्रयास नहीं किया। नेहरू की पहलीं अमेरिकी यात्रा पर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रूमैन की गर्मजोशी और देहभाषा से अमेरिका की यह ललक साफ दिखती है। वीडियो यूट्यूब पर मौजूद है। अमेरिका का यह भारत प्रेम भी निःस्वार्थ नहीं था। वह रूस के बाद चीन के कम्युनिस्ट हो जाने से चिंतित था। उसे भारत के रूप में एक सशक्त साथ चाहिये था। नेहरू किसी का मोहरा बनना नही चाहते थे। वे अमेरिकी और सोवियत कैम्प दोनों से ही शीत युद्ध के उंस काल मे दूर रहे।

1971 में इंदिरा गांधी ने सोवियत रूस के साथ जब बीस साला, किसी भी उभय देश पर आक्रमण होने पर, परस्पर साथ देने का सैन्य समझौता किया, तो उनकी इस समझौते की आलोचना भी हुयी कि उन्होंने 1947 से चली आ रही निर्गुट नीति से किनारा कर लिया। इसका विरोध देश के दक्षिणपंथी दलों ने किया।

1990 के बाद अमेरिका प्रतिद्वंद्वी विहीन हो गया। पूरी दुनिया एक ध्रुवीय हो गयी। गुट निरपेक्ष आंदोलन कमज़ोर पड़ गया। कम्युनिस्ट ब्लॉक भी सिमट गया। अमेरिका का दखल मध्य पूर्व के देशों में बढ़ गया।  तेल के प्रभुत्व और पूंजीवाद के विस्तार के लालच ने पहले, इराक, फिर सीरिया, फिर अफगानिस्तान अमेरिकी युयुत्सुवाद के शिकार बने। अब उसकी नज़र ईरान पर है। इन राष्ट्रों में सक्रिय रहने और असर बढ़ाने के लिये उसे इस क्षेत्र में,  एक लांचिंग पैड चाहिये था, जो पाकिस्तान के रूप में उसे मिल गया । बदले में पाक को सैनिक, धन तथा अन्य सहायतायें और सहयोग मिला। चीन के खिलाफ भी वह भारत को एक लांचिंग पैड के लिये इस्तेमाल करने का उसका इरादा साफ है। पर अभी वह इधर बहुत खुलकर नहीं बोल रहा है।

बनारस में एक कहावत बड़ी चर्चित है, ' सटला  त गइला बेटा ।' यह कहावत अमेरिका पर ठीक उतरती है। अमेरिका के नज़दीक़ जो जो भी गया उसे उसने दासभाव से ही देखा। आज इमरान खान की जो हालत अमेरिका में दिख रही है वह इसी सटने या चिपकने का परिणाम है। पाकिस्तान के बारे में कहा जाता है कि वहां तीन A पर ही सब कुछ निर्भर है। अल्लाह, आर्मी और अमेरिका। अल्लाह तो उनका बंधन है। आर्मी उनकी असली शासक और अमेरिका अन्नदाता। अब चाहे ट्रम्प इमरान का स्वागत अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल के अनुसार करें या न करे, इमरान चाहे मेट्रो में जाँय या पैदल दोनों ही एक दूसरे से जुड़े हैं और यह भाव है स्वामी और दास का। जब पूरी पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था ही अमेरिका की रहमो करम पर निर्भर है तो पाक कैसे तन कर खड़ा होगा। वह तो कहेगा कि हुजूर कश्मीर की समस्या हल कर दें। बड़ा खर्चा हो रहा है।

पर ट्रम्प ने कैसे यह कह दिया कि हमारे पीएम ने भी उनसे इसे हल करने के लिए कहा था। जो देश कभी सौ से अधिक गुट निरपेक्ष देशों का रहनुमा रहा हो। तीसरी दुनिया की आवाज़ों में सबसे सशक्त स्वर रहा हो वह आज अपनी समस्या के लिये अमेरिका की ओर देखे, सोच कर ही अज़ीब लगता है। भारत जो अमेरिकी और सोवियत ब्लॉक दोनों से अलग होकर अपना अलग परचम लहरा चुका हो, उसका प्रधानमंत्री अमेरिका से कैसे यह बात कह सकता है, इस पर भरोसा करना कठिन है।

आधुनिक अमेरिका उन लोगों की संतान और विरासत है जो कभी यूरोप में सज़ायाफ्ता थे। अमेरिका का विकास ही छल, छद्म,हिंसा और कब्जे से हुआ है। इनकी न कोई संस्कृति है और न सभ्यता। पूंजीवाद की जितनी भी विकृति हो सकती है वह आज के अमेरिकी समाज मे आ गयी है।  हमे अमेरिका पर भरोसा नहीं करना चाहिये। वह कभी भी किसी भी देश यहां तक कि ब्रिटेन के लिये भी वह राजनयिक रूप से ईमानदार और वफादार नहीं रहा है। अब गुट निरपेक्ष आंदोलन लगभग खत्म हो गया है। इसका कारण सोवियत संघ का 1989 में बिखरना है। इस एक ध्रुवीय दुनिया मे अमेरिका खुद को चक्रवर्ती सम्राट और अन्य सबको करद राज्य समझ बैठा है। भारत को विदेशनीति और कूटनीति के मामले में अमेरिका से सम्बन्धो को तय करते समय अधिक सतर्क रहना होगा। हमे अपनी अलग पहचान और महत्व बनाये रखना होगा, अन्यथा हम भी उंस के लिये पाकिस्तान बन कर रह जाएंगे।

संसद में विदेशमंत्री एस जयशंकर के बयान से यह तो लगभग साफ हो गया है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा हमारे प्रधानमंत्री को उद्धृत करके यह कहना कि नरेंद्र मोदी ने उनसे मध्यस्थता का आग्रह किया था, गलत था। विदेशमंत्री के अनुसार ऐसी कोई बात ही नहीं है।

पर ट्रम्प की इस पर क्या प्रतिक्रिया है अभी तक नहीं मिली है। सरकार द्वारा अमेरिकी विदेश मंत्रालय को राष्ट्रपति के उक्त बयान का खंडन जारी करने के लिये कहा जाना चाहिये। ट्रम्प बड़बोले हैं। उन्होंने अक्सर अपने बयानों से हमारी विदेशनीति को अतिक्रमित करते हुए बयान दिया है। इससे राजनयिक मर्यादाएं ही टूटी है।

अभिनंदन की वापसी पर उनका बयान याद करें। ईरान मामले में, भारत उनकी मर्जी के बगैर ईरान से कोई संबंध न रखे, आदि आदि।  वह तो आक्रामक और दबंगई की कूटनीति कर ही रहे हैं। मोदी जी के अफगानिस्तान में पुस्तकालय बनवाने का मज़ाक़ उड़ाते ट्रम्प की बात और उनकी देहभाषा याद कीजिये। यह बड़बोलापन, अशालीन,अमर्यादित आचरण ट्रम्प के स्वभाव का एक स्थायी भाव लगता है। ऐसा व्यवहार उनका,  हमारे ही साथ नहीं बल्कि ब्रिटेन के साथ भी जो उनका सदैव बगलगीर रहा है के साथ भी रहा है जब उन्होंने ब्रिटिश राजदूत को बाहर निकल जाने को कहा । ऐसे आक्रामक और बड़बोले राजनेता के साथ कूटनीतिक सम्बंध बनाये रखना थोड़ा कठिन होता है। पर संतुलन के साथ ही अपना इच्छित पा लिया जाय इसी का तो नाम कूटनीति है।

© विजय शंकर सिंह

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