Tuesday, 2 July 2019

धर्म - हिंदू महासभा सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करती है / विजय शंकर सिंह

हिंदू महासभा एक धर्मांध और कूपमण्डूक संगठन बन कर रह गया है। जिस संगठन के साथ महामना और पंजाब केसरी लाला लाजपत राय के नाम जुड़े हों वह संगठन धर्मांध और कूपमंडूक बन जाय यह दुःखद है। यह सनातन धर्म की उन परंपराओं का अब विरोध करती है, जो धर्म को उदात्त और अजटिल बनाती है। यह संगठन अपने धर्म, साहित्य, परंपराएं, दर्शन, सोच और मानसिकता का अनुसरण करने के बजाय इस्लामिक धर्मांधता से ही प्रेरित होती है। उदार इस्लाम से परहेज करती है। क्योंकि  इस्लाम का कट्टर रूप ही इज़े खाद पानी देता है। बेहतर है, यह कहा जाय कि, दोनों ही धर्मों के कट्टर और धर्मांध एक दूसरे के लिए, खाद पानी और पोषण उपलब्ध कराते हैं।

हिंदू महासभा के वर्तमान अध्यक्ष आचार्य चक्रपाणि का एक बयान आया है कि हिंदू फ़िल्म अभिनेत्रियां भी जायरा वसीम से प्रेरित हों, और वे भी अपना धर्म बचाने के लिये अभिनय छोड़े। लगता है, अब इस्लाम की कट्टरता से ही प्रेरणा लेने की सोच महासभा में विकसित हो गयी है !

जायरा का जो भी निर्णय है वह उनका व्यक्तिगत निर्णय है। हर व्यक्ति को अपना धर्म, अपनी आस्था के अनुसार मानने या धर्म और ईश्वर पर विश्वास न करने की आज़ादी है। यह आज़ादी संविधान भी देता है और सनातन धर्म भी इसे मान्यता देता है। इस्लाम मे यह स्थिति नहीं है। वहां ईश्वर यानी अल्लाह पर नायक़ीनी का कोई खाना ही नहीं है वह कुफ्र है और धर्म से खारिज किये जाने का एक पर्याप्त आधार है।

जायरा के निजी निर्णय पर बवाल मचा। कभी उनके मैनेजर ने कहा कि फेसबुक अकाउंट हैक हो गया था तो दूसरे ही दिन जायरा का बयान आया कि कोई अकाउंट हैक नहीं हुआ था, वे अपने बयान पर कायम हैं। अब वे फ़िल्म करती हैं या नहीं करती हैं यह उनकी इच्छा पर निर्भर है।

इस्लाम मे मूर्तिपूजा, चित्र बनाना, संगीत आदि कुछ ललित कलाएं वर्जित हैं। पर ऐसी कोई वर्जना सनातन धर्म मे नहीं है। जब कुछ चीजें वर्जित हो जाती हैं और यह करो, यह न करो के आधार पर कोई धर्मादेश हावी हो जाता है तो उक्त धर्मादेश के पालन के लिये जो तंत्र विकसित होता है वही तँत्र जड़ पौरोहित्यवाद बनता है। यह धर्म की पुलिसिंग है। सऊदी अरब में धार्मिक पुलिस है भी।  फिर एक स्थिति ऐसी आती है कि उक्त धर्मगुरु, पुरोहित, मुल्ला, मौलाना या जो भी नाम आप रखना चाहें, रख लें , का ही आदेश और व्याख्या धर्मादेश बन जाती है। और ऐसे धर्मादेश तथा व्याख्याएं उस व्यक्ति के स्वार्थ से अधिक प्रेरित होती है । यह प्रवित्ति धर्म को अपने उस उद्देश्य से भटका देती है जिसके लिये उस धर्म की स्थापना की गयी है।

हिंदू महासभा के इस नेता को शायद यह पता नहीं कि सनातन धर्म मे ललित कलाओं को न केवल प्रश्रय दिया गया है बल्कि संगीत को पंचम वेद कहा गया है। पूर्णावतार कृष्ण समस्त चौसठ कलाओं में पारंगत माने गये हैं, इन चौसठ कलाओं में समस्त ललित कलाएं भी हैं। मानव मन की सम्भावित विकृति को भी यह धर्म बखूबी समझता है तभी इसने वर्जना की कोई शर्त नहीं रखी। हर बात तर्क और विवेक से समझायी गयी है। कुरीतियों के दुष्परिणाम को भी नीति और बोध कथाओं के माध्यम से बताया गया है। पंचतंत्र, कथा सरित्सागर, जातक कथाएं आदि की विपुलता इसे प्रमाणित करती हैं।

हिंदू धर्म मे भी समय समय पर तार्किक सुधार वादी आंदोलन चले हैं। जैन परम्परा भी सनातन धर्म के विचारों के विरुद्ध ही शुरू हुयी थी। बुद्ध के विचार भी इसी विरोध और असहमति के थे जो कर्मकांड और धार्मिक जटिलताओं के विरुद्ध स्थापित हुये।जैन और बौद्धों में आगे चलकर वैचारिक मतभेद उभरे और उनमें भी श्वेताम्बर, दिगम्बर, हीनयान, महायान, वज्रयान, जेन बुद्धिज्म आदि धाराएं विकसित हुई। असहमति की यह परम्परा सनातन धर्म को सदानीरा बनाये रखने में सहायक हुयी। नए विचारों और वाद विवाद और संवाद की परंपरा ने इस धर्म को जड़ नहीं होने दिया, सदैव चेतन बनाये रखा।

मध्यकाल का भक्ति आंदोलन भी इसी प्रकार की असहमति से उपजा एक आंदोलन था। इसीलिए इस काल को आंदोलन कहा गया। यह निर्गुण पूजा का काल था। साकार और ऐश्वर्य में पगे ईश्वर निराकार और सूक्ष्म होने लगे थे। धर्म के इस आंदोलन में सबसे सकारात्मक बदलाव यह आया कि बड़ी संख्या में समाज के निचले तबके में समझी जाने वाली जातियों के संत इसके अग्रदूत बने। बड़ी संख्या में मुस्लिम संत भी इस आंदोलन में शामिल हो गए। सूफीवाद पर इसका प्रभाव भी देखा जा सकता है।  इस्लाम के कट्टरपंथी स्वरूप के खिलाफ यह एक दार्शनिक प्रतिक्रिया थी। धर्म का कर्मकांडीय स्वरूप पीछे छूट गया।  धर्म सरल और दार्शनिक रूप लेने लगा था। आधुनिक काल का बंगाल पुनर्जागरण जिसके राजा राममोहन राय अग्रदूत कहे जाते हैं, के साथ भी अनेक सुधारवादी आंदोलन चले। स्वामी विवेकानंद का रामकृष्ण मिशन और स्वामी दयानन्द का  आर्य समाज भी ऐसे ही प्रगतिशील आंदोलन थे। आर्य समाज तो मूर्तिपूजा का प्रखर विरोधी था। यह सारे आंदोलन धर्म और समाज मे व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ समय समय पर शुरू हुए। कभी भी ऐसे आंदोलन को धर्म पर खतरा नहीं माना गया।

पर हिंदू महासभा द्वारा  धर्म और समाज की कुरीतियों के संदर्भ में किसी आंदोलन के चलाये जाने का उल्लेख मुझे नहीं मिलता है। चाहे इंडियन नेशनल कांग्रेस हो या मुस्लिम लीग या हिंदू महासभा इन सबकी स्थापना के पीछे अंग्रेजों की ही भूमिका और प्रेरणा रही है। 1885 में कांग्रेस की, 1906 में मुस्लिम लीग की और 1915 में हिंदू महासभा की स्थापना हुयी। 1937 में हुए कर्णावती अहमदाबाद के सम्मेलन में सावरकर अध्यक्ष बने जो 1938 के नागपुर 1939 के कलकत्ता, 1940 के मदुरै, 1941 के भागलपुर और 1942 के कानपुर सम्मेलन में अध्यक्ष बने। फिर डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1943 के अमृतसर और 1944 के विलासपुर सम्मेलन में अध्यक्ष चुने गए थे।

1937 में सावरकर ने हिंदू धर्म को राष्ट्र का पर्याय घोषित किया फिर तो मुस्लिम लीग जो पहले से ही एक अलग देश के अस्तित्व के लिये चिंतन और बैठक कर रही थी ने 1940 के अपने लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान की मांग रख दी। यह था दो धर्मांध और कट्टरपंथी सोच की जुगलबंदी थी। 1937 से ही द्विराष्ट्रवाद का जन्म हुआ था। 

1937 में सावरकर के हिंदू महासभा में सक्रिय होने के भी कारण थे। सन् 1937 में जब हिन्दू महासभा काफी शिथिल पड़ गई थी और गांधी लोकप्रिय हो रहे थे, तब वीर सावरकर रत्नागिरि की नजरबंदी से मुक्त होकर आए। सावरकर ने सन् 1937 में अपने प्रथम अध्यक्षीय भाषण में कहा कि,
" हिंदू ही इस देश के राष्ट्रीय हैं और आज भी अंग्रेजों को भगाकर अपने देश की स्वतंत्रता उसी प्रकार प्राप्त कर सकते हैं, जिस प्रकार भूतकाल में उनके पूर्वजों ने शकों, ग्रीकों, हूणों, मुगलों, तुर्कों और पठानों को परास्त करके की थी। उन्होंने घोषणा की कि हिमालय से कन्याकुमारी और अटक से क़टक तक रहनेवाले वह सभी धर्म, संप्रदाय, प्रांत एवं क्षेत्र के लोग जो भारत भूमि को पुण्यभूमि तथा पितृभूमि मानते हैं, खानपान, मतमतांतर, रीतिरिवाज और भाषाओं की भिन्नता के बाद भी एक ही राष्ट्र के अंग हैं क्योंकि उनकी संस्कृति, परंपरा, इतिहास और मित्र और शत्रु भी एक हैं - उनमें कोई विदेशीयता की भावना नहीं है। "
संघ का राष्ट्रवाद सावरकर के इसी राष्ट्रवाद पर टिका है।

अब आचार्य चक्रपाणि इस संगठन के अध्यक्ष हैं। आचार्य चक्रपाणि को अक्सर आप टीवी शो में कभी आसाराम के पक्ष में तो कभी किसी दागी धर्मगुरु के पक्ष में खड़े पाएंगे। आज वे यह कह कर धर्म ध्वजा फहरा रहे हैं कि हिंदू अभिनेत्रियों को भी धर्म के लिये जायरा की तरह अभिनय और फिल्मों में काम करना बंद कर देना चाहते। लेकिन आचार्य अभिनेताओं के लिये यह आह्वान नहीं करते हैं। धर्म को बचाने की जिम्मेदारी भी महिलाएं उठाएं और कुछ धर्मगुरु उन्हें प्रताड़ित भी करते रहें।

हिंदू धर्म मे व्याप्त कुरीतियों के बारे में इस संगठन ने कभी आवाज़ नहीं उठाई है। लेकिन मूर्खतापूर्ण एजेंडों पर इनकी वाणी मुखर हो उठती है। यह हिंदू महासभा ही है जो, गांधी जी जैसे, एक सनातनी हिंदू जो आजीवन सनातन धर्म के सिद्धांतो पर जीता रहा,  की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे को पूजती है, उसका मंदिर बनाती है और उनके हत्या की मॉक ड्रिल करती है। बच्चों को जिन्होंने अच्छे नम्बरों से पास किया है उन्हें चाकू छुरा इनाम में देती है और उनके किशोर मन मे अपराध का वायरस संक्रमित करती है। आचार्य चक्रपाणि की अध्यक्षता में यह हिंदू महासभा किस हिन्दू धर्म का उत्थान कर रही हैं ?

© विजय शंकर सिंह

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