" सभी भ्रष्ट सरकारी अधिकारी देशद्रोही है। "
यह कहना है मद्रास हाईकोर्ट का।
अदालत की यह फाइंडिंग सही है तो यह मान के चलिए कि प्रशासन का अधिकतर हिस्सा देशद्रोह के वायरस से ग्रसित है।
केंद्र सरकार और राज्य सरकार भी ऐसे भ्रष्ट और अक्षम अधिकारियों को अनिवार्य रूप से रिटायर करने जा रही है। इसका सार्थक प्रभाव पड़ेगा, अगर यह कार्यवाही बिना किसी भेदभाव के अभिलेखों के आधार पर और बिना किसी राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव में आये की जाएगी तो। अन्यथा यह कार्यवाही विवादित हो जाएगी और अदालतों के मकड़जाल में उलझ कर रह जायेगी।
अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्ति का नियम और कानून 1956 से लागू है और हर साल यह कवायद होती है। कुछ न कुछ सरकारी कर्मचारी हर साल रुखसत किये जाते हैं, पर यह भी सच है उनमें से कुछ अदालतों से राहत पाकर लौट भी आते हैं। अदालत में इसका औचित्य सिद्ध करना कठिन होता है ।
भ्रष्ट सरकारी कर्मचारी तो देशद्रोही चिह्नित हो गए पर भ्रष्ट सांसदों और विधायकों को किस कोटि में रखा जाय ?
क्यों नहीं, उन्हें भी देशद्रोही कहा जाय ?.
अगर भ्रष्टाचार देशद्रोह है तो,
* इलेक्टोरल बांड से चुनावी चंदा लेकर राजनीतिक दल चलाना और बेशर्मी से उसका हिसाब न बताना,
* फ़र्ज़ी हलफनामा देकर चुनाव लड़ना,
* राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में न लाना,
* राजनीतिक दलों को विदेशों से मिले धम को सार्वजनिक करने की बाध्यता पर कानून बना कर रोक लगाना,
जो भ्रष्टाचार की कोटि में ही आता है, को देशद्रोह क्यों न कहा जाय ?
भ्रष्ट अफसरो को ज़रूर हटाइये, यह ज़रूरी भी है पर भ्रष्ट राजनेताओं को सरकारी पद और राजनीतिक दल चुनाव में टिकट देना बंद कर दें । उन्हें राजनीतिक लाभ के लिये सत्ता में भागीदार मत बनाइये। अगर सच मे भ्रष्टाचार के दैत्य से मुक्त होना है तो, सबसे पहले राजनीतिक दलों को चुनाव सुधार पर विचार करना होगा।
यह लगभग असंभव है कि सरकार में बैठे राजनेता भ्रष्टाचार में फलते फूलते रहें, भ्रष्टाचार पर ज़ीरो टॉलरेंस की बात करते रहें और सरकारी कर्मचारी और उनमें भी अधिकतर मिडिल और निम्न वर्ग के पदों पर जो नियुक्त हैं, जबरिया रिटायर कर दिए जाँय, और इससे प्रशासन भ्रष्टाचार मुक्त होकर साफ हो जाय !
© विजय शंकर सिंह
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