" मैं तुम्हे यम को दूंगा " नचिकेता के पिता ने जब नचिकेता द्वारा बार बार प्रश्न पूछने से आजिज आ कर क्रोध में यह बात कही तो सवाल करने के अधिकार या आदत पर इसे सम्भवतः पहली आपत्ति मानी जा सकती है। हो सकता है और भी ऐसे उदाहरण प्राचीन वांग्मय में उपलब्ध हों, पर नचिकेतोपाख्यान की यह रोचक और तर्कसमृद्ध परंपरा भारतीय सभ्यता और संस्कृति में तर्कवाद, सवाल पूछने और उनका जवाब ढूंढने की परंपरा का अनुपम दस्तावेज है। केवल एक यही उदाहरण ही नहीं, बल्कि " कस्मै देवाय हविष्यामि " जैसे अनेक जिज्ञासु तर्क परंपरा के अनुपम उदाहरण प्राचीन वांग्मय में उपलब्ध हैं। उपनिषदों की तो पूरी परंपरा ही सवाल और जवाब पर आधारित है। दुनिया के किसी भी प्राचीन साहित्य में सवाल जवाब और आपसी बातचीत से दर्शन की ऊंचाइयों को स्पर्श करने के उदाहरण नहीं मिलते हैं जो उपनिषदों में हैं। हर प्रकार की जिज्ञासा पर सवाल जवाब वहां मिलता है। वहां कोई एकालाप नहीं है। 'करें या न करें' के समादेश और फरमान नहीं हैं। ईश्वर है और नहीं है के बीच ईश्वर से डरे बिना उसपर बहसों के अनेक रोचक और ज्ञानवर्धक उल्लेख है। परवर्ती काल में बौद्ध धर्म का पूरा दर्शन, उपदेश, और त्रिपिटक में संजोया गया सारा साहित्य ही सवाल जवाब पर आधारित है। शास्त्रार्थ और वाद विवाद परंपरा किसी भी विषय के पक्ष विपक्ष के सभी आयामो को खंगालती हुयी अपने चरम पर पहुंचती है। अभिव्यक्ति पर कहीं कोई वंदिश नहीं, कहीं 'यह कहो, वह मत कहो, यह क्यों कहा, वह क्यों कहा, का आदेश निर्देश नहीं, कहीं कोई नाराज़गी नहीं, बल्कि सबको अपने अपने विचार को अपने तर्कों के अनुसार अभिव्यक्त करने की पूरी आजादी रही है। मस्तिष्क को सभी दिशाओं से समस्त सद्विचारों को आमंत्रित करता हुआ परिवेश था। ऋग्वेद के इस मंत्र, "आ नो भद्रा कृतवो यन्तु विश्वतः " के अनुसार !
अमूमन यह माना जाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, की अवधारणा पाश्चात्य लोकतंत्र से उद्भूत हुयी है, पर ऐसा नहीं है। असहमति और अभिव्यक्ति के अधिकार की एक सुदीर्घ परम्परा और प्रवित्ति भारतीय समाज और संस्कृति का अभिन्न अंग रही है। अभिव्यक्तियां असहज करतीं हैं, नाराज़ और उत्तेजित भी करती हैं, पर अभिव्यतियां अपनी जगह मौजूद भी रहती हैं। असहमति का अधिकार लोकतंत्र की एक विशिष्टता है। यह अधिकार मनुष्य होने का प्रमाण है। असहमति, तर्क सोच और अपने विचार को अभिव्यक्त करने का एक उपादान है। भारतीय परंपरा के मूल में ही है। ईश्वर के अस्तित्व से असहमति की परिकल्पना भारतीय समाज, संस्कृति और सभ्यता में नयी नहीं है। जब भी ईश्वर की अवधारणा की गयी होगी तभी उसके अस्तित्व से असहमति की एक आवाज़ उठी पर उस आवाज़ का तार्किक विरोध तो किया गया और वह धारा आज भी भारतीय दर्शन में स्थित है। जिन परम्परा उसी नास्तिकवाद की परंपरा है। जब ईश्वर के अस्तित्व को ही नकारा गया तो वह नकारवाद तर्क पर आधारित था। वह तर्क इतना सबल था, कि ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करने वाले लोग उस तर्क का खंडन नहीं कर पाए । तब अचानक आस्था का आसरा लिया गया और आस्था तथा ईश्वर तर्कातीत हो गए। समाज मे तब से यह वाद विवाद जारी है।
भारतीय संविधान ने अभिव्यक्ति के अधिकार को अपने मौलिक अधिकारों में शामिल किया है। आधुनिक काल में इंग्लैंड के विधेयक अधिकार 1689 ने संवैधानिक अधिकार के रूप में अभिव्यक्ति की आजादी को अपनाया गया। 1789 में फ्रेंच क्रांति ने तीन महान शब्दों को जन्म दिया। वे हैं, स्वतंत्रता, समानता और वंधुत्व। आधुनिक विचारधारा में अभिव्यक्ति के अधिकार की कहानी यहीं से शुरू होती है। उसी के बाद जब सामंतवाद का खात्मा हुआ तो मनुष्य और नागरिकों के अधिकारों की घोषणा को दुनियाभर में अपनाया गया। इसके साथ ही एक स्वतंत्र नतीजे के रूप में अभिव्यक्ति की आजादी की पुष्टि हुई। संविधान के अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की घोषणा कहती है: "सोच और विचारों का नि:शुल्क संचार मनुष्य के अधिकारों में सबसे अधिक मूल्यवान है। हर नागरिक तदनुसार स्वतंत्रता के साथ बोल सकता है, लिख सकता है तथा अपने शब्द छाप सकता है लेकिन इस स्वतंत्रता के दुरुपयोग के लिए भी वह उसी तरह जिम्मेदार होगा जैसा कि कानून द्वारा परिभाषित किया गया है"। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा 1948 में अपनाई गई थी। इस घोषणा के तहत यह भी बताया गया है कि हर किसी को अपने विचारों और राय को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की आजादी अब अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय मानवाधिकार कानून का एक हिस्सा बन गए हैं।
भारत मे इधर अभिव्यक्ति के अधिकार ने सत्ता तंत्र को असहज करना शुरू कर दिया है। हालांकि यह पहला अवसर नहीं है जबकि सत्ता अभिव्यक्ति की इस आज़ादी से पहली बार असहमत हुयी हो। 1975 में लगे आपात काल मे मीडिया और सत्ता विरोध में मुखरित लोग सत्ता दंश को झेल चुके हैं। पर इधर फिर पिछले कुछ सालों से राजनीतिक नेताओं और सत्ता तंत्र ने कुछ मीडिया और पत्रकारों के खिलाफ, उनकी असहमति के विरुद्ध एक अभियान छेड़ रखा है। चाहे बंगाल की ममता सरकार हो, या उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार या केरल की कम्युनिस्ट सरकार या एमपी की कांग्रेस सरकार हो,सभी ने अपने को असहज करती हुयी खबरों पर निगाह टेढ़ी की है। पत्रकारों पर मुक़दमे कायम किये हैं। उस असहमति का कोई तार्किक समाधान न करके यह लिखा ही क्यों और यह बोला हीं क्यों, की अहंकारी मुद्रा में सभी सरकारें एक ही पायदान पर खड़ी नज़र आयीं। सभी सरकारों ने अपने अपने दृष्टिकोण से छांट कर खिलाफ खबरों के लिये पत्रकारों को प्रताड़ित कर उन्हें यह संदेश देने की कोशिश किया कि पत्रकार सत्ता के खिलाफ लिखते समय सावधानी बरतें। दुनियाभर में सत्ता का चरित्र एक जैसा ही होता है। अमेरिका जो खुद को आज़ादी और मानवाधिकारों का सबसे बड़ा पहरुआ मानता है ने विकीलीक्स के खोजी पत्रकार जूलियन असांजे के खिलाफ क्या किया यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। बिलकुल 'प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं' की तरह। यह प्रवित्ति न केवल संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विपरीत है बल्कि सत्ता के निरंकुश होते जाने का एक संकेत भी है। सत्ता अक्सर जब मज़बूत और लोकप्रिय होने लगती है तो वह अहंकार से संक्रमित हो जाती है। उसे अपनी आलोचना सहन नहीं होने लगती है। वह उस आलोचना के तार्किक समाधान के बजाय अक्सर आलोचक की ही गर्दन पकड़ लेती है और येन केन प्रकारेण यही चाहती है कि आलोचना न हो। सरकार, बजाय जनता से डिक्टेट होने के जनता को ही डिक्टेट करने लगती है। डिक्टेटरशिप के वायरस का यह प्रथम संक्रमण होता है। अगर गम्भीरता से अध्ययन किया जाय तो चाहे किसी भी दल की सरकार हो उसने अभिव्यक्ति के अधिकार की बात तो की है पर असहज करने वाली अभिव्यक्तियों के खिलाफ संयम नहीं दिखाया है। यह सत्ता का चरित्र है। अधिकार की मादकता है। ठस, निर्मम और संवेदनहीनता की ओर बढ़ते सत्ता का स्वरूप है यह।
अभिव्यक्ति की आजादी भारत के नागरिकों को प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों में से एक है। यह हमारे देश के नागरिकों को अपने विचार व्यक्त करने और अपनी सोच को स्वतंत्र रूप से साझा करने की अनुमति देता है। यह आम जनता के साथ-साथ मीडिया को सभी राजनीतिक गतिविधियों पर टिप्पणी करने और उन लोगों के खिलाफ असंतोष दिखाने की छूट देता है जो उन्हें अनुचित लगते हैं। भारत की तरह अन्य कई देश भी अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी प्रदान करते हैं लेकिन कुछ सीमाओं के भीतर। हर देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाए गए प्रतिबंध भिन्न-भिन्न हैं। ऐसे कई देश भी हैं जो इस बुनियादी मानव अधिकार की अनुमति नहीं देते हैं। ऐसे देशों में सामान्य जनता और मीडिया सरकार द्वारा की गई गतिविधियों पर टिप्पणी करने से परहेज करती है। ऐसे देशों में सरकार, राजनीतिक दलों और मंत्रियों की आलोचना एक दंडनीय अपराध है। समाज के समग्र विकास के लिए बोलने की स्वतंत्रता जरूरी है पर फिर भी इसके कुछ नकारात्मक नतीजे हो सकते हैं।
अक्सर अभिव्यक्ति के अधिकार की सीमा, मर्यादा और दुरुपयोग की बात की जाती है। स्वतंत्रता स्वच्छंदता नहीं है। यह बात बिल्कुल अपनी जगह दुरुस्त है। इसीलिए कानून में अभिव्यक्ति या संवैधानिक मूल अधिकारों की आड़ में किये जाने वाले अपराध से निपटने के लिये दंडात्मक प्राविधान भी है। पर अक्सर इस पर विवाद उठ खड़े होते हैं कि अभिव्यक्ति के अधिकार और उसके दुरुपयोग की उस क्षीण सीमा रेखा को कहां तय किया जाय। कानून के व्याख्याकार भी इस पर एक मत नहीं है। यह जिम्मेदारी आलोचना करने और खबरें देने वाले समाज की है वह जो कहे मर्यादित रूप से कहे और प्रोपैगैंडा से दूर रहे। लोगों को दूसरों का अपमान करने या भड़काने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। मीडिया को जिम्मेदारी से कार्य करना चाहिए और अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।
पिछले पांच छह सालों से भारतीय मीडिया का एक नया रूप सामने आया है। अमूमन मिडिया सरकार के फैसलों की समीक्षा और अपने अपने वैचारिक आधार पर उसकी आलोचना और मीन मेख निकालने का काम करके जन सरोकार को स्वर देने का काम करता है। पर पिछले पांच सालों में अधिसंख्य इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चैनलों ने खुद को जन सरोकार से दूर करके सत्ता के पक्ष में खुद को खड़ा कर लिया है। यह दोष उन मीडिया समूहों से जुड़े पत्रकारों का उतना नहीं है जितना कि उन चैनलों और अखबारों के पूंजीपति मलिकों का। व्यापार करना है तो सत्ता की निकटता और कृपा आवश्यक है। वैसे भी पत्रकारिता के इस बाज़ारू युग मे गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबूराव विष्णु पराड़कर और 1975 के इंडियन एक्सप्रेस जैसी पत्रकारिता की खोज और उम्मीद अब मुश्किल हो गयी है। मीडिया के इस सत्तोन्मुखी स्वरूप ने सत्ता की असहनशीलता और बढ़ा दी है। सत्ता को अब अपनी ज़रा सी भी आलोचना असह्य लगती है और वह असहज महसूस करने लगती है और उसकी भ्रू भंगिमा बदल जाती है। इस असहजता में सरकार कुछ ऐसे निर्णय ले लेती है जिससे वह नए आलोचनाओं से घिर कर खुद को ही नये सवालों में फंसा लेती है।
सोशल मीडिया के रुप में जनता को अपनी असहमति और अभिव्यक्ति के अधिकार के प्रयोग के लिये एक अद्भुत मंच मिला है। इस मंच ने दुनियाभर में अकड़ू, जिद्दी और ठस सरकारों को झुकने के लिये बाध्य कर दिया है। सबसे ताज़ा उदाहरण सऊदी अरब का है। एक धर्मांध राजतंत्र भी मुर्तजा जैसे एक किशोर के समक्ष सोशल मीडिया में उसके समर्थन में आये सैलाब से हिल गया है। मुर्तजा कुरेरीस को सऊदी अरब सरकार ने फांसी की सज़ा दी थी, जिसे अब रद्द कर दिया गया है। सन 2011 के अरब स्प्रिंग को याद करें, अरब दुनिया के अनेक देश जहां राजतंत्र, तानाशाही और शोषण के खिलाफ जन आंदोलन फूट पड़ा था। इस जन आंदोलन से सऊदी अरब भी इससे अछूता ना रहा, यहां भी जबरदस्त आंदोलन हुआ इसी आंदोलन के दौरान अली कुरेरिस नाम के एक 17 साल के नौजवान को सेना ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। उसके 10 साल का भाई मुर्तजा ने अपने बड़े भाई की मृत्यु के बाद अपने सारे दोस्तों को एकत्र कर और साइकिल से घूम घूम कर जनतंत्र की मांग के लिये सरकार विरोधी नारे लगाए, कई दीवारों में पोस्टर भी लगाएं। सिर्फ इसी अपराध में मुर्तज़ा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और 4 साल तक तनहाई में अर्थात एकांत कारावास में बिना कोई मुकदमा चलाएं नजरबंद रखा, क्योंकि सऊदी कानून के अनुसार किसी नाबालिक को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता। आज 2019 में वह 10 साल का मुर्तजा बालिग हो चुका है। जेल के भीतर ही उन्होंने किशोरावस्था के स्वर्णिम पलों को घुट-घुट कर जीया और अब जैसे ही वह बालिग हो गया सरकार ने उसे मृत्युदंड दे दिया। उसके प्राणों की रक्षा के लिए सऊदी अरब में माताएं सदियों की बंदिशें तोड़कर सड़क पर निकल रही है, दुनिया भर से मुर्तजा के मृत्युदंड को रोकने की मांग उठाई जा रही है, एमनेस्टी इंटरनेशनल सहित कई देशों ने सऊदी अरब से मृत्युदंड रद्द करने की अपील की थी।
भारत मे सऊदी अरब जैसी असहिष्णुता न तो कभी रही है और न ही कभी होगी। इसका कारण असहमति और अभिव्यक्ति की आज़ादी की एक लंबी परम्परा और प्रवित्ति का होना है। सरकार, कितनी भी लोकप्रिय क्यों न हो, सत्ता शीर्ष कितना भी मज़बूत क्यों न हो, उसके खिलाफ असहमति और अभिव्यक्ति का अधिकार हमें सुरक्षित रखना ही होगा। सरकार जनता के लिये है, वह एक तयशुदा कार्यक्रम और वायदों के आधार पर चुनी जाती है, वह उन वायदों को पूरा करने के लिये शपथबद्ध है। जनता को सरकार से उन वायदों के बारे पूछने जांचने और जवाबतलब करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। मीडिया इन्ही अधिकारों को स्वर देने का एक उपकरण है। अब यह निर्णय मीडिया को लेना है कि वह जनता के सवालों के साथ खड़ी होती है या सत्ता का बगलगीर बनती है। अगर वह सत्ता का बगलगीर बन कर रहती है तो धीरे धीरे सोशल मीडिया उसे अप्रासंगिक कर देगी। संविधान में दिये गये मौलिक अधिकार हमारी समृद्ध परंपरा के ही एक अंग हैं, हमे उसे बनाये रखना होगा। जनता सर्वोपरि है, सरकार नहीं, इसे महज सुभाषित ही न माना जाय बल्कि इसे लोकतंत्र का मूल और आत्मा माना जाना चाहिये । इसे बचाये रखना ज़रूरी है।
@ विजय शंकर सिंह
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