बजट पेश होने को है। हलवा बन कर बंट चुका है। छप रहा है। क्या छप रहा है यह सरकार के बाहर गिरोहबंद पूंजीपतियों के कॉकस को भले ही आभास हो पर हमें आप को आभास नहीं होगा। कुछ आर्थिक जगत की खबरें रखने वाले पत्रकार भी यह भनक रखते होंगे।
खबर यह मिली है कि प्रधानमंत्री ने देश के चालीस अर्थशास्त्रियों से देश की आर्थिक व्यवस्था के बारे में विचार विमर्श किया है और कैसे इसे और विकसित किया जाय इस पर मंथन किया है। मंथन का क्या परिणाम निकला है यह तो जब बजट पेश होगा तभी पता चल सकेगा। चालीस मे से सभी अर्थ शास्त्री ही नहीं थे, कुछ सरकार के चहेते पूंजीपति भी थे। उन्हीं में से एक वेदांत ग्रुप के अनिल अग्रवाल भी थे, जिन्होंने यह मशविरा दिया कि सरकार को व्यापार नहीं करना चाहिये। यह बयान सरकार की आर्थिक सोच और एजेंडे की दिशा बताता है।
फिलहाल तो अगर आरबीआई की मानें तो देश की आर्थिक स्थिति चिंताजनक है। शशिकांत दास जो आरबीआई के गवर्नर हैं ने भी यह चिंता ज़ाहिर की है। उनके अनुसार विकास दर कम रहेगी और वह चिंताजनक रहेगी। आरबीआई के ही डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने अपना पद अपने नियमित कार्यकाल के छह महीने पहले ही छोड़ दिया है। विरल आचार्य ने आरबीआई की स्वायत्तता के मुद्दे पर सरकार द्वारा की जा रही दखलंदाजी के विरुद्ध कुछ महीने पहले एक व्याख्यान में आपत्ति उठायी थी।
द प्रिंट के अनुसार, आरबीआई ज्वाइन करने वाले आचार्य आर्थिक उदारीकरण के बाद केंद्रीय बैंक के सबसे कम उम्र के डिप्टी गवर्नर थे. उन्होंने 23 जनवरी, 2017 को आरबीआई को ज्वाइन किया था. आरबीआई के पूर्व गवर्नर उर्जित पटेल के बाद विरल आचार्य मौद्रिक नीति समीक्षा में अन्य सदस्यों से अलग राय रखते थे. आचार्य ने 26 अक्टूबर, 2018 को आरबीआई की स्वायत्तता कायम रखने को लेकर बयान दिया था. वह पिछली दो मौद्रिक नीति समीक्षा के दौरान बाकी सदस्यों से अलग राय रख रहे थे.
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के डिप्टी गवर्नर वीरल आचार्य ने 6 महीने पहले ही अपने कार्यभार से इस्तीफा दे दिया है। आचार्य ने 23 जनवरी, 2017 को तीन साल के लिए आरबीआई के अहम पद को संभाला था। बिजनस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक पद छोड़ने के पीछे उन्होंने व्यक्ति कारण बताया है। अब वह वापस अमेरिका जा रहे हैं। जानकारी के मुताबिक अमेरिका के न्यूयॉर्क स्थित स्टर्न स्कूल ऑफ बिजनस में वीरल आचार्य अब अध्यापन का काम करेंगे।
विरल आचार्य का आरबीआई से त्यागपत्र, पहलीं घटना नहीं है। बल्कि सरकार के भरोसेमंद पूर्व गवर्नर आरबीआई, उर्जित पटेल ने भी अपना पद अपना कार्यकाल पूरा होने के पहले ही छोड़ दिया था। दरअसल जब नोटबन्दी की घोषणा प्रधानमंत्री ने की तो यह चर्चा आम थी कि आरबीआई से इस बारे में जिसे देश की मौद्रिक नीति बनाने और लागू करने का स्वायत्तता पूर्ण अधिकार है, कोई परामर्श नहीं किया गया बल्कि उसे इस निर्णय की सूचना दी गयीं थी। इसके बाद जब सरकार की आर्थिक स्थिति बिगड़ी तो उसने आरबीआई के रिजर्व फंड से कुछ धन चाहा जो एक असामान्य स्थिति थी। उर्जित पटेल ने सरकार के इस निर्णय को आरबीआई की स्वायत्तता पर अतिक्रमण माना और त्यागपत्र दे दिया। तभी शशिकांत दास जो वित्त सचिव थे को गवर्नर बनाया गया।
पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम और भाजपा के ही सांसद और अर्थशास्त्री सुब्रमण्यम स्वामी ने तो जीडीपी में ही हेराफेरी का आरोप लगा कर सरकार द्वारा दिखायी जा रही जीडीपी के आंकड़ों पर सवाल उठा दिया है। रोजगार की हालत, स्वास्थ्य सेवाओं की दशा, यह तो अब सबके सामने है।
अगर किसी एक कारण को जिम्मेदार माने तो वह कारण है सरकार द्वारा अप्रत्याशित और गैर जरूरी रूप से नोटबन्दी को लागू करना। वह कदम क्यों उठाया गया, किस उद्देश्य से उठाया गया, किसके हित मे उठाया गया और उससे मिला क्या, यह सारे सवाल अभी जीवित हैं। उसी घटना के बाद से अर्थ व्यवस्था में जो गिरावट आयी है अभी तक बरकरार है और जैसा कि अर्थ व्यवस्था के जानकार बताते हैं, यह जल्दी सुधरने वाली भी नहीं है।
आज प्रधानमंत्री जी चालीस अर्थशास्त्रियो से राय मशविरा कर रहे हैं, अगर नोटबन्दी को लागू करने के पहले उस विषय पर चार अर्थशास्त्रियो से भी राय मशविरा कर लिए होते तो शायद आज यह स्थिति नहीँ आती। फिर भी उम्मीद है चालीस लोगों की राय देशहित में काम आएगी और अर्थ व्यवस्था पटरी पर आएगी।
उल्लेखनीय है कि इससे पहले अरविंद सुब्रमण्यम ने जुलाई 2018 में व्यक्तिगत कारणों से मुख्य आर्थिक सलाहकार पद से इस्तीफा दे दिया था और अगस्त 2017 में नीति आयोग के उपाध्यक्ष रहे अरविंद पनगढ़िया ने भी अपना पद छोड़ दिया.
© विजय शंकर सिंह
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