चुनाव में तो सत्तारूढ़ दल भाजपा और सरकार असल मुद्दों से भागती और बचती ही रही, अब जब शासन करने का वक़्त और अवसर आया है तो भी जनता से जुड़े असल मुद्दे रोजी, रोटी,शिक्षा स्वास्थ्य, सरकार के राडार पर नहीं आ रहा है। किन बादलों को दोष दूँ, जो सरकार के राडार से जन सरोकार के इन मौलिक मुद्दों को दूर रखें हुये है ?
सरकार को सर्वदलीय बैठक, मुजफ्फरपुर के बच्चों की मौत के कारणों, चमकी बुखार की विभीषिका, देश की बदहाल चिकित्सा व्यवस्था, चिकित्सा पर सरकारी बजट के व्यय, अपव्यय, दुरुपयोग, कमी, ज़रूरतों, आयुष्मान योजना की व्यवहारिकता पर बहसा और विचार विमर्श के लिये बुलानी जानी चाहिये तो सरकार, सर्वदलीय बैठक बुला रही है एक देश एक चुनाव पर। यह सत्ता का नीरोवाद है। असंवेदनहीनता और देश के सामने सबसे ज्वलंत मुद्दे से मुंह चुराना है।
चुनाव आयोग को यह दायित्व दीजिये कि वह इस विषय पर अपनी वैधानिक और व्यवहारिक राय दे कि क्या एक देश एक चुनाव की परिकल्पना जो न जाने किसके मस्तिष्क की उपज है, हो सकता है या एक साथ होना चाहिये कि नहीं ? क्या यह संघीय व्यवस्था, जो संविधान का मूल ढांचा है के विपरीत नहीं होगा ? इस पर अटॉर्नी जनरल से भी कानूनी मशविरा लिया जा सकता है। इस महत्वपूर्ण विंदु के साथ साथ और भी चुनाव सुधार से जुड़े मुद्दे इस के साथ जोड़े जा सकते हैं, जैसे, इलेक्टोरल बांड, चुनाव में प्रयुक्त काला धन, पोलिटिकल फंडिंग, कम से कम समय मे चुनाव सम्पन्न होने, आचार संहिता का पुनरीक्षण, अचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में पारदर्शिता पूर्ण निष्पक्ष कार्यवाही, आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को चुनाव न लड़ने देने की बात, चुनाव में अपनी डिग्री, वैवाहिक स्थिति आदि के बारे में अलग अलग चुनावों में अलग अलग सूचना झूठे हलफनामे दे कर आयोग और जनता को गुमराह करने के बारे में क्या कार्यवाही ऐसे प्रत्याशियों के विरुद्ध हो सकती है, ईवीएम पर उठते संशय का तार्किक समाधान करने के बारे में आदि आदि।
पर सत्तारूढ़ दल ने चुनाव के दौरान तो असल मुद्दों से मुंह चुराया ही, अब जब शासन करने का समय आया तो 2014 के लंबित संकल्पपत्र के लंबित वादों से लेकर आज सामने खड़ी आर्थिक समस्याओं, स्वास्थ्य की समस्याओं, किसानों की आय 2022 में कैसे दुगुनी की जाय, सबको 2022 तक कैसे घर दिया जाय, जम्मू कश्मीर में कैसे सैनिकों और सुरक्षा बलों के जवानो की लगभग प्रतिदिन हो रही, शहादत रोकी जाय, पर सर्वदलीय बैठक बुला कर आगे का एजेंडा तय करना चाहिये तो अब एक देश एक चुनाव की बात प्रमुखता से उठायी जा रही है, जो संभव ही नहीं है।
सरकार चलाना कब सीखेंगे सरकार ? सरकार चलना सीखिये अब तो । यह तो शासन न करने की कला है। नीरोवाद शब्द मैंने नीरो की असंवेदनहीनता से लिया है । आप अगर इस शब्द से असहमत और असहज हो रहे हैं, तो नया शब्द गढ़ सकते हैं या चुन सकते हैं।
© विजय शंकर सिंह
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