Monday, 24 June 2019

विमर्श - एक देश, एक चुनाव और संवैधानिक स्थिति / विजय शंकर सिंह

2019 में सत्तारूढ़ होने के बाद सरकार ने अपनी प्रथम प्राथमिकता घोषित की है, एक देश एक चुनाव। सरकार का यह एजेंडा पहली बार नहीं सामने आया है, बल्कि  सरकार का यह पुराना एजेंडा है। सालभर पहले भी सरकार यह मुद्दा उठा चुकी है और अब फिर यह मुद्दा उठाया जा रहा है। एक देश एक चुनाव क्यों चाहिए यह न तो सरकार ने अब तक बताया है और न ही सत्तारूढ़ दल के थिंक टैंक ने। इस पर बहस शुरू हो चुकी है, आज का विमर्श इसी विंदु पर है।

भारत मे 26 जनवरी 1950 को संविधान के लागू करने के बाद पहला चुनाव 1952 में हुआ था। हमारा संविधान संघीय ढांचे का संविधान है। देश की प्रशासनिक और विधायिक व्यवस्था केंद्र और राज्य में बंटी है। केंद्र और राज्य की अलग अलग शक्तियां तय हैं। राज्य के जो विषय हैं, उनमें वे स्वायत्त होते हैं और केंद्र के अधीन होते हुये भी अपने प्रशासनिक और नीति निर्माण के मामलों में स्वतंत्र हैं। यह संघवाद संविधान के मूल ढांचे का एक अंग है जिसे संशोधित या बदला नहीं जा सकता है। अब भारत के संसदीय लोकतंत्र के निर्वाचनों के इतिहास पर एक नज़र डाल ली जाय।

1947 में देश को पहला मंत्रिमंडल मिल गया था। संविधान सभा गठित हो चुकी थी। उस अवधि में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अनुसार और अन्य बिटिश भारत के कानूनों के अनुसार, देश की शासन व्यवस्था चल रही थी। संविधान जब बना तब, देश मे निर्वाचन के लिये निर्वाचन आयोग की स्थापना हुयी और चुनाव कराने के नियम उपनियम बने। हालांकि 1937 और इसके पहले भी ब्रिटिश राज में देश मे चुनाव हुए थे। पर न तो वे उतने व्यापक थे, और न ही उतने प्रभावी सरकार के लिये हुये थे, जितने कि 1952 के बाद के चुनाव थे। ब्रिटिश काल मे सदन को कॉउन्सिल कहा जाता था। इनके भी चुनाव होते थे। पर वास्तव में सारा प्रशासकीय दारोमदार और जिम्मेदारी वायसराय और उनके सीधे अधीनस्थ नियुक्त गवर्नर या लेफ्टिनेंट गवर्नर साहबान पर था। वायसराय की सहायता के लिये उसकी सलाहकार परिषद होती थी। जो अपनी बात कहते तो थे, पर उनकी बात या सलाह, मानने के लिए वायसराय बाध्य नहीं था। वायसराय सीधे ब्रिटिश संसद के अधीन था। लेकिन जब नया संविधान बना तो 1947 के पांच साल बाद 1952 में इसी संविधान के अनुसार में देश मे पहला आम चुनाव हुआ।

हमारा संविधान और संसदीय लोकतंत्र का स्वरूप वेस्ट मिनिस्टर लोकतंत्र पर आधारित है। हालांकि संविधान निर्माताओं ने दुनिया मे उपलब्ध सभी शासन प्रणाली और संविधान का अध्ययन किया पर हनारे संविधान और शासन व्यवस्था का मूल आधार ब्रिटिश राज व्यवस्था ही थी। हमारा संविधान लिखित संविधान है जब कि ब्रिटेन का संविधान अलिखित है और 1215 ई के मैग्नाकार्टा के बाद समय समय पर होने वाली परम्परा से विकसित है।

1952 ई से लेकर 1967 तक देश मे लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव साथ साथ हुये। 1952 से लेकर 1967 तक कांग्रेस का बोलबाला रहा। केंद्र और राज्यों में लगभग सभी जगह उसी की सरकारें थीं। तब तक सभी सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करतीं रहीं। विरोध में कोई मज़बूत दल नहीं था। क्षेत्रीय दलों में केवल द्रविड़ कषगम और द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम का ही उभार था। कम्युनिस्ट पार्टी केरल और बंगाल में मज़बूत ज़रूर थी। पर 1963 में जब डॉ राममनोहर लोहिया फर्रुखाबाद से उपचुनाव में जीत कर संसद में पहुंचे तब देश को विपक्ष की भूमिका और महत्व का आभास हुआ। डॉ लोहिया ने संसद में सबसे पहला अविश्वास प्रस्ताव प्रस्तुत किया। बहसें हुयीं और प्रस्ताव गिरा भी । यह जानते हुए भी क़ि यह प्रस्ताव गिरेगा, लेकिन विरोध एक संवैधानिक कर्तव्य और विपक्ष का यह एक संवैधानिक दायित्व है, डॉ लोहिया ने यह प्रस्ताव लोकसभा में नेहरू सरकार के विरुद्ध पेश किया।

1967 तक आते आते देश मे गैर कांग्रेसवाद का एक माहौल बन गया। यह शब्द और यह सिद्धांत भी डॉ लोहिया की ही देन था । जब 1967 में देश मे सभी चुनाव एक साथ हुए तो, कांग्रेस का एकाधिकार खत्म हो चुका था। केंद में तो कांग्रेस रही। लेकिन कई राज्यों में गैर कांग्रेसी दल जीत कर सत्ता में आये, पर वे अल्पजीवी साबित हुये। उधर कांग्रेस में भी बिखराव शुरू हो चुका था। 1969 में वह दो भागों में बंट गयी । एक को सिंडिकेट, कांग्रेस एस कहा गया दूसरी को इंदिरा गांधी के नाम पर कांग्रेस आई । सिंडिकेट किसी के नाम पर नहीं कहा गया था, बल्कि पुराने और अनुभवी कांग्रेस के नेताओं, मोरारजी, अतुल्य घोष, के कामराज और निजलिंगप्पा आदि के गुट को  अंग्रेज़ी शब्द सिंडिकेट से संबोधित किया गया। जगजीवन राम इंदिरा कांग्रेस के अध्यक्ष बने । फिर 1971 में लोकसभा का चुनाव हुआ। लेकिन विधानसभाओं के चुनाव तब नहीं हुए थे। तभी से लोकसभा और राज्यो की विधानसभाओं के चुनाव अलग अलग होने लगे। यह एक प्रकार की संवैधानिक बाध्यता थी।

संविधान के अनुसार राज्य की विधानसभाएं और लोकसभा की अवधि पांच वर्ष की तय की गई है। बहुमत प्राप्त दल की सरकार बनेगी और उससे कम संख्या वाले दल सदन में बांयी तरफ यानी विपक्ष में बैठेंगे। सदन के विश्वास तक यह सरकार रहेगी। अगर राज्य की विधानसभा किसी कारण से भंग हो जाती है तो राज्य में राष्ट्रपति शासन लग जाएगा, जो छह महीने या फिर संसद के अनुमोदन से कुछ और अवधि के लिये बढाया जा सकता है। लेकिन राष्ट्रपति शासन लोकप्रिय सरकार का विकल्प नहीं है। राज्य में चुनाव होता है और जो भी दल बहुमत प्राप्त या दलों का समूह बहुमत साबित करता है, वह सरकार बनाता है। इससे स्पष्ट है कि लोकसभा और राज्य की विधानसभा की स्थितियां बिल्कुल अलग अलग हैं, दोनों ही संघीय ढांचे के अनुसार अलग अलग संवैधानिक सत्ता हैं। कानून बनाने और उन्हें लागू करने की दोनों की अपनी अलग अलग शक्तियां है । यह संघीय ढांचे की विशेषता है ।

1967 के बाद उत्तरप्रदेश के संदर्भ का एक उदाहरण दृष्टव्य है, जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि दोनों ही विधायिकाओं के चुनाव एक साथ बिना संविधान बदले नहीं कराए जा सकते हैं अगर राज्य की विधानसभाये या लोकसभा अपनी निर्धारित संवैधानिक कार्यकाल पूरा नहीं करते हैं तो। 1967 में उत्तरप्रदेश विधान सभा त्रिशंकु हो गयी, और दो साल में ही 1969 में पुनः मध्यावधि चुनाव हुए। जब कि केंद्र की सरकार चल रही थी। फिर 1974, 1977, 1980, 1985, 1989, 1991, 1993, 1996, 2002, 2007, 2012, 2017 में विधानसभा के चुनाव हुये। 1967 से ले कर 2002 तक कोई भी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी, और मध्यावधि चुनाव होते रहे। 2002 के बाद स्थिरता बनी और तब से सभी सरकारें अपना कार्यकाल पूरा कर रही हैं।

अब इसी अवधि में लोकसभा की स्थिति भी देखें। 1967 के बाद लोकसभा का चुनाव 1972 में होना चाहिये था जो एक साल पहले ही सरकार ने लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर के उसे 1971 में ही करा दिया था । 1969 के कांग्रेस विभाजन के बाद इंदिरा गांधी की सरकार वामपंथी दलों के समर्थन पर टिकी थी, लेकिन पूर्ण और स्वतंत्र बहुमत की आशा से, इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग करने की सिफारिश कर दी। 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा को पूर्ण बहुमत मिला। संविधान के अनुसार 1971 के पांच साल बाद 1976 में चुनाव होने चाहिये थे पर कुछ ऐसे घटनाक्रम हुए कि 1975 में सरकार ने आपातकाल की घोषणा कर दी और एक साल के लिये चुनाव टाल दिया। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी जो ढाई साल में ही बिखर गयी और फिर 1980 में चुनाव हुये। कांग्रेस फिर सत्ता में आई। नियमानुसार अब चुनाव 1985 में होने चाहिये थे। लेकिन 31 अक्तूबर को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चुनाव फिर पहले खिसका दिए गए जो 1984 में हुए। 1989 तक यह सरकार चली फिर वीपी सिंह पीएम बने, फिर चंद्रशेखर अंततः 1991 में पुनः चुनाव हुये जिसके बाद पांच साल तक स्थिरता बनी रही। फिर  1996 में निर्धारित चुनाव हुए। लेकिन 1996 के बाद 1998, 1999 में जल्दी जल्दी चुनाव हुए क्यों कि केंद में कोई भी स्थायी सरकार इन चुनावों के बाद नहीं बन पायी थी। 1996 से 1998 तक की अवधि में इंद्रकुमार गुजराल, एचडी देवगौड़ा और अटल जी प्रधानमंत्री बने। फिर 1999 में चुनाव हुए और भाजपा नेतृत्व में एनडीए की चुनी हुई सरकार बनी जो अपना कार्यकाल पूरा कर के, 2004 तक चली। तब से 2009,और 2014 के आम चुनावों में स्थायी सरकार रही। 2019 में अभी हुये लोकसभा के चुनाव में भी पूर्ण बहुमत की सरकार है जो 2024 तक चलेगी।

इस प्रकार 1967 के बाद के चुनावो के इतिहास पर दृष्टिपात कीजिएगा तो लोकसभा और उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनावों में अलग अलग वर्षो में होने का एक पैटर्न मिलेगा। 1967 के बाद दोनों चुनाव एक साथ सम्पन्न नहीं हो सके। यही स्थिति कुछ अन्य राज्यो में भी मिलेगी। जिन राज्यो में अस्थिर सरकारें या त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति अधिक रही है वहां पर चुनाव जल्दी जल्दी हुए हैं। केंद्र में भी यही स्थिति 1989 से 91 और फिर 1996 से 1999 के बीच खंडित जनादेश की सरकारें रही इस लिये मध्यावधि चुनाव कई बार हुये। लेकिन जब से यूपीए और एनडीए जैसे दो बड़े दलीय समूह बन गए तब से केंद्र में स्थिरता आयी है और चुनाव संवैधानिक काल क्रम के अनुसार हो रहे हैं ।

आप कल्पना कीजिये सरकार या संसद ने यह तय कर लिया कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होंगे तो इसका क्या परिणाम होगा। अगर यह मान लें कि, आगे आने वाले समय में लोकसभा के साथ सभी विधानसभाओं के भी चुनाव होंगे तो,
* उन सभी राज्यो की विधानसभा को जिनके कार्यकाल पूरे नहीं हुए हैं भंग करना पड़ेगा।
* जिन राज्यों के विधानसभा के चुनाव 2019 से 2024 तक में होने वाले हैं उन्हें लोकसभा के चुनाव 2024 तक खिसकाना पड़ेगा, या लोकसभा समय के पूर्व भंग करनी पड़ेगी।
* लोकसभा और जिन राज्यों की विधानसभा ने कार्यकाल पूरा नहीं किया है और वहां सरकारें  चल रही है उसके सदन को भंग करने का औचित्य क्या होगा ?
* क्या यह असंवैधानिक नहीं होगा ?
* जिन राज्यों में चुनाव 2020 में संभावित हैं उन राज्यों में बिना संविधान संशोधन के या बिना राष्ट्रपति शासन लगाए चुनाव कैसे टाला जा सकेगा ?
* अगर एक बार सारी विधानसभाओं और लोकसभा को भंग कर के एक देश एक चुनाव के सूत्र के अनुसार चुनाव हो भी गये तो सभी विधानसभाएं और लोकसभा अपने पांच साल के निर्धारित कार्यकाल को पूरा करेंगी ही, इसकी क्या  गारंटी है ?
* अगर कोई विधान सभा चुनाव के एक साल के भीतर ही किसी संवैधानिक संकट के कारण अल्पमत में आ कर बर्खास्त हो जाती है तो क्या राष्ट्रपति शासन जब तक लोकसभा का चुनाव न हो, तब तक लगाया जा सकेगा ? फिलहाल संविधान में इसकी कोई व्यवस्था नहीं है।
* इसी प्रकार लोकसभा अगर अल्पमत में आकर भंग हो जाय तो एक देश एक चुनाव के फार्मूले पर क्या देश की सारी विधानसभाएं जो निर्बाध चल रही हैं भंग नहीं करनी पड़ेंगी ?
इस प्रकार के अनेक जटिल संवैधानिक सवाल खड़े होंगे जिनका समाधान आवश्यक है।

अगर यह मान भी लिया जाय कि किसी संवैधानिक संशोधन से यह समस्या हल कर के दोनों चुनाव एक साथ करा भी दिये जांय तो  क्या भविष्य में यह प्रणाली चल पाएगी ? इस बात की क्या गारंटी है कि बाद में चुन कर आने वाली लोकसभा और विधानसभाएं त्रिशंकु नहीं होंगी और सभी आदर्श स्थिति में अपना कार्यकाल पूरा करेंगी ?

राज्य की विधानसभाओं के भंग होने पर या विधानसभा की सुशुुप्तावस्था ( सस्पेंडेड एनिमेशन की दशा ) में होने पर राष्ट्रपति शासन का तो प्राविधान है पर लोकसभा भंग होने की स्थिति में पूरे देश को राष्ट्रपति शासन के अंर्तगत रखने का कोई भी प्राविधान नहीं है। छह महीने से अनधिक अवधि में संसद का गठन और अधिवेशन बुलाया जाना अनिवार्य है। इस लिये भविष्य में फिर वही स्थिति आ जायेगी जिसमे लोकसभा और राज्य की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ नहीं कराए जा सकेंगे।

संविधान में अगर संशोधन द्वारा ऐसी समस्याओं का निदान किया भी गया तो देश संघीय ढांचे से अलग हट जाएगा और जब जब लोकसभा के चुनाव होंगे तभी समस्त विधानसभाओं के भी चुनाव कराने पड़ेंगे। इसका सीधा असर केंद्र राज्य के बीच अधिकार और शक्तियों का जो विभाजन संविधान में किया गया है उस पर पड़ेगा। संविधान को इतना संशोधित करना पड़ेगा कि संविधान का मूल स्वरूप ही बदल जायेगा। भारत का संविधान एक संघीय ढांचा को मान्यता देता है। भारत एक संघ है। राज्य और संघ सबके अलग अलग अधिकार और शक्तियां हैं। ये अधिकार और शक्तियाँ संविधान में स्पष्तः वर्णित है। किसे किस विषय मे कानून बनाने का अधिकार है यह भी संविधान में स्पष्ट रूप से अंकित है। इस व्यवस्था को संविधान संशोधित करके भी तोड़ा नही जा सकता है। क्यों यह संविधान का मूल ढांचा है और संसद को संविधान का मूल ढांचा बदलने का कोई अधिकार नहीं है, यह सुप्रीम कोर्ट 1973 में केशवानंद भारती के एक प्रसिद्ध मुक़दमे में अपनी व्यवस्था दे चुका है। उपरोक्त कारणों और संभावनाओं के कारण, पूरे देश मे एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं है। इस विषय पर चर्चा करने के बजाय निर्वाचन आयोग द्वारा दिये गए चुनाव सुधारो पर चर्चा करना और उसे लागू करना अधिक उपगुक्त होगा।

एक देश एक चुनाव, कानून के छात्रों के लिये एक अकादमिक मुद्दा हो सकता है, पर यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं है कि सरकार इसे प्राथमिकता में रखे। लोकसभा और सभी विधानसभाएं अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा कर के ही जनादेश के लिये जनता के बीच चुनाव के लिये जांय, यह एक आदर्श स्थिति है पर अगर ऐसा नहीं होता है तो उस विधानसभा या लोकसभा का मध्यावधि चुनाव होगा न कि देश की सारी विधानसभाओं को पुनः भंग कर के चुनाव में झोंक दिया जाय।

© विजय शंकर सिंह

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