Friday, 28 June 2019

पुण्यतिथि 27 जून - पत्रकार स्व. एसपी सिंह जी को याद करते हुये / विजय शंकर सिंह

आज पत्रकार एसपी सिंह जी, ( सुरेंद्र प्रताप सिंह ) जिन्होंने आजतक को शुरू किया था कि पुण्यतिथि है और उनके साथ रहे उनके सभी मित्र उनका स्मरण कर रहे हैं। उनसे जुड़ी मेरी भी कुछ पारिवारिक और घरेलू स्मृतियां हैं जिन्हें आप सब से साझा कर रहा हूं।

मेरा बचपन कलकत्ता में बीता है, पर कलकत्ता शहर में नहीं, बल्कि कलकत्ता के उत्तर लगभग 20 किमी दूर श्यामनगर रेलवे स्टेशन के पास गरुलिया नामक एक कस्बे में। मेरे पिता वहां स्थित एक कॉटन मिल डनबर मिल्स में परसनल मैनेजर थे और उसी गरुलिया कस्बे में ही एसपी सिंह जी के पिता जी और उनका परिवार रहता था। कुछ दूर की रिश्तेदारी भी थी और मेरे पिताजी से उनके पिताजी की कुछ घनिष्ठता भी तो आना जाना लगा रहता था। तब मेरा बचपन था। पिता जी के साथ कई बार उनके घर गया हूँ। तब एसपी सिंह जी से मिला भी खूब हूँ, पर एक दूरी बनी रही क्योंकि वे उम्र में बड़े थे और बात भी कम करते थे। मिलने पर कुछ न कुछ पढ़ाई के बारे में पूछने लगते थे।

जब में बीएचयू में पढ़ता था, तब छुट्टियों के बीच इम्तिहान देकर नियमित कलकत्ता चला जाता था तो गरुलिया स्थित मिल कैम्पस के आवास में मन नहीं लगता था। जब भी मन होता श्यामनगर से लोकल ट्रेन पकड़ कर कलकत्ता चला जाता था। श्यामनगर से लोकल ट्रेन मिलती थी, और चालीस मिनट में सियालदह। उन्ही दौरान वे हिंदी पत्रिका रविवार के संपादक हो गये थे। तब आनंद बाजार ग्रुप में दो  पत्रिकाएं निकलना शुरू हुयी थी, एक हिंदी की रविवार और दूसरी अंग्रेज़ी की संडे। संडे के सम्पादक एमजे अकबर थे और रविवार के एसपी सिंह जी। एमजे अकबर से भी मेरी मुलाकात तभी हुयी थी। पर उनसे मेरा कोई अधिक संपर्क नहीं रहा।

एसपी सिंह जी को यह पता था मैं प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहा हूँ तो उन्होंने वहां की नेशनल लाइब्रेरी में अपने एक मित्र के माध्यम से मेरा कार्ड बनवा दिया था और मैंने उस लाइब्रेरी का जो भी लाभ उठा सकता था उठाया। उसी दौरान उनकी पत्रिका में कुछ रिक्तियां निकली तो उन्होंने मेरे पिता जी को यह बात बतायी और बनारस में मेरे पते पर उन रिक्तियों का विवरण देते हुए आवेदन करने को कहा और यह भी कहा कि यहीं आकर आवेदन भर दो।

मैं कलकत्ता गया और उन रिक्तियों के संदर्भ में आवेदन किया और फिर वापस बनारस और इलाहाबाद चला आया। इलाहाबाद में मैं पढा नहीं हूं बल्कि प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये वहां के मम्फोर्डगंज मुहल्ले में मेरे मामा जी जो इलाहाबाद में ही एजी ऑफिस में अधिकारी थे, के यहां रहता था। 1977 में पीसीएस का इम्तहान देकर मैं कलकत्ता गया तो लंबे समय तक वहां रुका और तब बराबर उनसे मुलाकात होती रहती थी।

मैं जब बनारस में था तो मेरा रिजल्ट निकल गया और मेरा चयन पुलिस सेवा में हो गया। रिजल्ट के बाद एक निश्चिंतता सी हुयी और मैं बनारस से कलकत्ता पिता जी के पास चला गया। वहां पहुंच कर, खुशी खुशी  मैं यह खबर देने दूसरे ही दिन श्यामनगर से लोकल ट्रेन पकड़ कर कलकत्ता चला गया।  धर्मतल्ला पर स्थित केसी दास की दुकान से रसगुल्ला लेकर एसपी सिंह जी को अपने चयनित होने की खुशी में शामिल करने, उनके दफ्तर पहुंचा तो वे अपने केबिन में व्यस्त थे। थोड़ी ही देर में उन्होंने मुझे बुलाया और रसगुल्ला देखते हुये आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से पूछा यह किस खुशी में ? मैंने उन्हें कारण बताया तो,  उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में रसगुल्ला एक तरफ रखते हुए पूछा कि
" हमारे साथ अखबार में काम करोगे या पुलिस की नौकरी में जाओगे ? "
मैं चुप रहा। उनसे मैं अक्सर कहता था कि आप के साथ ही काम करूंगा। यह लिखना पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है। अब जब एक अच्छी नौकरी में चयन हो गया है तो क्या कहूँ।
फिर मैंने कहा, "अभी मेरे पास यूपीएससी का एक अवसर और शेष है। अब इलाहाबाद जाकर उसी की तैयारी करूंगा। इसमे तो हो ही गया है। "

उन्होंने अपने दफ्तर से चपरासी को बुलाया। फिर मिठाईयां तथा नाश्ते का सामान अलग से मंगाया और अपने अन्य कुछ सहकर्मियों को भी बुला लिया और एक बड़े भाई की तरह मेरे जीवन मे आये उन खुशी के पलों को जीवंत बना दिया। फिर मैं एक महीना निर्द्वन्द्व हो कर कलकत्ता रोज घूमता था और अक्सर उनके यहां जाता रहता है।

वे फिर कब नवभारत टाइम्स में आ गए यह मुझे नहीं पता है। मैं फिर ट्रेनिंग और नौकरी में व्यस्त हो गया। 1980 में पिता जी भी अपने पद से रिटायर होकर बनारस आ गए। यह सम्पर्क लगभग टूट गया। जब मुझे पता चला कि वे नवभारत टाईम्स में प्रबंध सम्पादक हैं तो दिल्ली उनसे मिलने गया था। बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित कार्यालय में उनसे भेंट हुयी। उस दौरान जब मैं एक हफ्ता दिल्ली में था तो दो तीन बार भेंट हुयी। वे मेरे अग्रज थे, मित्र नहीं तो बात भी बहुत औपचारिक ही होती थी।

1995 - 96 में मैं लखनऊ में डीजीपी का पीआरओ था। प्रेस से नियमित संपर्क रखना ही मेरा काम था। तब मैं दिल्ली और लखनऊ के प्रेस के मित्रों से नियमित भेंट होती थी और उनमें से कुछ से जो मित्रता हुयी वह अब तक बनी हुयी है। मेरे डीजीपी थे डॉ गिरीश बिहारी। उन्होंने मुझसे कहा कि
' दिल्ली से उनके एक पत्रकार मित्र जहाज से अमौसी आएंगे और सप्रू मार्ग स्थित पुलिस अफसर मेस में रुकेंगे। उन्हें लेकर सीधे डीजीपी मुख्यालय लाना है और फिर मेस में ले जाकर छोड़ना है। उनके साथ अजय सोलंकी भी होंगे। '
मुझे उनका नाम नहीं बताया गया। उनके साथ एक और सज्जन अजय सोलंकी भी आ ही रहे थे तो मैंने डीजीपी साहब से अधिक पूछना उचित नहीं समझा।

मैं अमौसी एयरपोर्ट पहुंचा। जब एसपी सिंह जी सोलंकी के साथ बाहर निकल रहे थे तो उन्हें देख कर खुशी और हैरानी दोनों हुयी। मैंने उनके पांव छुए तो उन्होंने कहा कि " तुम यहाँ कैसे ? "
तब सोलंकी ने उनसे कहा कि " यह तो डीजीपी के पीआरओ हैं ।"
फिर कुछ खास बात नहीं हुयी। सोलंकी की यह आदत थी कि जब वे साथ रहते थे तो किसी को बोलने नहीं देते थे। तब एसपी सिंह जी 'आज तक'  मे आ चुके थे।
तब से उनके दिवंगत होने तक सम्पर्क बना रहा। फिर मैं, 1996 अगस्त में  पीआरओ से  एसपी ट्रैफिक के पद पर स्थानांतरित होकर कानपुर आ गया।

बाद में आज तक पर उनका प्रोग्राम नियमित देखता था। उपहार सिनेमा अग्निकांड जिसमे 50 से अधिक लोग मर और सैकड़ों घायल हो गए थे पर उनकी स्टोरी आज भी याद है। इस कांड का उनपर बहुत गहरा असर पड़ा।  मितभाषी थे वे। और बेहद संवेदनशील भी। अग्निकांड की यह रिपोर्टिंग और उनकी ऐंकरशिप कमाल की थी। उस दुःखद कांड  के प्रति यह उनकी समानुभूति थी। तब मेरी बात हुयी थी। तब मोबाइल का जमाना नहीं था। उनसे बात भी फोन पर बहुत कम होती थी। होती भी थी तो बस पारिवारिक, हाल चाल। किसी खबर पर नहीं और राजनीति पर तो बिलकुल नहीं।

आज जब 27 जून को उनकी पुण्यतिथि से जुड़ी खबरें उनके पत्रकार और गैर पत्रकार मित्रों द्वारा फेसबुक पर देखा तो वह सब याद आया जो धूल और गर्द के नीचे कहीं पड़ा था।

पुण्य प्रसून बाजपेयी का उनके बारे में एक कथन इसी फेसबुक पर मिला है। मुझे अच्छा लगा । उसे भी जोड़ दे रहा हूँ। यह अंश पत्रकारिता पर है,

" सच को बताने निकलते हैं तो आपकी साख बनती है और झूठ को बताने निकलते हैं तो वो ब्रांड हो जाता है। पत्रकार सिर्फ..पत्रकार होता है इनका उनका नहीं होता..चाहे दौर कोई भी हो। मीडिया का एक बड़ा समंदर हो गया है जिसमें पत्रकार गायब हो गया है। अगर पत्रकार थम गया, यदि पत्रकारिता रूक गयी तो अच्छा नेता,अच्छा शिक्षक, अच्छा वकील,अच्छा समाज नहीं दे पायेंगे । "

स्व. एसपी सिंह जी  को स्मरण करते हुए उनका विनम्र स्मरण !!

© विजय शंकर सिंह

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