Monday, 3 June 2019

नयी सरकार के समक्ष आर्थिक चुनौतियां / विजय शंकर सिंह

2019 के लोकसभा चुनाव में भले ही भाजपा ने जनसरोकार के मुद्दों से पिंड छुड़ा कर पुलवामा, बालाकोट और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर जनादेश प्राप्त कर लिया हो पर जब भी, बात सरकार और गवर्नेंस पर उठेगी तो वे सारे मुद्दे जिससे सभी सत्तारूढ़ दल मुंह चुराते हैं उभर कर सामने आ जाएंगे। अक्सर सरकारें अपनी अकर्मण्यता के कारण ऐसे मुद्दे उठाती हैं जो प्रासंगिक नहीं रहते हैं बल्कि उन्हें जानबूझकर कर प्रासंगिक रखा जाता है। आतंकवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद मुद्दे हैं पर देश की समृद्धि, जनता को बेहतर जीवनोपयोगी सुख सुविधा, बेहतर कानून व्यवस्था और शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजी रोटी के बेहतर अवसर अगर उपलब्ध नहीं हैं तो राष्ट्रवाद अंततः राष्ट्रभंजक ही बन जाता है।

यह सरकार तकनीकी रूप से भले ही नयी हो, पर यह पांच साल का कार्यकाल पूरा करके छठे साल में कदम रख चुकी है। इसका मूल्यांकन 2014 से ही किया जाएगा। इस सरकार की आर्थिक नीतियां, नयी नहीं होंगी, बल्कि, पुरानी नीतियों का ही विस्तार होगा। अभी हाल ही में नीति आयोग के सीईओ का बयान आया है कि सभी सरकारी कम्पनियों का निजीकरण कर दिया जाय। अगर 2014 से 2019 के बीच की आर्थिक नीतियों की चर्चा करें तो, उक्त अवधि में सरकार ने आर्थिक रूप से जो कदम उठाये हैं वह एक प्रकार से अर्थ व्यवस्था के लिये हानिकारक ही साबित हुये। नोटबंदी क्यों की गयी, सरकार का इसके पीछे क्या उद्देश्य था, क्या सरकार को उक्त उद्देश्यों की पूर्ति हुयी या नहीं हुयी, इन सब मुद्दे पर सरकार अब तक चुप्पी साधे हुये  है। नोटबंदी से चाहे जो भी लाभ सरकार गिनाये पर आज जिस आर्थिक मंदी जैसे हालात से देश गुजर रहा है उसका दारोमदार उस व्यक्ति पर है जिसने यह आर्थिक कदम उठाने की सलाह दी थी।

इसी प्रकार जीएसटी के लागू किये जाने में जो प्रक्रियागत जटिलताएं हैं, उनके कारण व्यापारियों का एक वर्ग नाराज़ हुआ, कर संग्रह घटा, और बाजारों में मंदी आयी। बाजार के गिरने का असर मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में पड़ा और उससे लोगों की नौकरियां गयीं। आर्थिक क्षेत्र में किसान से लेकर बड़े औद्योगिक घरानों तक तालमेल की एक लंबी श्रृंखला है। एक भी स्थान पर अगर मंदी आती है तो उसका  प्रभाव पूरे अर्थतंत्र पर पड़ता है।

2014 से 2019 तक बैंकों के एनपीए बेतहाशा बढ़ गये हैं। यह बैंकों को बड़े पूंजीपतियों  द्वारा कर्ज़ लेकर उसे न चुकाने का परिणाम है। लगभग सभी सरकारी बैंक इस बीमारी से ग्रस्त हैं। हालांकि बैंकों की इस हालत के लिये सारा दोष भाजपा सरकार का ही नहीं है, बल्कि 'ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत' की आदत 2014 के पहले की सरकारों द्वारा उदारतापूर्वक, लोन देने का परिणाम है। पर 2014 के बाद भाजपा सरकार ने न तो बैंकों के उन अधिकारियों जिन्होंने, उदारतापूर्वक, सरकार के कहने पर लोन दिया था, के विरुद्ध कोई दंडात्मक कार्यवाही की और न ही उस परंपरा को रोका। कारण यही था कि पूंजीपति कोई भी हो, लगभग हर सरकार उसे प्रश्रय देती है। अब हालत यह है कि कुछ बैंकों की शाखाएं बंद हो रही हैं तो कुछ बैंकों को आपस मे मिला कर इस संकट से पार पाने का जुगाड़ ढूंढा जा रहा है। इस बैंकिंग संकुचन का सीधा असर रोजगार पर पड़ेगा।

अभी हाल ही में आयी दो खबरों ने देश की अर्थनीति के समक्ष कठिन चुनौतियों को खड़ा कर दिया है । एक तो देश का सकल घरेलू उत्पाद घटकर 6.8 हो गया है और दूसरे बेरोजगारी की दर पिछले 45 सालों में सबसे अधिक हो गयी है। नोटबन्दी ने उद्योग धन्धो की कमर तोड़ दी है, पर सरकार इसे नहीं मानेंगी। एक आर्थिक रिपोर्ट जो जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच जुटाए गए डेटा पर आधारित है और नोटबंदी के बाद के पहला आधिकारिक सर्वेक्षण है, से पता चलता है कि उद्योग धंधों में कामगारों की जरूरत कम होने से ज्यादा लोग काम से हटाए गए। सेंटर फॉर इंडियन इकॉनोमी ने भी उस वक्त कहा था कि 2017 के शुरुआती चार महीनों में 15 लाख नौकरियां खत्म हो गईं।  एनएसएसओ की जो रिपोर्ट दिसंबर 2018 में जारी की जानी थी उस रिपोर्ट को आसन्न चुनाव के कारण दबा दिया गया । सरकार पर यही आरोप लगाते हुए राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष सहित दो सदस्यों ने जनवरी में अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने उस वक्त कहा था कि "हम 70 से 78 लाख नौकरियों के अवसर पैदा कर रहे हैं, जो देश के कार्यबल में शामिल होने वाले नए लोगों के लिए पर्याप्त है। " तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली का मासूम तर्क था, कि " पिछले तीन सालो में नौकरियों के लिये कोई आंदोलन तो हुआ ही नही इसलिए कैसे कहा जाय कि बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है ! " एनएसएसओ की रिपोर्ट के अनुसार, 2017-18 में बेरोजगारी दर ग्रामीण क्षेत्रों में 5.3% और शहरी क्षेत्र में सबसे ज्यादा 7.8% रही। पुरुषों की बेरोजगारी दर 6.2% जबकि महिलाओं की 5.7% रही। इनमें नौजवान बेरोजगार सबसे ज्यादा थे, जिनकी संख्या 13% से 27% थी।

सच तो यह है कि सरकार ने 2016 के बाद ही रोजगार के आंकड़े देने बंद कर दिये फिर भी आंकड़े कहीं न कहीं से प्राप्त हो ही जाते हैं। चुनाव में विपक्षी दलों ने रोजगार को एक मुद्दा तो बनाया पर पुलवामा हमले, बालाकोट एयर स्ट्राइक, और राष्ट्रवाद के शोर में यह मुद्दा दब गया। प्रधानमंत्री जी का भी सारा फोकस आर्थिक हालात सुधारने और उसपर चर्चा करने के बजाय नेहरू गांधी परिवार पर ही सिमटा रहा। आर्थिक हालात पर चर्चा न करने से आर्थिक हालात सुधर जाते हों ऐसा बिलकुल नहीं है बल्कि वे नजरअंदाज होकर और उपयुक्त समाधान की कोई उम्मीद न पाकर कैंसर की तरह बिगड़ने लगते हैं। आज बिलकुल यही हो रहा है।

वित्त वर्ष 2018-19 की चौथी तिमाही में देश का आर्थिक विकास दर घटकर 6 प्रतिशत से भी नीचे चला गया है। ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, जनवरी-मार्च तिमाही में देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) मात्र  5.8 प्रतिशत की दर से बढ़ा है, पिछले पांच साल की किसी भी चौथी तिमाही में 6 प्रतिशत से कम की विकास दर नहीं रही थी। साथ ही, 5.8% की विकास दर, पिछले 17 तिमाहियों की विकास दर में सबसे कम है जो पिछले दो वर्षों में पहली बार चीन की विकास दर से भी नीचे है।

घटती जीडीपी, बढ़ती बेरोजगारी, घटता औद्योगिक उत्पादन, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में आती हुयी मंदी की खबरें तो थी हीं, ऊपर से अमेरिका ने भारत को तरजीही राष्ट्र का दर्जा खत्म कर एक और समस्या खड़ी कर दी। अमेरिका ने भारत को दी जाने वाली जेनरलाइज्ड सिस्टम ऑफ प्रेफरेंस, जीएसपी की सुविधा को छीन लिया है। राष्ट्रपति ट्रम्प ने कहा है कि 5 जून, 2019 से वह भारतीय निर्यात को जीएसपी के तहत मिलने वाले लाभ को वापस ले लेगा। सरकार का कहना है, कि अमेरिका के इस फैसले से भारत के निर्यात पर खास असर नहीं होगा, लेकिन आँकड़े कुछ अलग तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं। 

आर्थिक मामलों पर लिखने वाले, गिरीश मालवीय के एक लेख के अनुसार, 2018 के दौरान भारत ने अमेरिका को 51.4 अरब  डॉलर का निर्यात किया है उसमें से जीएसपी योजना के तहत भारत ने अमेरिका में 6.35 अरब डालर का निर्यात किया यानी लगभग 12 से 15 प्रतिशत निर्यात में हमे जीएसपी योजना के तहत छूट मिली हुई थी। पिछले दो तीन सालो के आंकड़े उठा कर देखे तो हमे लगभग 40 से 50 हजार करोड़ के निर्यात पर यह छूट मिलती आई है। भारत के केमिकल्स और इंजिनियरिंग जैसे सेक्टरों के करीब 1900 छोटे-बड़े प्रोडक्‍ट पर इस राहत का लाभ मिलता है। नकली आभूषण निर्यात को औसतन 6.9 फीसदी का जीएसपी लाभ मिल रहा है तो चमड़ा उत्पाद (जूते के अलावा अन्य) को औसतन 6.1 फीसदी, फार्मास्यूटिकल्स और सर्जिकल को 5.9 फीसदी, रासायनिक और प्लास्टिक को 4.8 फीसदी तो कृषि के ओरिजिनल और प्रोसेस्ड को 4.8 फीसदी का लाभ मिल रहा है अब यह सब छूट खत्म हो जाएगी ।

आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि इस कदम से भारत मे  लघु और मध्‍यम वर्ग की इंडस्‍ट्री पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। बाजार के विशेषज्ञों का कहना है कि राहत खत्म होने से,  रोजगार में भी कमी आ सकती है क्योकि छूट पाने वाले ज्यादातर उत्पाद  हैंडलूम और कृषि क्षेत्रों से हैं। जेएनयू के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि ट्रंप प्रशासन के इस फैसले के बाद दोनों देशों के बीच व्यापार घाटा बढ़ सकता है.इसके अलावा लघु और मध्‍यम वर्ग के उद्योगों के कर्मचारियों की आय पर भी असर पड़ सकता है। उनके अनुसार, इससे नई नौकरियों के सृजन पर भी असर पड़ेगा।

सरकार के समक्ष जो आर्थिक चुनौतियां हैं उनमें से सरकार द्वारा किये गए कुछ ऐसे वायदे हैं जिनको 2022 तक सरकार को पूरा करना है। ये वायदे किसानों से जुड़े हैं। सरकार ने वायदा किया है कि 2022 तक किसानों की आय दुगुनी हो जाएगी। किस मानक के अनुसार दुगुनी होगी, यह सरकार अभी नहीं बता रही है पर यह बात 2018 में कही गयी है, तो 2018 में जो किसानों की आय थी वह 2022 में दुगुनी हो जाएगी। एक और वादा है, 2022 में सभी के सिर पर छत देने का। 2022 में हमारी आज़ादी के पचहत्तर साल पूरे हो जाएंगे। अगर सरकार सच मे अपने इन वायदों को 2022 तक पूरा कर देती है तो यह सरकार की बड़ी उपलब्धि होगी। पर वायदों का इतिहास खंगालने पर निराशा ही नज़र आती है। 2014 के संकल्पपत्र पढ़े तो जो खूबसूरत तस्वीर दिखायी गयी थी, उनमें से कुछ भी निर्णायक रूप से पूरा नहीं हो पाया है। वायदों का पूरा न होना यह समझ मे तो आता है पर उन वायदों को पूरा करने के पीछे सरकार, प्रयास क्या कर रही है, यह अधिक महत्वपूर्ण है। 100 स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन की तो बात छोड़ दीजिए, वे लंबे प्रोजेक्ट हैं, पर किसानों को उपज की कीमत, स्वामीनाथन कमेटी के अनुशंसा के अनुसार देना, गन्ना किसानों को उनका भुगतान देना, 2 करोड़ लोगों को रोजगार देना, गंगा को 2018 तक प्रदूषण मुक्त कर देना, आदि ऐसे वायदे जो जनता से सीधे जुड़े हैं, पर भी सरकार की क्या नीति है स्पष्ट नहीं है ।

सरकार की आर्थिक नीति क्या है ? सच तो यह है कि एनडीए की आर्थिक नीति की प्राथमिकता के केंद्र में पूंजीपति रहते हैं। सारी नीतियों के निर्माण में सबसे पहले कॉरपोरेट सेक्टर का ध्यान रखा जाता है। किसान, मजदूर, और निम्न मध्यम वर्ग को इस प्राथमिकता में बहुत अधिक तरजीह नहीं मिलती है। पर कॉपरपोरेट सेक्टर भी अगर बेरोजगारी, विधिविहिनिता, कृषि क्षेत्र में मंदी आदि का प्रकोप आता है तो समृद्धि के द्वीप जैसे कॉरपोरेट सेक्टर उस असंतोष की सुनामी से बच नहीं पायेंगे।  नीति आयोग सभी सरकारी उपक्रमों को निजी क्षेत्रों में देने की बात करता है। 2014 से 2019 तक सरकार ने जिस गिरोहबंद पूंजीवाद, क्रोनी कैपिटलिज्म को प्रश्रय दिया है उसमें ओएनजीसी, गैल, एचएएल, बीएसएनएल, डाक तार विभाग और अन्य सरकारी उपक्रम सरकार के ही सौतेले व्यवहार और कुप्रबंधन के कारण, घाटे में आ गए हैं। यह एक शातिर चाल है कि पहले सरकारी उपक्रमों को जानबूझकर बरबाद किया जाय फिर उसे एक बोझ प्रचारित कर के चहेते पूंजीपति घरानों को नीलाम कर दिया जाय। सरकार के समक्ष जनता का हित सर्वोपरि है ही नहीं, बल्कि उसका सारा फोकस अहर्निश रूप से, अपने चहेते पूंजीपति घरानों पर है। लफ़्फ़ाज़ी के रूप में भले ही यह कहा जाय कि, समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के लिये सरकार सोचती है। अगर सरकार ने सच मे यह सोचा होता तो बेशर्मी भरी सुरक्षा चूक के शिकार पुलवामा के 40 शहीद जवान चुनाव में मुद्दा न बनते।

सरकार को उपरोक्त आर्थिक संकटो के हल और 2014 और 2019 के अधूरे वादों को पूरा करने के लिये एक रणनीति बना कर काम करना होगा। अन्यथा यह संकट एक असंतोष की आहट भी है। यह संकट अभी और गहरा होगा। राष्ट्रवाद के उन्मादी धुयें में आर्थिक चुनौतियों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है। 2014 के बाद से सरकार के मास्टरस्ट्रोक कहे जाने वाले आर्थिक कदम ऐसे नहीं रहे है जिससे यह लगे कि सरकार, जनता की रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य की समस्याओं के समाधान के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण के प्रति प्रतिबद्ध है। हो सकता है, लोग उज्ज्वला योजना और 2000 रुपये किसानों को देने का उल्लेख करें, पर क्या इन कदमों से रोजगार का सृजन हुआ है या किसानों में स्वावलंबन आया है ? सरकार का उद्देश्य केवल जीवन योग्य साधन उपलब्ध कराना ही नहीं है बल्कि बेरोजगारों, किसानों, मज़दूरों, निम्न मध्यवर्ग और जनता के वंचितों को स्वावलंबन के मार्ग पर ले जाना है जिससे उनका जीवन स्तर सुधरे और वे स्वावलंबी बनें।

© विजय शंकर सिंह

No comments:

Post a Comment