लाल कृष्णआडवाणी की भारतीय राजनीति की देन पर हो सकता है आने वाले समय मे कोई विश्वविद्यालय शोध कराये और शोधपत्र प्रकाशित कराये। पर किन निष्कर्षों पर शोधार्थी और शोध पहुंचता है इसका अभी कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। पर एक बात मैं कह सकता हूँ कि, लाल कृष्ण आडवाणी की भारतीय राजनीति को जो देन रही है, वह भयावह है।
वैचारिक विरोध, दक्षिण और वाम के बीच पेंडुलम सी झूलती हुयी आर्थिक नीति पर ज़ारी बहसें, भ्रष्टाचार के तमाम कहे अनकहे आरोपों से जुड़े शासन प्रशासन की तरफदारी और विरोध के मुद्दों को अलग करते हुए आडवाणी की रथयात्रा भारत के विचार जो हमारे संविधान की प्रस्तावना में ही स्पष्ट हैं के सर्वथा विरुद्ध थी। सोमनाथ से अयोध्या तक की वह रथयात्रा न तो शैव और वैष्णव मतावलंबियों को जोड़ने के लिये थी न ही उसका उद्देश्य कोई सामाजिक समरसता का आंदोलन खड़ा करना था, न ही, किसी धार्मिक आस्था का परिणाम था, और न ही संस्कृति के प्रति किसी विशेष लगाव का प्रतिबिंब। वह केवल एक राजनीतिक आंदोलन था जो धर्म, आस्था और भारतीय संस्कृति की आत्मा मर्यादा पुरुषोत्तम राम को छलने के लिये धर्मांधता की अफीम के पिनक में आयोजित किया गया था। जिसने सामाजिक समरसता को तोड़ने का ही काम किया।
हो सकता है मेरी बात से बहुत से लोग असहमत हों पर आज जब चौथाई सदी उस घटना के घटे बीत गयी है तो, यह साफ दिख रहा है कि 1989 के राम मंदिर आंदोलन का उद्देश्य राजनीतिक अधिक तथा धार्मिक और आस्थागत कम था। राम केवल बहाना थे, एक राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति की। उसी अयोध्या में अपनी विमाता कैकेई द्वारा अपने राजनीतिक स्वार्थ हेतु छले जाने के बाद राम पुनः छले गये। यह आस्था का दोहन था। उद्देश्य ही राजनीतिक लाभ लेना था और भाजपा को उस आंदोलन का राजनीतिक लाभांश बाद में मिला भी। संघ जैसे प्रतिबद्ध संगठन के बावजूद 2 लोकसभा सीटों पर सिमटी यह पार्टी देश की सत्ताधारी पार्टी बन गयी। यह केवल उसी यात्रा और आंदोलन का कमाल था जो केवल उन्माद और आस्था के बवंडर पर टिका था। पर सामाजिक समरसता को उस आंदोलन ने जितनी क्षति पहुंचायी उतनी तो आज़ादी के बाद किसी भी आंदोलन ने नहीं पहुंचायी । विडंबना यह भी रही कि प्रभु श्री राम जिनके नाम पर वह तमाशा खड़ा किया गया था, वे जो 1992 से अपने आशियाने से बेदखल हुये हैं, आज तक बेदखल हैं और कब तक लामकां रहेंगे यह तो वही अंतर्यामी हैं, बता पाएंगे।
आज एलके आडवाणी 1992 में हुये अयोध्या ध्वंस के अभियुक्त हैं। उनके खिलाफ अदालत में आपराधिक मुक़दमा चल रहा है। जिस आंदोलन को वे गर्व से अपनी उपलब्धि बताते नहीं थकते हैं उसी आंदोलन की परिणति अयोध्या ध्वंस की जिम्मेदारी अदालत में खड़े होकर वह खुद ले सकें इतना नैतिक साहस भी उनमें नहीं है। वे अपना अपराध स्वीकार करते हैं या फिर बचाव की मुद्रा में अदालत में खड़े होते हैं यह तो अदालती कार्यवाही जब शुरू होगी तभी स्पष्ट होगा।
1990 में जब रथयात्रा के दौरान उनकी गिरफ्तारी हुयी थी तो मैं अयोध्या में ही उसी विवादित स्थल पर रामलला जहां विराजमान थे का प्रभारी था। तब सोशल मीडिया नहीं था और न हीं चौबीसों घन्टे चलने वाले खबरिया चैनल । तब दुनियाभर के पत्रकार जो अयोध्या में एकत्र होते थे और जो अखबार आते थे, उनसे ही देश के तापमान का हमे पता चलता था। बाद में जब आडवाणी जी जेल से छोड़ दिये गए और वीपी सिंह की सरकार गिर गयी तो आडवाणी अयोध्या आये और उनका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। तब लगा कि मंदिर अब बना तब बना। तब आडवाणी आस्थागत राजनीति के शिखर पुरुष बन गए थे। रामलला के दर्शन करने आनेवाले हज़ारों श्रद्धालुओं को तब लगता था कि अब अगर भव्य मंदिर बनेगा तो यही आडवाणी जी ही बनायेंगे। मेरी ड्यूटी मंदिर के ही कैम्पस में थी और दिन भर मेरा समय वहीं गुजरता था। बातचीत करना मेरी आदत है तो मैं दिनभर आने वाले पत्रकारों, श्रद्धालुओं, भाजपा, संघ और वीएचपी के छोटे बड़े नेताओं से बतियाता रहता था। उनसे बना सम्बंध आज तक बरकरार भी है। बातचीत से यह स्पष्ट था कि, सबके आस्था और राजनीतिक कौशल के केंद्र में आडवाणी ही हुआ करते थे। पर आज वक़्त ने उनके साथ क्या किया, हम सबके समक्ष स्पष्ट है।
1989 से 1992 तक देश और विशेषकर उत्तर प्रदेश में जो सामाजिक तानाबाना मसक रहा था, उसकी पृष्ठभूमि में लाल कृष्ण आडवाणी की राजनैतिक महत्वाकांक्षा और उनकी नीतियां थीं। संभवतः वह सांप्रदायिक माहौल बहुत कुछ वैसा ही बन गया था जैसा कि 1945,46 और 1947 में साम्प्रदायिक आधार पर बना हुआ था। राजनीतिक महत्वाकांक्षा बुरी चीज नहीं है । सत्ता में आने की एक स्वाभाविक लालसा सभी राजनैतिक व्यक्तियों और दलों में होती है और यह स्वाभाविक मानवीय प्रवित्ति है। महत्वाकांक्षा पालना कोई अपराध नहीं है और न ही इसे गलत समझा जाना चाहिये।पर समाज की समरसता को बिखेर कर, तानेबाने को दरकिनार कर और भारत के विचार की हत्या करके राजनैतिक महत्वाकांक्षा के शिखर की ओर बढ़ना न केवल देश को संकटों में डालने का कृत्य है बल्कि यह एक प्रकार का संविधान विरोधी आचरण है जो भारत की अवधारणा के सर्वथा विपरीत है।
और अंत मे मेरे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार शेष नारायण सिंह जी की यह सारगर्भित टिप्पणी पढें,
" आडवानी ने जिस बुरी तरह से समाज में नफरत फैलाया था ,उन्होंने नफरत का जो तामझाम खड़ा किया था ,उसको देश भुगत रहा है . आडवानी की यह सज़ा कम है . शायद अपमानित होने के बाद उनको अपनी कारस्तानियों पर कुछ पछतावा हो . वैसे यह भी सच है कि नफरत के हर कारोबारी को जीवन के अंत में यही दिन भोगना पड़ता है .बलराज मधोक को इन्हीं आडवानी और वाजपेयी ने औकात दिखाई थी ."
© विजय शंकर सिंह
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