Monday, 25 March 2019

कानपुर के हलीम साहब / विजय शंकर सिंह

25 मार्च 1803 को कानपुर एक नया जिला बना था, पहले यह अवध के नवाबों के अधीन था। कानपुर अंग्रेज़ों का चहेता शहर रहा है। ब्रिटिश भारत में यह उद्योगों का केंद्र था। इसे मैनचेस्टर ऑफ द ईस्ट भी कहते हैं।  आज जो लेख मैं साझा कर रहा हूँ, वह बरिष्ठ पत्रकार और निवाण टाइम्स के प्रधान संपादक शम्भूनाथ शुक्ल जी जो कानपुर के इतिहास पर एक किताब भी लिख रहे हैं, की टाइमलाइन से ले रहा हूँ। यह लेख कानपुर की एक बड़ी शख्सियत हलीम साहब के बारे में हैं।
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वह भी एक जमाना था, जब मंदिर बनाने के लिए मुसलमान दानदाता भी धन देते थे और मस्जिद बनाने के लिए पंडित जन। पर अब यदि किसी हमले में हिंदू मरता है तो हिंदू व्यथित होता है, पंडित मरता है तो ब्राह्मण व्यथित होता है और मुसलमान मरता है तो उसके धर्म-भाई।

लेकिन खान बहादुर हाजी हाफिज मोहम्मद हलीम का हौसला देखिए, कि कानपुर का हलीम मुस्लिम कॉलेज भी उनके पैसों से बना तो बिशंभर नाथ सनातन धर्म कॉलेज (BNSD Inter College) को भी पैसा देने में उनका कोष सदैव खुला रहा।
श्री अनूप शुक्ल का यह लेख पढ़ें.

“ पंजाब प्रान्त के फीरोजपुर नगर के मूल निवासी हाफिज मोहम्मद हलीम का जन्म सन् १८६७ मे हुआ। आपके पिता का नाम हाजी मुंशी अब्दुल रहीम साहब था, आपकी शिक्षा दिल्ली मे हुई। आप तेरह वर्ष की उम्र में कुरान का हिफ्ज कर हाफिज हो गए। हलीम साहब उर्दू , फारसी बहुत तेज व सुन्दर अक्षरों में लिखते और बोलते थे। अंग्रेजी भी मामूली जानते थे। आपके पितामह हाफिज इमाम बख्श अपनी "राई” बिरादरी के सरपंच थे और पिता दिल्ली मे बकरी की खाल का व्यापार करते थे। आपने अपने पिता से कारोबार के गुर व मेहनत करना सीखा। इस तरह 15-16 वर्ष की उम्र में व्यापार के दाँव-पेंचो से आप परिचित हो गए। हाफिज हलीम साहब ने कलकत्ता, सहारनपुर, अम्बाला, लुधियाना, सियालकोट और कानपुर में सम्पर्क स्थापित कर एजेंसियां बनाईं। चमड़े के कारोबार के अलावा सन् 1888 से 1898 तक आपने गेहूँ और सरसों का कारोबार कराची में किया। हलीम साहब ने हाजी फरीद साहब के साथ साझे में "कुसूर" मे रूई का व्यापार किया।

सन् 1895 में आपने कानपुर से चमड़े का कारोबार शुरु किया। कुछ दिन आप एक जर्मन फर्म के एजेन्ट भी मुकर्रर रहे और काफी लाभ कमाया। इस दौरान आप कानपुर के लखपतियो में शुमार होने लगे थे। सन् 1901 में हलीम साहब ने मदरास की एक टेनरी डेढ़ लाख में खरीदी और बिलायत से चमड़े का कारोबार भी शुरु किया। लाहौर में भी आपने देशी चमड़े की एक टेनरी खोल दी। इन दिनों हाफिज जी का इतना अधिक माल विदेशों को जाता था कि बम्बई में आपके माल के लिए ‘हलीम डाक’ के नाम से एक प्रथक प्लेटफार्म खोला गया जो आज भी है। कानपुर में भी आपका चमड़े का गोदाम बहुत बड़ा था। कानपुर में आपने हलीम बूट फैक्ट्री, इण्डियन नेशनल टेनरी और कानपुर टेनरी को स्थापित किया। आपने व्यापार वृद्धि के लिए तीन बार बिलायत व एक बार अमेरिका की यात्रा भी की।

धन सम्पन्न होते हुए भी आप नम्र और मिलनसार व गरीबों के प्रति सहानुभूति रखते थे। सन् 1922 में अफगानिस्तान के अमीर हबीबुल्ला कानपुर यात्रा पर आपके यहाँ ठहरे थे। आपके यहाँ पर महाराजा पटियाला, बेगम भोपाल, महराजा भरतपुर, महराजा कोल्हापुर, हिज हाइनेस आगा खाँ, महाराजा कपूरथला, सर हरकोर्ट बटलर, सर जेम्स मेस्टन, राजा सलेमपुर, राजा महमूदाबाद सहित अनेक नवाबों ने आपका आतिथ्य स्वीकारा। आपका अनेकानेक राजे-महराजों से मेलजोल था। वहीं गरीबों और मोहताजों की सहायता के लिए भी उनका दरवाजा खुला रहता था।

हलीम साहब मूल निवासी पटियाला रियासत के थे, अत: वहाँ के महराजा ने प्रसन्न होकर सन् 1921 में “मलकुल तज्जार" अर्थात व्यापारियों के राजा की पदवी से विभूषित किया था। अंग्रेज सरकार ने सन् 1919 में उन्हें खाँ साहब की पदवी दी। किन्तु हलीम साहब के इन्कार करने पर तुरन्त ‘खान बहादुर’ बना दिया गया। हलीम साहब 1907 से 1927 तक आनरेरी मजिस्ट्रेट रहे, सन्  1927 में इस्तीफा देकर अपने पुत्र एसएम वशीर साहब बी काम,(लण्डन), बार एट ला ,एफ आर सी , म्युनिसिपल कमिश्नर, और मंत्री हलीम मुस्लिम कालेज को अपने स्थान पर आनरेरी मजिस्ट्रेट बनवा दिया |

हलीम साहब सन् १९०७ से १९१६ तक संयुक्त निर्वाचन के द्वारा और १९२६ से १९२८  तक पृथक निर्वाचन के द्वारा बिना विरोध के कानपुर म्युनिसिपल बोर्ड के मेम्बर चुने जाते रहे | सन् १९२३ मे बाबू बिहारीलाल जी की पार्टी से आपको कानपुर बोर्ड की चेयरमैनी के लिए खड़े किये गये , बहुमत होते हुए भी आप दुर्भाग्य से डा.मुरारीलाल से हार गये | सन् १९२८ मे हज को गये और मक्का शरीफ के शाही मेहमान बने | हज वापसी पर कानपुर वासियो को उनके बेटेने बड़ी ही शानदार दावत दी थी |

हाफिज जी उर्स के बड़े शौकीन थे और बहुधा वहाँ पहुच जाते | सराय सरहिन्द के उर्स जाने वालो के लिए सन् १९०२ मे एक बड़ी सराय बनवाई और जहाँ भण्डारा भी होता रहा | १९०८ मे इटावा मे इस्लामिया स्कूल मे २५ हजार लगाकर हलीम हास्टल बनवाया | सन् १९१६ मे अपनी बीबी की याद मे पटियाला रियासत के बसी नामक स्थान पर मरियम यतीमखाना व एक अनाथालय बनवा कर आर्थिक सहायता भी देते रहे | बसी मे ही कुरान की शिक्षा के लिए १९१७ मे एक स्कूल खोला | अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी को भी २५ हजार का चंदा दिया था |

कानपुर मे हलीम मुस्लिम स्कूल जब १९१४ मे परेड पर स्थापित हुआ तब हाफिज जी ने एकमुश्त रकम देकर उसकी जड़ जमा दी और दस बरस तक साढे चार सौ रुपया मासिक सहायता देते रहे | सन् १९२२ मे जब  स्कूल के लिए जमीन खरीदी गई तब भी हाफिज जी ने संस्था को एक लाख रुपये की सहायता दी जिससे हलीम इण्टर कालेज चल रहा है | कानपुर मुस्लिम यतीमखाना के सभापति रहते हलीम साहब ने सन् १९१३ मे अनाथालय का फाटक बनवाया जो हलीमगेट कहलाता है | हलीम साहब की दानशीलता के अनेक उदाहरण है ...
१- सन् १९१७ मे एम ए ओ हाईस्कूल अमृतसर को ५ हजार रुपये
२- सन् १९१७ मे अंजुमन तरक्की तालीम मुसलमान अमृतसर को ५ हजार रुपये
३- सन् १९१८ मे यतीमखाना अजमेर शरीफ को ४ हजार रुपया व मदरसा मजहबी तालीम अजमेर को ३ हजार रुपये
४-  कानपुर की ईदगाह की चाहरदीवारी के लिए ५ हजार रुपये
५- रुड़की के पास कलियर शरीफ के उर्स पर चार पाँच मील लम्बी सड़क को ५० हजार रुपये से पक्की कराया
६ - राई विरादरी के वार्षिक जलसो के लिए १५ हजार रुपये
७- इस्लामिया स्कूल फतेहपुर, लखनऊ के उलेमाओ की सभा, मदरसा रहमानिया , यतीमखाना मौदाहा, अंजुमन हिमायत इस्लाम लाहौर, वी एन एस डी इण्टर कालेज कानपुर आदि संस्थाओ को हजारो रुपये का है।

कुछ समय तक स्वास्थ्य खराब रहने के कारण हाफिज हलीम साहब का ७ जनवरी १९३९ को सुबह इन्तकाल हो गया | आपकी मृत्यु पर शहर भर के बाजार बंद हो गये और कचहरी, म्युनिसिपल बोर्ड, डिस्ट्रिक बोर्ड, इम्प्रुवमेन्ट ट्रस्ट सहित स्कूल, कलेज और मील भी बन्द रहे | आपकी शवयात्रा मे मुस्लिम, हिन्दू और अंग्रेज भी शामिल हुए ,परेट पर जनाजे की नमाज के बाद उनकी वसीयत के मुताबिक उनका शव सरहिन्द मे ले जाकर दफनाया गया | हाफिज हलीम साहब के दो बेटे , एक हाजी मोहम्मद नजीर साहब व दूसरे एस एम वशीर साहब थे। "

(स्रोत :- कानपुर के प्रसिद्ध पुरुष  / वर्ष - १९४७ )

© विजय शंकर सिंह

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