Sunday 17 March 2019

एरिका जोंग की कविता - झुर्रियां - अनुवाद उदय प्रकाश / विजय शंकर सिंह

" कभी-कभी, जब तक मैं नादेज्दा मांदेल्स्ताम जैसी न
दिखने लग जाऊँ, मुझे चैन नहीं पड़ता।”
- नाओमी लाजार्ड

मेरी सारी सहेलियां थक चुकी हैं।
वे जो विवाहित हैं, वे विवाहित होने से
थक चुकीं हैं
वे जो अकेली हैं,
वे अपने अकेलेपन से थकी हुईं हैं।

वे अपनी-अपनी झुर्रियों को ताकती हैं
वे जो अकेली हैं, वे अपनी झुर्रियों के लिए
अपने अकेलेपन को ज़िम्मेदार ठहराती हैं
वे जो शादीशुदा हैं, वे अपनी झुर्रियों के लिए
अपने विवाहित होने को कोसती हैं।

बहुत कम झुर्रियाँ हैं उनके चेहरों पर।
अगर सारी झुर्रियों को जोड़ कर इकट्ठा कर लिया जाय
तो भी बहुत कम झुर्रियाँ हैं उनके खाते में।
लेकिन मैं किसी भी तरह उनको इस बात के लिए
तैय्यार नहीं कर पाती
कि वे सब एक साथ, मिलजुल कर, अपनी सारी झुर्रियों को
इकट्ठा देखें।
और मैं उन्हें किसी भी तरह यह समझा नहीं सकती 
कि अकेली होने
या उनके शादीशुदा होने का, उनकी झुर्रियों से
कुछ भी लेना-देना नहीं है।

हर कोई अपने माथे पर आरपार खिंची
एक गहरी और व्याकुल लकीर को चुपचाप निहारती है
माथे के एक छोर से दूसरे छोर तक खिंची
भू-गर्भीय सैन एंड्रियास रेखा :
‘बस…बस, अब ये कुछ पलों की बात है,
आने वाला ही है एक बड़ा भूकंप ..!’

वे झुर्रियों को दुरुस्त करने और चेहरे को चिकना बनाने वाले
प्लास्टिक सर्जनों के नाम आपस में ऐसे गिनाती हैं
जैसे लज़ीज़ पुरलुत्फ व्यंजनों के मसालों के नाम
ले रही हों, पूरे स्वाद के साथ।

मेरी सहेलियाँ थकी हुईं हैं।
वे जो बाल-बच्चेदार हैं, वे बच्चों के होने से
थकी हुईं हैं,
वे जिनके बच्चे नहीं हैं, वे बच्चों के न होने से
थकी हुई हैं।

वे अपनी झुर्रियों से बहुत प्यार करती हैं।
अगर ये झुर्रियाँ और अधिक गहरी होतीं तो
वे इन झुर्रियों के भीतर छुप जातीं।

कभी-कभी मैं सोचती हूँ
(हालाँकि उन्हें यह बता पाने की हिम्मत नहीं जुटा पाती)
कि जब किसी का चेहरा अपनी कब्र खोदने के लिए
अकेला छूटता है, उस पल उसकी आत्मा कृतज्ञ होती है
और छप्प से उस गड्ढे में समा जाती है।

(पेरिस रिव्यू, अंक : ५९, १९७४ में प्रकाशित)
अनु: उदय प्रकाश, १५ फ़रवरी, २०१९, सीतापुर।
***
एरिका जोंग एक अमेरिकी उपन्यासकार, व्यंग्य लेखक और कवि हैं जिनका जन्म 26 मार्च 1942 में हुआ है। उनके उपन्यास फीयर ऑफ फ्लाइंग से ने उन्हें अमेरिकी साहित्य जगत में एक अलग पहचान मिली। नारी स्वातंत्र्य पर आधारित इस उपन्यास ने उन्हें विवादित भी बनाया। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार उनका यह उपन्यास बेहद चर्चित रहा और इसकी 2 करोड़ प्रतियां बिक चुकी है।

( विजय शंकर सिंह )

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