Friday 22 March 2019

देवा शरीफ की होली और मैहर में उस्ताद अलाउद्दीन के संगीत पर समर अनार्य का एक लघुलेख / विजय शंकर सिंह

देवा शरीफ की होली से, हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की वसंत पंचमी से, अमरनाथ यात्रा की छड़ी मुबारक लेकर चलते मुसलमानों से, मैहर वाली दुर्गा मैया के मंदिर में गाते बजाते उस्ताद अलाउद्दीन खान से संघियों को ही नहीं, मुसंघियों को भी खूब नफ़रत है! आखिर नुकसान तो उनके धंधे को भी होता है! बाकी इस पर एक कहानी याद आ गई जो माँ विंध्यवासिनी के अनन्य भक्त, दोनों नवरात्रि विंध्याचल जाने वाले, शादी के बाद दिव्या को भी ले जाने वाले, पिता अक्सर सुनाया करते थे! सोच रहा हूँ आज से ऐसी तमाम कहानियाँ साझा करना भी शुरू करूँ-

सो किस्सा नहीं, हकीकत ये कि उस्ताद अलाउद्दीन खान- भारतीय शास्त्रीय संगीत के पितामह- रवि शंकर से लेकर अली अकबर खान जैसे उस्तादों के गुरु को मैहर के राजा बृजनाथ सिंह मैहर लाये थे. उस्ताद आये और बाबा हो गए- सबके बाबा। बाबा ने फिर बहुत गाय बजाया- जो वाद्य यंत्र छू दें वो उनका गुलाम।

पर बाबा ने शारदा मंदिर में सबसे ज़्यादा बजाया- सुबह देवी मैया के जागरण से रात शयन तक- बाबा के बजाये बिना कोई पूजा पूरी न होती थी.

बाबा फिर धीरे धीरे बूढ़े होते गए, अशक्त भी. एक दिन ऊपर देखा- मंदिर की तरफ- बोले अब न चढ़ि पाउब। तुंहे सुनक होय तो खुद्दे आवा!

कहते हैं कि उस सुबह मंदिर से एक बहुत सुन्दर, प्यारी सी बच्ची नीचे उतरी थी- सीढ़ियों पर देखने वाले सब स्तब्ध कि कौन है! छोटा सा क़स्बा ठहरा मैहर- सब सबको जानते हैं ऐसा! खैर, वो बच्ची सीधे बाबा के घर गयी और फिर- लोग कहते हैं कि बोली अलाउद्दीन गाओ. जी- बाबा गाइये नहीं, अलाउद्दीन गाओ. गाते रहे फिर अलाउद्दीन। लोग आये तो सरोद पर सर रखे सोते मिले- कभी न उठने के लिए.

बच्ची को आते हुए सबने देखा था, जाते हुए किसी ने न देखा।
ये है असल हिंदुस्तान। ये है हमारी परंपरा।

[मैं नास्तिक ही हूँ- पर मुहब्बत का, किसी और की श्रद्धा का सम्मान न कर पाने वाले आस्तिकों से बहुत बेहतर हूँ. बताइयेगा ऐसी और तमाम कहानियां सुननी हों तो. ]

( साभार समर अनार्य )

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