Tuesday, 5 March 2019

प्रधानमंत्री का भाषाई छिछलापन / विजय शंकर सिंह

घर मे घुस के मारने की भाषा क्या, भारत जैसे महान और गौरवपूर्ण अतीत वाले देश के  प्रधानमंत्री की भाषा है ? आश्चर्य है।

आतंकवाद का दमन तो बिना  गुंडो और लफंगों की भाषा का प्रयोग किये भी हो सकता है । घर मे घुस के तो सेना को मारना है और वह घर मे हर बार सक्षमता से घुस कर मार चुकी है। 1971 में सेना ने तो घर मे घुस कर मारा ही नहीं बल्कि उसने घर को तोड़ कर अलग भी कर दिया। एक नया घर ही बना दिया है। आप को घर मे घुसना ही नहीं है और न मारना है। आप को तो गांव के हर घर को जो इस समय आपके साथ बना रहे यह देखना है। और यह कूटनीतिक कला  गुंडे और लफंगई वाली शब्दावली से नहीं बल्कि गम्भीर, प्रभावपूर्ण वाक चातुर्य और देश के अंदर सभी की एकता से ही सम्भव है।

गाली अक्सर मन मे पल रहे छिछले खीज और तर्कशून्यता का परिणाम होती है। गाली तब लोग शुरू करते हैं जब वे समझ जाते हैं कि अब उनके पास तर्क के लिये न बुद्धि शेष है न विवेक। अगर प्रतिद्वंद्वी अपशब्द प्रहार के बीच भी स्थितप्रज्ञ बना रहता है तो गालीबाज बहस करने वाले का रक्तचाप खुद ही बढ़ने लगता है। तब उस पर केवल तरस आती है।

भारत के प्रधानमंत्री का भाषण पूरी दुनिया मे गम्भीरता से पढ़ा और सुना जाता है। यह किसी सामान्य नेता का भाषण नहीं है। इन भाषणों की न केवल हर  पंक्ति पढ़ी जाती हैं, बल्कि पंक्तियों के बीच भी पढ़ा जाता है। उसके कूटनीतिक निष्कर्ष भी निकाले जाते हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी जी जब भी सार्वजनिक मंच पर आते हैं तो वे बहक जाते हैं। वे न केवल तथ्यात्मक गलतियां कर जाते हैं पर अपने विरोधियों पर ऐसे ऐसे छिछले और हास्यास्पद आरोप लगाते हैं कि बाद में सरकार को उन पर सफाई देनी पड़ती है। आज भारत के प्रधानमंत्री अपनी भाषा, झूठ गलत तथ्यों से भरे भाषणों से मज़ाक़ के पर्याय बन चुके हैं । प्रधानमंत्री को ऐसे हल्केपन से बचना चाहिये।

प्रधानमंत्री के फोटो साड़ियों और महिलाओं के अंतर्वस्त्रों पर छप रहे हैं। मुझे नहीं पता प्रधानमंत्री की सहमति ऐसे फ़ोटो पर है या नही। प्रधानमंत्री की फ़ोटो विज्ञापन के रूप में प्रयोग नहीं हो सकती है। यह एक दंडनीय अपराध है। और बिना पीएमओ और सूचना प्रसारण मंत्रालय की अनुमति के तो उसे कहीं भी नहीं छापा जा सकता है। सरकार को इसका स्वतः संज्ञान लेना चाहिये।

पर यह बात भी सही है कि वर्तमान प्रधानमंत्री के अधिकतर समर्थक ऐसी ही भाषा शैली सुनने और बोलने के आदी हैं, तो यह उनकी भी मज़बूरी है कि वे आखिर बोलें भी तो क्या बोलें, शब्द चुनें भी तो कहां से चुनें। पर जब इसी भाजपा के दिग्गज नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी की वक्तृता शैली, शब्द चयन, शालीन परिहास बोध और विरोध की अद्भुत शैली मन मस्तिष्क में बैठी हुयी हो तो उसी दल जो खुद को संस्कार और संस्कृति का झंडाबरदार मानती है के  प्रधानमंत्री को ऐसी छिछोरी शब्दावली से बचना चाहिये।

© विजय शंकर सिंह

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