Monday, 3 September 2018

Ghalib - Kab mujhe koo e yaar / कब मुझे कू ए यार - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब - 101.
कब मुझे कू ए यार में रहने की वजह याद थी,
आईनादार बन गयी, हैरत ए नक़्श ए पा , कि यो !!

Kab mujhe kuu e yaar mein rahne kii wazah yaad thii,
Aaiinaadaar ban gayee, hairat e naqsh e paa, ki yo !!
- Ghalib

मुझे याद नहीं कि मैं कभी अपनी प्रेमिका की गली में गया होऊं। पर जब मैंने अपने पांव के निशान देखे तो, मैं आश्चर्य से चकित रह गया कि मैं तो इस गली में आ चुका हूं।

ग़ालिब का यह शेर बेहद गूढ़ अर्थ समेटे हुये हैं। ग़ालिब के पांव में ज़ख्म हैं और निशान है। ये ज़ख्म और निशान, उन्हें अपनी प्रेमिका की गली में जाने से मिले हैं। अब उन्हें अपनी प्रेमिका के दर्शन हुये या नहीं यह तो छोड़ दीजिये, उन्हें यह तक याद नहीं कि वे कभी उस गली में गये या नहीं पर ये ज़ख्म उन्हें यह ज़रूर याद दिला देते हैं कि वे उस गली में गये थे। ग़ालिब की शायरी इश्क़ से मजाज़ी से शुरू होकर इश्क़ हक़ीक़ी पर खत्म होती है।

अब मीर ' हसन ' का एक शेर पढ़ें, 
जब मैं चलता हूँ तेरे कूचे से कतरा के कभी, 
दिल फिर मुझे फेर को कहता है, उधर को चलिये !!
जब मैं तेरी गली से बच कर निकल जाता हूँ, तब मेरा दिल, मुझे वापस छोड़ कर कहता है कि उसी ओर चलो।

मीर हसन प्रेयसी की गली से कतरा कर निकल जाना चाहते हैं तो भी वे निकल नहीं पाते हैं उनका मन उन्हें उसी गली में ले जाने को आतुर रहता है। जबकि गलिब को प्रेयसी की गली की आमद रफ्त तब याद आती है जब उन्हें अपने पांव के जख्म याद आते हैं। यह उनकी निर्लिप्तता है या बेवफाई या बेखुदी, पता नहीं !

© विजय शंकर सिंह

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