Saturday, 8 September 2018

हजरतगंज का 1857 की अमर सेनानी बेगम हजरतमहल से कोई सम्बंध नहीं है / विजय शंकर सिंह  

सोशल मीडिया में लखनऊ के हज़रतगंज चौराहे के अटल चौक किये जाने पर आपत्ति उठायी जा रही है। यह अलग बात है कि स्थापित और ऐतिहासिक महत्व के स्थानों के नाम परिवर्तन पर आपत्ति उठायी जा सकती है, और समय समय पर सरकारें नाम बदलती भी रही है। पर यह बात, जो बार बार कही जा रही है कि हजरतगंज चौराहे का नाम बेगम हजरतमहल के नाम पर रखा गया था ऐतिहासिक दृष्टि से सही नहीं है। लखनऊ का सबसे खूबसूरत और महत्वपूर्ण चौराहा बेगम हजरतमहल के नाम पर नहीं रखा गया था। यह हजरत कोई और थे।

1827 में अवध के नवाब नसीरुद्दीन हैदर ने इस जगह एक बाजार की नींव डाली जिसे गंज बाज़ार कहा गया। यहां तब के दृष्टिकोण से एक आधुनिक बाज़ार बनाने का इरादा नवाब का था। यहां चीन, बेल्जियम आदि स्थानों से सामान बिकने आते थे। कैंटोनमेंट से नज़दीक और लखनऊ शहर से दूर होने के कारण खरीदार या तो अवध के सामंत थे या अंग्रेज़ फौजी और सिविलियन लोग। नवाब इसे कलकत्ता की तर्ज़ पर एक आधुनिक ( तब के अनुसार ) बाज़ार बनाना चाहते । इसी के आसपास धीरे धीरे तार वाली कोठी, खास मुकाम पर बारह इमामों की दरगाह, छोटी छतर मंज़िल, जहां आजकल चिड़ियाघर है वहां सावन भादों महल, बारहदरी, दारुलशफा और लालबाग आदि स्थान बने या विकसित हुये। यह इलाका सामंती और आभिजात्य समाज का रिहायशी और बाज़ारी इलाके के रूप में विकसित होने लगा। लखनऊ तब तक अंग्रेज़ों के अधीन नहीं हुआ था, लेकिन इस सरसब्ज़ और खुशहाल ज़मीन पर ब्रिटिश गवर्नर जनरल की गिद्ध दृष्टि पड़ चुकी थी।

1842 में इस गंज बाज़ार का नाम बदल कर तब के नवाब अमजद अली शाह जिनको लोग हजरत के नाम से प्यार से बुलाते थे, के नाम पर रखा गया। अमजद अली शाह, अवध के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के पिता थे। वाजिद अली शाह के ही समय मे अंग्रेज़ों ने वाजिद अली शाह के ऐय्याशी, फ़िज़ूलख़र्ची और अवध के कुशासन का आरोप लगा कर अवध को हड़प्पा का षडयंत्र रचा। 1856 में जब अवध का अधिग्रहण हुआ तो उसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुयी और जब 1857 की 10 मई को बैरकपुर से लेकर मेरठ तक सैनिक विद्रोह भड़का तो 1857 में अवध अचानक धधक । वाजिद अली शाह गिरफ्तार कर के कलकत्ता भेज दिये गये। उनकी बेगम हजरतमहल ने कानपुर के नाना राव धूं धूं पंत, वकील अजीमुल्ला खां के साथ मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। उनके साथ अवध के 18 ताल्लुकदार भी इस विद्रोह में शामिल थे। लेकिन यह विप्लव एक साल के भीतर ही अंग्रेजों द्वारा दबा दिया गया। और इस प्रकार अवध ब्रिटिश हुकूमत के अधीन हो गया। इसके बाद 1858 में महारानी की उदघोषणा के बाद भारत भी ईस्ट इंडिया कंपनी के चंगुल से निकल कर ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन हो गया।

1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने हज़रतगंज को लंदन के क्वीन स्ट्रीट की तर्ज़ पर आधुनिक रूप से बसाने की सोची। नवाबी युग की कई खूबसूरत इमारतों को तोड़ कर वहां नयी इमारतें बनायी गयी। आज हजरतगंज में जो भी यूरोपीय स्थापत्य के भवन दिख रहे है वे सब तभी के हैं। आज चौराहे पर जो खूबसूरत सा जीपीओ या बड़ा डाकखाना दिख रहा है वह कभी अंग्रेज़ों के मनोरंजन के लिये बना रिंग थियेटर था। वह अंग्रेजों का नाइट क्लब था जिसमें बॉल डांस तथा अन्य रागरंग के आयोजन होते थे। वहां तब भारतीयों का प्रवेश निषिद्ध था। जब चंद्रशेखर आज़ाद और उनके साथियों ने काकोरी में 9 अगस्त 1925 को सरकारी खज़ाना लूटा था तो उसके मुक़दमे की सुनवायी के लिये लखनऊ की कचहरी से दूर इस रिंग थियेटर को एक विशेष अदालत में बदल दिया गया था। इस मुकदमे की सुनवायी 1932 तक चली थी। इस मुक़दमे में कुल 17 क्रांतिकारी अभियुक्त बनाये गए थे। इसी मुक़दमे में रामप्रसाद बिस्मिल अशफाकउल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सज़ा मिली थी। मुक़दमे के समाप्ति के बाद इसे बड़े डाकखाने में बदल दिया गया। अंग्रेज़ यह नहीं चाहते थे कि  किसी भी क्रांतिकारी गतिविधि के साथ इस भवन का नाम जुड़े। उन्होंने बड़ा डाकखाना जो पहले जनपथ के पास था को यहां स्थानांतरित कर दिया। इसी तरह और भी इमारतें बदली गयीं या नयी बनायी गयी। एक इमारत है सिबतैनाबाद का इमामबाड़ा। यह आज के हलवासिया मार्केट के सामने अंतिम नवाब वाजिद अली शाह की बनवायी इमारत है। यह शिया वक़्फ़ बोर्ड की है। यहां भी उन्होंने कुछ नया निर्माण कराया।

एक महत्वपूर्ण और पुराना स्थान लखनऊ का कॉफ़ी हाउस है। यह कॉफ़ी हाउस, राजा जहांगीराबाद की बिल्डिंग जो ठीक चौराहे पर ही है के नीचे स्थित है। तब कॉफ़ी हाउस केवल कॉफ़ी पीने और डोसा खाने की ही जगह नहीं होती थी। यह जगह शहर के लेखकों, साहित्यकारों, प्रबुद्ध राजनीतिक हस्तियों के मिलने जुलने बहस करने का एक केंद्र भी हुआ करती थी। अनेक नए लेखक कॉफ़ी हाउसों के साहित्यिक और सियासी बहसों से प्रेरित हुए हैं। लोग देर तक यहां बैठ कर बहस और विचार विमर्श करते रहते थे। इन कॉफी हाउसों का भी अपना एक इतिहास है। ब्रिटिश राज में इंडिया काफी हाउस का संचालन 1940 के दशक में कॉफी बोर्ड ने शुरू किया था, पर जब देश स्वतंत्र हुआ, तो 1950 के दशक में इंडियन कॉफी हाउस को बंद कर दिया गया और कॉफी बोर्ड ने इनमें कार्यरत लोगों को नौकरी से निकाल दिया। तब कॉफी हाउस के कर्मचारियों ने कम्युनिस्ट नेता ए के गोपालन के नेतृत्व में एक सोसाइटी बनाकर कॉफी हाउस की बागडोर अपने हाथों में संभाली। देश के कई शहरों में कॉफ़ी हाउसेस आज भी हैं। पर अब वहां ऐसी हस्तियां जाती भी हैं या नहीं यह मैं नहीं बता पाऊंगा। प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका टाइम मैगजीन ने अपने एक अंक में नई दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित इंडियन कॉफी हाउस में कॉफी पीने को एशिया की 25 विश्वस्तरीय अनुभूतियों में शुमार किया है। राजधानी दिल्ली के मध्य में स्थित यह कॉफी हाउस दशकों से राजनेताओं, लेखकों, पत्रकारों और बुजुर्ग नागरिकों के लिए बौद्धिक बहस का केंद्र रहा है। डॉ राममनोहर लोहिया, इंदिरा गांधी, लालकृष्ण आडवाणी, पी के धूमल जैसे कई राजनेता एवं बिष्णु प्रभाकर जैसे कई लेखक यहां नियमित आते रहे हैं। 1920 से चल रहे लखनऊ के कॉफ़ी हाउस में भी लोग बताते हैं कि कभी, डॉ राममनोहर लोहिया, चंद्रशेखर, अटल बिहारी बाजपेयी, जैसी राजनीतिक हस्तियां और भगवती चरण वर्मा, यशपाल, अमृत लाल नागर, आनन्द नारायण मुल्ला आदि प्रसिद्ध साहित्यकार भी नियमित रूप से आते थे।

अंग्रेज़ 1857 के विप्लव से बहुत ही डर गए थे। 1857 के विप्लव से जुड़ी कोई भी याद जो भारतीय सेनानियों को गौरवान्वित करती थी, को वे संरक्षित कर ही नहीं सकते हैं। पूरे देश मे एक भी स्मारक 1857 के समय का अंग्रेज़ों द्वारा संरक्षित नहीं मिलेगा। अवध के जिन ताल्लुकेदारों ने अवध की बेगम हजरतमहल का साथ दिया था, उनकी रियासतें उन्होंने ज़ब्त कर के उनमें बांट दी गयी जो उनके उस क्रांति के समय साथी और खैरख्वाह थे। 1857 के विप्लव से उन्होंने यह सीख ग्रहण की कि भारत मे राज करने के लिये ज़रूरी है कि देश मे सांप्रदायिक आधार पर विभाजन बना रहे। कभी हिन्दू उत्थान तो कभी मुस्लिम समाज के तरक़्क़ी की बात तभी अंग्रेज़ों ने करनी शुरू कर दी। 1857 की क्रांति मुख्यतः उत्तर भारत के ही क्षेत्रों में सीमित रही। दक्षिण भारत लगभग अछूता रहा। इस क्रांति में हिन्दू मुस्लिम एक होकर लड़े थे। इस क्रांति का कोई नेता नहीं था, कोई स्पष्ट रणनीति नहीं थी, कोई तयशुदा एजेंडा नहीं था, पर इसका मकसद साफ था, अंग्रेज़ों को भगाओ। अवध में लखनऊ इसका केंद्र था और बेगम हजरतमहल इसकी नेता। लेकिन यह विप्लव असफल रहा। बेगम हजरतमहल, नाना साहब और उनके कुछ साथी, जब विप्लव दबा दिया गया तो, , बहराइच के रास्ते नेपाल चले गए। उनका बाद में पता भी नहीं चला। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ग्वालियर में युद्ध करते करते शहीद हो गयी, बाबू कुंवर सिंह ने भी अस्सी वर्ष की आयु में अदम्य साहस का परिचय दिया पर वे भी वीरगति को प्राप्त हो गए, बहादुरशाह ज़फ़र,एक मुश्त गुबार के मानिंद,  ' दफन के लिये कू ए यार में दो ग़ज़ ज़मीन ' को तरसते तरसते  जलावतन हो गए, और ' हम छोड़ चले लखनऊ नगरी मत पूछो हम पर क्या गुजरी ' गुनगुनाते हुए अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह, कलकत्ता के मटिया बुर्ज में इंतकाल फरमा गये। यह इतिहास के एक अंक का पटाक्षेप था।

इतिहास का यह दौर एक टर्निंग प्वाइंट था। बेगम हजरतमहल के नाम पर लखनऊ में बस एक बेगम हजरतमहल पार्क है, जहां आम सभाएं होती थीं अब वह भी लखनऊ की यातायात समस्याओं को देखते हुए नहीं होतीं। वर्तमान हजरतगंज का संबंध बेगम हजरतमहल से केवल इतना ही है कि यह उनके पति वाजिद अली शाह के पिता अमजद अली शाह हजरत के नाम पर बना है और यह नाम भी अंग्रेज़ों ने नहीं रखा था।

© विजय शंकर सिंह

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