Friday, 21 September 2018

एससीएससी एक्ट पर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री का बयान - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

सरकार द्वाराअनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 2018 में संशोधन करने के बाद गैर अनुसूचित जाति जनजाति वर्ग के लोगों में जबरदस्त आक्रोश है। कोई  सवर्ण एकता मंच बना रहा है तो कोई इसी एक मुद्दे पर सरकार को खलनायक मान बैठा है, ( हालांकि सरकार को खलनायक सिद्ध करने के बेशुमार मुद्दे हैं ), तो कोई NOTA नोटा का बटन दबा कर उस एक्ट के रद्द होने की मनौती मान बैठा है। कहने का आशय यह है कि लोग उत्तेजित हैं और अपनी अपनी तरह से अपनी उत्तेजना को अभिव्यक्त कर रहे हैं। कुछ तो इस अधिनियम को ही अपने स्वाभिमान से जोड़ कर देख रहे हैं। यह विरोध न केवल एक्सट्रीम है बल्कि बेमतलब का भी है।

मध्यप्रदेश में हाल ही में चुनाव होने है। एमपी में हाल ही में इस एक्ट का प्रबल विरोध हुआ। अभी भी हो रहा है। वहां के मुख्यमंत्री,  शिवराज सिंह चौहान को जगह जगह विरोध झेलना भी पड़ रहा है। उन्हें लगा कि यह नयी आफत उनके चुनाव अभियान को मुश्किल में डाल देगी तो उन्होंने इससे निपटने का एक नायाब रास्ता ढूंढ निकाला। उन्होंने कल एक ट्वीट कर दिया कि, ' इस अधिनियम के अंर्तगत दर्ज मुक़दमे में बिना जांच के गिरफ्तारी नहीं होगी। ' लोग खुश हो गए। शाही फरमान जारी हो गया। लोगों को लगा कि अगर वे इस एक्ट के अंतर्गत मुल्ज़िम हैं तो, अब चैन से सो सकते हैं। कोई गिरफ्तार करने नहीं आ रहा है। पहले जांच होगी फिर गिरफ्तारी होगी।

इस ट्वीट से निम्न कानूनी विंदु उभरते हैं।
* मुख्यमंत्री के इस ट्वीट का क्या वैधानिक महत्व है ?
* क्या कोई शासनादेश सरकार ने निकाला है ?
* क्या कानून में कोई संशोधन किया गया है ?
* क्या किसी केंद्रीय एक्ट या सीआरपीसी में संशोधन का
* कोई अधिकार राज्य सरकार को है ?
* क्या यह एक प्रशासनिक आदेश है?
* क्या पुलिस इस आदेश को मानने के लिये कानूनी रूप से बाध्य है ?
मेरा मानना है कि मुख्यमंत्री के इस ट्वीट का कोई भी वैधानिक महत्व नहीं है। इस ट्वीट से एक्ट की स्थिति पर धेले भर भी फ़र्क़ नहीं पड़ता है। यह मात्र एक सूचना है। यह मुझे पता नहीं कि कोई शासनादेश सरकार ने जारी किया है या नहीं। यदि जारी हुआ हो तो मध्यप्रदेश के मेरे मित्रगण उसे उपलब्ध कराने की कृपा करें।

अब मूल बात पर आते हैं। इस अधिनियम के ही नही सभी आपराधिक कानूनों ( आईपीसी और विविध अधिनियमों को मिला कर ) में, एक कानून को लागू करने की प्रमुख एजेंसी होने के नाते, अभियुक्तों की गिरफ्तारी करने का अधिकार पुलिस को है जो उसे सीआरपीसी की धारा 41 से मिला है। गिरफ्तारी का यह अधिकार किसी को जलील करने, उसे तंग और बेइज्जत करने के लिये कानून द्वारा पुलिस को नहीं दिया गया है बल्कि यह एक कानूनी प्रक्रिया है जो पुलिस को किसी भी आपराधिक मामलों में विवेचना के दौरान प्राप्त होती है। अभियुक्त की गिरफ्तारी इस लिये की जाती है ताकि उससे पूछताछ की जा सके। पूछताछ करके जिस मुक़दमे की तफ्तीश पुलिस कर रही है, उस मुक़दमे के बारे में सुबूत एकत्र किए जा सकें। इसी लिए कानून में मुल्ज़िम को गिरफ्तार करने के 24 घण्टे के भीतर ही नज़दीकी मैजिस्ट्रेट के समक्ष सभी तथ्यों जिसमे गिरफ्तारी का औचित्य भी शामिल है, को लिखित रूप में अभियुक्त को प्रस्तुत करना पड़ता है। अगर और पूछताछ करने या सुबूत इकट्ठा करने के लिये पुलिस को अभियुक्त की आवश्यकता है तो उसे कानून में रिमांड पर लेने का प्राविधान है। यह रिमांड पुलिस अभिरक्षा का भी हो सकता है और न्यायिक अभिरक्षा में जेल का भी। यह अधिकार मैजिस्ट्रेट का है की वह जो उचित समझे वह आदेश जारी करे। पुलिस को अगर जांच में सुबूत मिलते हैं, तो पुलिस अदालत में चार्जशीट दायर कर देती है और सुबूत नहीं मिलने पर मुल्ज़िम को 169 सीआरपीसी के अंतर्गत रिहा कर दिया जाता है और मुकदमा फाइनल रिपोर्ट के साथ समाप्त कर दिया जाता है। यह एक सामान्य वैधानिक प्रक्रिया है जिसका एक अंग गिरफ्तारी भी है।

एससीएसटी एक्ट में गिरफ्तारी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्देश दिए थे वे यह हैं,
* अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी है तो उसकी गिरफ्तारी की अनुमति उसके नियोक्ता से लेकर की जा सकेगी।
* अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी नहीं है तो, उसकी गिरफ्तारी जिले के एसपी या डीसीपी से अनुमति लेकर की जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि इन प्रतिबंधो से सिर्फ खुन्नस या झगड़े के आधार पर मुकदमा लिखवा कर इस अधिनियम का दुरुपयोग करने वालों पर रोक लगेगी और पुलिस भी अंकुश में रहेगी। क्योंकि जब भी गिरफ्तारी के लिये अनुमति मांगी जाएगी तो अनुमति देने वाला अधिकारी गिरफ्तारी से पहले सुबूत मांगेगा और पुलिस इस मांग की वजह से पहले पर्याप्त और समाधान लायक़ सुबूत जुटा लेने के बाद ही गिरफ्तारी हेतु सक्षम अधिकारी से अनुमति लेने जाएगी।

इसी निर्देश को संसद ने संशोधन करके अमान्य कर दिया है, और अधिनियम को जैसा पहले था वैसा बना दिया है। इस संशोधन के तुरंत बाद अफवाह भी फैलने लगी कि ऐसा प्राविधान किया गया कि गिरफ्तारी, मुक़दमे लिखाते ही हो जाएगी और फिर छह माह तक जमानत नहीं होगी। यह कमाल व्हाट्सऐप्प से दिनरात फैलने वाले संदेशों ने अधिक किया। जबकि यह दोनों ही बाते झूठी हैं और अफवाह हैं। ऐसा कोई प्राविधान न तो इस अधिनियम में पहले था और न अब किया गया है।

अब यह आदेश कि बिना जांच के गिरफ्तारी नहीं होगी, जैसा एमपी के मुख्यमंत्री जी कह रहे हैं को भी देखें। यह अधिनियम ही नहीं, बल्कि देश का सारा आपराधिक कानून में यह प्राविधान है कि, अभियुक्त की गिरफ्तारी विवेचना के बाद ही होगी। सामान्य कानूनी प्रक्रिया यह है कि थाने में मुकदमा दर्ज होते ही वह मुकदमा, किसी न किसी एसआई या उसके ऊपर के अधिकारी को विवेचना के लिये आवंटित कर दिया जाता है। एससीएससी एक्ट के अंतर्गत विवेचना का अधिकार डीएसपी को ही है तो उसे यह विवेचना दी जाएगी। वह डीएसपी जो इस मुक़दमे का विवेचक होता है, एफआईआर दर्ज कराने वाले व्यक्ति जिसे वादी कहते हैं के बयान,प्रारम्भिक पूछताछ के बाद अगर उस विवेचक को यह लगता है कि मुल्ज़िम की गिरफ्तारी ज़रूरी है तो वह गिरफ्तार कर लेगा। एक्ट में ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि उधर मुकदमा दर्ज हुआ और तुरन्त बिना विवेचना शुरू किए मुल्ज़िम को हवालात में डाल दिया जाएगा। अतः सीएम एमपी के इस ट्वीट का कोई कानूनी महत्व नहीं है यह केवल हालिया आक्रोश को शांत करने के लिये किया गया है।

सामाजिक न्याय और भेदभाव को देखते हुए 1989 में यह अधिनियम पारित किया गया था। तब भी विधि निर्माताओं को यह आशंका थी कि इसका दुरूपयोग हो सकता है। क्यों कि जिस जातिगत भेदभाव, अस्पृश्यता आदि सामाजिक व्याधियों के चलते यह कानून बनाना पड़ा वह समाज मे तब भी विद्यमान थीं आज भी विद्यमान हैं और कब तक रहेंगी यह मैं नहीं बता पाऊंगा। इसीलिये इस अभियोग की विवेचना डीएसपी स्तर के अधिकारी को सौंपने का प्राविधान किया गया है ताकि वह बिना किसी सामाजिक और जातिगत दबाव में आये इसका निस्तारण करेगा । विवेचना जल्दी ही समाप्त भी हो जाय इसके लिये एक निश्चित समयसीमा भी तय कर दी गयी है। क्योंकि विवेचना अगर लंबित रहती है तो अनावश्यक दबाव और सिफारिशें आती हैं, जिससे निष्पक्ष विवेचना पर प्रभाव पड़ सकता है। लेकिन यह भी एक दुःखद तथ्य है कि इस एक्ट का दुरुपयोग भी खूब हुआ है।

सरकार को एक कमेटी बना कर यह अनुसंधान कराना चाहिये कि किन किन तरीक़ों से इस कानून का दुरुपयोग किया जा रहा है और उसे रोकने का क्या उपाय है। यह एक सेंट्रल एक्ट है जिसमे राज्य सरकार बहुत कुछ मौलिक फेरबदल नहीं कर सकती है पर प्रशासनिक रूप से ज़रूर कुछ ऐसे कदम उठाए जा सकते हैं जिनसे इस एक्ट का दुरुपयोग भी रुके और जिस सामाजिक भेदभाव और जातिगत शोषण को दूर करने के उद्देश्य से यह एक्ट बना है वह भी पूरा हो। सच तो यह है कि एक्ट में कोई कमी नहीं है बल्कि, कमी और पेशेवराना ईमानदारी का अभाव ही इस एक्ट के दुरुपयोग का कारण है।

© विजय शंकर सिंह

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