Friday, 14 September 2018

राहुल गांधी और गुलाम नबी आजाद ने वसीम रिज़वी से विजय माल्या की सिफारिश की - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

और इस तरह वसीम रिज़वी ने राहुल गांधी और गुलाम नबी की बात मान ली। अब सिफारिश तो कभी वसीम साहब को तब भी करनी पड़ सकती है जब वे तख्तनशीन नहीं रहेंगे। वसीम साहब के इस बयान की सच झूठ के पचड़े में न पड़िये। वसीम साहब झूठ नहीं बोल रहे हैं। वे एक सच कह रहे हैं । यह बात बिल्कुल सच है कि सभी बड़े नेता अंदर अंदर एक दूसरे से अपने अपने लोगों की सिफारिश करते रहते हैं और काम कराते हैं। इसे रवीश कुमार इज इक्वल टू कहते हैं।  जितना ही ऊपर आप जाइयेगा ज़मीन उतनी ही समतल नज़र आएगी और आपसी विभाजग चिह्न मिटते जाएंगे। अब जब वसीम साहब ने साफ बयानी कर ही दी है तो, यह भी वे बता दें कि उन्होंने राहुल गांधी और गुलाम नबी आजाद की सिफारिश पर कोई विजय माल्या को राहत दी कि नहीं।

विवाद इस पर बेमानी है कि माल्या के संबंध कांग्रेस से थे या बीजेपी के। उसके संबंध तो टीपू सुल्तान से लेकर कांग्रेस बीजेपी तक सबसे थे और आज भी हैं। उसने टीपू सुल्तान की तलवार नीलामी में लायी, कांग्रेस से सांसद रहा, फिर जब हवा बीजेपी की तरफ आयी तो वह बीजेपी से सांसद हो गया। सरकार किसी की भी हो, बीजेपी की या कांग्रेस की, उसके संपर्क दोनों ही जगह थे और हैं। उसे व्यापार करना है तो वह बना के ही रखेगा। यह सभी व्यापारियों की सार्वकालिक, सार्वदेशिक और सारगर्भित नीति होती है। अगर कांग्रेस ने अनुचित दबाव देकर माल्या को लोन दिलाया, किंगफिशर को लाभ पहुंचाया तो बीजेपी ने लुकआउट के साथ हेराफेरी कर के उसे सुरक्षित अभ्यारण्य में पहुंचा दिया। पूंजीपतियों को स्टेशन पर खड़े उस यात्री की तरह समझिये जो, जो भी ट्रेन सुविधाजनक रूप से प्लेटफार्म पर खड़ी पाता है बैठ कर चल देता है। ट्रेन के अंदर बैठा टीटी भी उसका स्वागत ही करता ही करता है।

मंत्री पीयूष गोयल और बीजेपी प्रवक्ता, सम्बित पात्रा टीवी पर वे सारे सुबूत दिखा रहे हैं जिनसे विजय माल्या के किंगफिशर के साथ राहुल सोनिया की नज़दीकी ज़ाहिर होती हैं। सुबूत सही है या गलत, यह तो वही जानें । पर वे यह नहीं बता रहे हैं कि इन आरोपों पर सरकार ने माल्या राहुल जुगलबंदी के खिलाफ क्या कार्यवाही की ? आज भी वे कोई कार्यवाही नहीं करने जा रहे हैं या नहीं ?

यह सब एक तमाशा है, नाटक है और हमसब टीवी न्यूज़ चैनलों की टीआरपी बढाने की मशीन की तरह होते जा रहे हैं। उनके लिये अनजाने में ही विज्ञापन जुटाने की एजेंसी बन जाते हैं। इससे एक तात्कालिक लाभ तो यह होता है कि, कम से कम सरकार और सरकारी पार्टी के प्रवक्ता को देश की असल समस्याओं के बारे में उठने वाले सवालों की असहजता से कुछ समय के लिये राहत तो मिल ही जाती है। सरकार का मंत्री और सरकारी दल का प्रवक्ता, आरोप लगाता है, सुबूतों के कागज़ों को हवा में लहराता है। उसे यह सब करने पर कोई आपत्ति किसी को नहीं है और न होनी चाहिये। पर सरकार का एक महत्वपूर्ण कार्य यह है उन आरोपों की जांच कराना और उनपर कार्यवाही करना। यह भी तो हो कभी ?

अपने नाटक देखें हैं ? पूछ इस लिये रहा हूँ कि नाटक हिंदी पट्टी के लोग कम ही देखते हैं। रंगमंच की परंपरा मराठी और बांग्ला थियेटरों के समान उतनी समृद्ध नहीं है। रंगमंच के पात्रों को जब स्टेज पर देखिएगा तो अलग अंदाज में दिखेंगे और ग्रीनरूम में अलग। यह थियेटर इनका शौक है जो धीरे धीरे पेशा बन जाता है। यह जितना ही पेशा बनता जाता है, उतना ही, मंच और थियेटर की अदाकारी में फर्क होता जाता है । पर नाटक तो हम मनोरंजन के लिये देखते हैं, पर सियासत को तो हम मनोरंजन के अंदाज़ से तो न देखें। जब तक हम नेताओं को हम मुक्तिदाता के रूप में देखते रहेंगे और उसके कामों पर सवाल उठाना बंद कर देंगे हम छले जाएंगे। हमे उनके कपड़ो, खानपान, मिलने की अदा, वक्तृता शैली, आदि आदि मंचीय गुणों पर रीझना छोड़ना होगा। जिस काम के लिए वे चुने गये हैं, उसकी जवाबदेही उन्हें लेनी होगी और राजनेता जवाबदेही लें, यह देखना जनता की जवाबदेही ही नहीं एक कर्तव्य और दायित्व, दोनों ही है 

© विजय शंकर सिंह

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