महाभारत के शांतिपर्व के 107 वें अध्याय जो युधिष्ठिर और भीष्म के बीच हो रहे संवाद का एक उद्धरण प्रस्तुत कर रहा हूँ।
महाभारत का युद्ध एक महाविनाश के साथ समाप्त हो चुका है। भीष्म सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में शर शैय्या पर पड़ें हैं। पांडव उनके पास हैं। कृष्ण भी वहीं हैं। युधिष्ठिर की ज्ञान पिपासा जागृत है। वे प्रश्न पर प्रश्न कर रहे हैं, संदेह पर संदेह जता रहे हैं, और भीष्म उनके प्रश्नों का उत्तर दे रहे हैं और युधिष्ठिर के संदेहों का निवारण कर रहे हैं।
युधिष्ठिर ने पूछा," एक गणराज्य कैसे, संगठित, समृद्ध और शांतिपूर्ण रह सकता है ? "
भीष्म उत्तर देते हैं, " यदि गणतंत्र के लोग विवेकवान हों, ज्ञान की विविध शाखाओं में पारंगत हों, और जनता की सेवा आपसी विश्वास और सद्भाव के साथ कर रहे हों तो लोग प्रगति कर सकते हैं। "
महाभारत में गणराज्य के स्थायित्व के उपायों को बताते समय भीष्म उनके विखंडन के कारणों को भी बताते हैं। वे कहते हैं, " यदि परस्पर विश्वास का लोप हो जाय तो गणराज्य का नाश होने लगता हैं। "
और आगे भीष्म कहते हैं कि, " चाहे परिवार हो या राज्य अगर दो दुर्गुण लोभ और अहंकार पनप गये हों, तो गणराज्य को शत्रुता की अग्नि की चपेट में आने से कोई बचा नहीं सकता है। गणराज्य सामान्यतया एक सुखी राज्य व्यवस्था है। विवेकवान नागरिक, एक दूसरे के सत्कार्यो की प्रशंसा करते हुए, बिना एक दूसरे को ठगते हुए, एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुये, एकता के सूत्र में बंधे हुए जीवन व्यतीत करते हैं तो एक सुखी समाज का निर्माण होता है। "
इन सबके लिये, भीष्म आगे स्पष्ट करते हुए कहते हैं, " इसके लिए सबसे आवश्यक है कि लोगों की रक्षा की जाय। लोगों की रक्षा के लिये आवश्यक है कि लोग की एक दूसरे के प्रति परस्पर भय से रक्षा की जाय, और ऐसा भय तब उत्पन्न होता है जब परस्पर अविश्वास उपजता है। अब यह राज्य का कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों के बीच पनप रहे परस्पर अविश्वास और भय को दूर करे। वह इतना संवेदनशील हो कि ऐसा भय समाज मे पनपने ही न दें। यदि ऐसा नहीं होगा तो समाज का यह आंतरिक भय गणराज्य को नष्ट कर देगा।
आगे कहते हैं " क्रोध, भ्रम या लोभ के कारण, अगर गणराज्य के लोग आपस में संवाद नहीं कर पाते हैं तो, यह गणराज्य के पराजय का एक निश्चित कारण है। "
अतः महाभारत के अनुसार, गणराज्य के स्वस्थ सुखी और समृद्ध रहने के लिये यह आवश्यक है कि, राज्य की सामाजिक आर्थिक नीतियां इस प्रकार से बनायी जाँय कि लोगों में परस्पर विश्वास बढ़े, भय का लोप हो, और समाज में अबाध संवाद रहे, हिंसा, क्रोध और भ्रम का लेश न रहे। ऐसा ही गणराज्य सफल हो सकता है। संगठित गणराज्य सदैव विजयी होगा और विखंडित गणराज्य का पतन अवश्यम्भावी है।
यह कथन आज के परिपेक्ष्य में अत्यंत प्रासंगिक है। पिछले चार सालों की सामाजिक समरसता की बात करें तो महाभारत के शांतिपर्व के इस प्रसंग के अनुसार समाज मे वैमनस्य, परस्पर अविश्वास, भय , भ्रम और संवादहीनता बढ़ी है। सामाजिक तानाबाना तोड़ने का खुल कर उपक्रम किया गया है, और समाज मे जितना परस्पर वैमनस्य इन चार सालों में बढाने का काम किया गया है उतना शायद पहले कभी नहीं किया गया है। पर सरकार इस बढ़ते वैमनस्य और अविश्वास को दूर करने का कोई प्रयास करना तो दूर बल्कि उसने इससे आंखे मूंद ली है। भय भ्रम और संवादहीनता भी बढ़ी है। यह कैसा राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रवाद है जो समाज को विखंडित कर के, सामाजिक तानेबाने को छिन्न भिन्न करके, देश को पूंजीवादी ताकतों के पराश्रित करके, जातिवादी भेदभाव की आग को सुलगा कर के, खानपान, जीवन, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बंदिश लगा कर भारत को एक रखने और अखंड होने के सपने पालता है।
गणराज्य की धारणा, भले ही पाश्चात्य राजनैतिक विचारधारा के उद्भूत कुछ लोग मानें पर पांच हज़ार साल पहले महाभारत का यह प्रसंग यह बताता है कि भारतीय राज शास्त्र में जनता की इच्छा, उनकी एका, समृद्धि और प्रगति के प्रति एक स्पष्ट सोच विद्यमान रही है। महाभारत से थोड़ा और पीछे चले जाइये और वैदिक युग की यह ऋचा पढिये तो गणतंत्र और लोककल्याणकारी राज्य का जो स्वरूप सामने आता है वह संसार मे कहीं भी नहीं मिलता।
ऋगवेद, मंडल 10 , सूक्त 191 के मंत्र 2, 3 व 4 के उपदेश समसामयिक लगते हैं। हम सभी इनका अनुसरण करें तो सब का भला हो।
The teachings of Mantras 2,3, and 4, Mandal 10, Sukta 191 of Rigveda appears contemporary. Following them will lead to the well-being of everyone.
सङ्गच्छध्वं सं वदध्वं स वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ।।2।।
हे मनुष्यों! एक साथ चलो, एक साथ मिल बैठ कर बात करो और मन को समता में रख कर सत्य को जानने का प्रयास करो। पहले के देवता(सज्जन) लोग समता और सह-अस्तित्व का भाव रख कर ही अपना-अपना भाग लेते औरनिर्वाह करते थे।
Assemble, speak together: let your minds be all of one accord,�As ancient Gods unanimous sit down to their appointed share.
समानो मन्त्र: समिति: समानी समानं मन: सह चित्तमेषम् ।।3.1।।
हम सबके विचार समान हों, सभा-समिति समान हों, मननशील मन और अनुसंधानात्मक चित्त हों।
The place is common, common the assembly, common the mind, so be their thought united
समानी वा आकूति: समाना हृदयानि व:।
समानस्तु वो नमो यथा व: सुसहासति ।।4।।
तुम्हारे संकल्प समान हों, हृदय समान हों,
और मन समान हों – एक दूसरे से मिले रहें
जिससे तुम सब एक साथ मिलजुल कर रहो।
One and the same be your resolve, and be your minds of one accord.�United be the thoughts of all that all may happily agree.
गणतंत्र एक सभ्य, सुसंस्कृत, मुक्त वैचारिक सोच, और प्रगतिशील शासन व्यवस्था है। यह कोई जंगल नहीं है जो मात्सन्याय के अवधारणा पर बलशाली पशुओं के लिये अभ्यारण्य हो। जंगल के प्रतीकों से सभ्य और समृद्ध गणराज्य और समाज की व्याख्या नहीं की जा सकती है। यह एक मानसिक और वैचारिक दरिद्रता है।
© विजय शंकर सिंह
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